[अवधेश कुमार]। प्रियंका गांधी वाड्रा के कांग्रेस महासचिव नियुक्त होने के बाद तमाम अटकलों पर विराम लग गया है। वस्तुत: जब भी सक्रिय राजनीति में उनके आने की औपचारिक घोषणा होती है तो व्यापक चर्चा का माहौल बनता है। इसलिए यदि इस समय उसके संभावित राजनीतिक प्रभावों पर गहन बहस चल रही है तो इसे बिल्कुल स्वाभाविक मानना चाहिए। कांग्रेस जब भी संकट में आती तो प्रियंका को कांग्रेस में लाने की मांग अवश्य उठती थी। ऐसी मांग पिछले करीब 18 वर्षों से हो रही थी। कांग्रेस के बड़े नेताओं से जब भी इस बारे में पूछा जाता, वे या तो यह कहते कि प्रियंका जी अभी अपने बच्चों पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं और राजनीति में नहीं आना चाहतीं या कुछ लोग यह कहकर बच जाते कि वह आएं तो उनका स्वागत है, लेकिन फैसला उन्हें ही करना है।

ऐसी स्थिति कई बार बनी जब लगा कि वह औपचारिक रूप से कांग्रेस का हिस्सा बन जाएंगी, लेकिन हर ऐसा अवसर टलता गया। पिछले वर्ष जुलाई- अगस्त में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के बीच उनके बारे में गंभीर विचार-विमर्श हुआ था और यह खबर आई थी कि अगर सोनिया गांधी रायबरेली से चुनाव न लड़ने का फैसला करती हैं तो उन्हें वहां से उम्मीदवार बनाया जा सकता है।

कांग्रेस इस लोकसभा चुनाव को अपने भविष्य के लिए जितना महत्वपूर्ण मान रही है उसमें वह अपने तूणिर के सारे तीरों को आजमाएगी। प्रियंका को कांग्रेस बहुआयामी परिणामों वाला तीर मानती है। कांग्रेस का आम कार्यकर्ता मानता है कि प्रियंका के आने का देशव्यापी प्रभाव होगा। तो क्या वाकई कांग्रेस के लिए प्रियंका वैसी साबित होंगी जैसी कांग्रेस के आम कार्यकर्ता मानते हैं। पहले इससे जुड़े कुछ पहलुओं को समझना आवश्यक है। सोनिया गांधी अपनी अस्वस्थता के कारण पहले की तरह सक्रिय नहीं हैं। पिछले पांच विधानसभा चुनावों में उनकी सक्रियता नहीं के बराबर थी। कर्नाटक चुनाव में भी उनकी एक सभा ही हुई। हालांकि यह कहना सही नहीं है कि प्रियंका स्वयं राजनीति में नहीं आना चाहती थीं। उन्होंने कभी ऐसा बयान नहीं दिया।

जाहिर है उनको कांग्रेस में औपचारिक भूमिका न देने के पीछे कई कारण थे। दस जनपथ के रणनीतिकारों को लगता था कि उनके आने के बाद सबसे बड़ी समस्या राहुल गांधी के लिए पैदा हो जाएगी। माना जाता था कि प्रियंका राहुल पर भारी पड़ जाएंगीं। अब जब राहुल गांधी अध्यक्ष बन चुके हैं तो प्रियंका को लाने में कोई समस्या नहीं थी। एक समस्या प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप थे। चिंता यह थी कि प्रियंका के आने के बाद विरोधी दल खासकर भाजपा वाड्रा को मुद्दा बनाएगी और इसका जवाब देना कठिन होगा। लेकिन इतने दिनों तक वाड्रा पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई तथा जमीन घोटाले के आरोप वाले एक राज्य राजस्थान से भाजपा सरकार भी चली गई। तो कांग्रेस के पास जवाब देने के लिए बहुत कुछ है।

बेशक तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों ने कांग्रेस के अंदर नई ऊर्जा का संचार किया है। किंतु राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से देखें तो उसके सामने अभी ऐसी चुनौतियां हैं जिनकी कल्पना तक नहीं की गई थी। अनेक राज्यों में उसे शून्य से आरंभ करना है। उत्तर प्रदेश जैसे सबसे ज्यादा सांसद देने वाले प्रदेश में बसपा-सपा ने उसे अपने साथ चुनाव लड़ने लायक भी नहीं समझा। अगर उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए अनुकूल नहीं बना तो वह केंद्रीय सत्ता की प्रबल दावेदार नहीं हो सकती।

महासचिव के साथ प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभावी चेहरा बनाने के पीछे यही सोच हो सकती है कि उनके प्रभाव से उस क्षेत्र में कांग्रेस फिर से खड़ी हो सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही आते हैं। कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं जो भाजपा के बड़े नेताओं के मुकाबले जनता के लिए आकर्षण का कारण बने, लिहाजा प्रियंका को आगे लाया गया है। देखना होगा कि उनको वहीं तक सीमित रखा जाएगा या वह देश के दूसरे हिस्सों में भी चुनावी सभा संबोधित करेंगी।

अभी तक प्रियंका की भूमिका मुख्यत: सोनिया गांधी और राहुल गांधी के चुनावी क्षेत्र रायबरेली और अमेठी की देखभाल, चुनाव के समय वहां का प्रबंधन तथा प्रचार संभालने तक सीमित रही है। देश के सामने उनकी राजनीतिक भूमिका का यही एक अंश है। इसके आधार पर कोई निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन है। हालांकि पिछले आम चुनाव में वह परोक्ष रूप से काफी सक्रिय थीं। घोषणा पत्र की तैयारी में उनकी भूमिका थी, राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी की चुनावी सभाएं तय करने में उनकी बातें अंतिम थीं तथा सोशल मीडिया प्रचार में सक्रिय थीं।

प्रियंका की दो विशेषताओं का उल्लेख

आमतौर पर किया जाता है। इसमें पहला है हिंदी में उनका राहुल गांधी से बेहतर वक्ता होना। हालांकि पिछले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी पर उन्होंने जो निजी आरोप लगाए उससे उनकी छवि अच्छी नहीं बनी। उनकी दूसरी विशेषता उनका चेहरा और हाव-भाव है जिसमें कुछ लोग इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं। चेहरे में कुछ समानता अवश्य है, किंतु इंदिरा गांधी ने स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान कांग्रेस के कार्यक्रमों में शामिल होकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी तथा आजादी के बाद भी कांग्रेस में सक्रिय रहीं। उस प्रकार की राजनीतिक क्षमता की कल्पना प्रियंका में कर लेना अतिवादी सोच का परिचायक होगा। जहां तक इंदिरा गांधी की छवि से लाभ मिलने की बात है तो उनको गुजरे हुए 34 वर्ष से अधिक हो गए।

आज जो 45 वर्ष से ऊपर के मतदाता हैं उनके मन में इंदिरा गांधी की कोई छवि होगी ही नहीं। नए युवा मतदाताओं ने तो इंदिरा गांधी के बारे में केवल सुना और पढ़ा है। इसलिए इंदिरा सदृश चेहरा और हाव-भाव का ज्यादा लाभ उन्हें मिल पाएगा ऐसी कल्पना नादानी है। सच कहा जाए तो प्रियंका को ही स्वयं को प्रमाणित करना है और यही उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगी। कांग्रेस ने अपना अंतिम तुरुप का पत्ता मैदान में उतार दिया है। इसका असर क्या होगा इसके बारे में कोई ठोस भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इतना जरूर कहा जा सकता है कि इससे पार्टी को कोई नुकसान नहीं होगा तथा कार्यकर्ताओं का एक बड़ा तबका ज्यादा उत्साह से चुनाव में काम करेगा।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]