शीतकालीन राजधानी जम्मू में सचिवालय खुलने पर कांग्रेस एवं ट्रांसपोर्टरों सहित कई राजनीतिक और सामाजिक संगठनों द्वारा जम्मू बंद का मिलाजुला असर देखने को मिला, लेकिन बंद के दौरान सभी दल आपस में बंटे दिखे, जिससे जम्मू बंद का आह्वान मात्र परंपरा बन कर रह गया। दरअसल जम्मू बंद का मुख्य आह्वान जम्मू से भेदभाव, राज्य में टोल टैक्स को समाप्त करने, महाराजा हरि सिंह के जन्मदिन पर छुट्टी घोषित करने को लेकर था। अधिकतर संगठनों ने पहले अपनी सहमति दिखाई, लेकिन सभी संगठन हड़ताल के दौरान एकजुट नहीं हो सके। हर राजनीतिक दल चाहे कांग्रेस हो या फिर पैंथर्स, सभी ने अपने तौर पर शक्तिप्रदर्शन किया, लेकिन यह दल मुख्य मुद्दे से कहीं न कहीं भटकते दिखे। नतीजतन जम्मू की आवाज कहीं न कहीं कमजोर होती दिखी। चैंबर ऑफ ट्रेडर्स फेडरेशन ने बंद से पहले सबसे बड़े व्यापारिक संगठन चैंबर ऑफ कॉमर्स और ट्रेडर्स फेडरेशन वेयर हाउस के अलावा जम्मू शहर के प्रमुख बाजारों के प्रतिनिधियों को विश्वास में नहीं लिया, जिससे एक बड़े संगठन ने खुद को हड़ताल से दूर रखा। शहर में अधिकतर बाजार खुले रहे। अगर सभी संगठन जम्मू की आवाज पर अलग-अलग होकर अपना राग नहीं अलापते तो इसे सशक्त ढंग से पेश किया जा सकता था। हरेक मांग कहीं न कहीं लोगों से जुड़ी होती हैं, जिसे संगठनों और राजनीतिक दलों को अपने तौर पर नहीं देखना चाहिए बल्कि इन्हें बड़े परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। अगर हम एकजुट होंगे तो सरकार पर भी इसका असर पड़ेगा। जनशक्ति में इतनी ताकत है कि वह सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकती है। जम्मू बंद के दौरान यह सब देखने को मिला। ऐसा नहीं कि सभी दल एक दूसरे का समर्थन करते और भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल देते। कई संगठनों की राजनीतिक मजबूरी हो सकती है, लेकिन टोल टैक्स और महाराजा के जन्मदिन पर छुट्टी को लेकर सभी दलों की पहले ही सहमति है। जब तक सभी दल एकजुटता नहीं दिखाएंगे तब तक कश्मीरी हुक्मरान जम्मू से भेदभाव करते रहेंगे। इसके लिए भाजपा को सरकार में रहते हुए पैनापन दिखाना होगा। जम्मू के लोगों के अधिकारों की बात करनी होगी क्योंकि जम्मू के लोगों ने ही भाजपा को चुना है। अगर भाजपा जम्मू केंद्रित नीतियों को नजरअंदाज करती रहेगी तो लोगों की विमुखता भी बढ़ेगी। इसका असर पंचायती और निकाय चुनावों पर भी पड़ सकता है।

[ स्थानीय संपादकीय: जम्मू-कश्मीर ]