दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए यह जो कहा कि विश्वविद्यालय वैचारिक लड़ाई का अखाड़ा न बनने पाएं, उस पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। यह आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि देश के कई विश्वविद्यालय वैचारिक लड़ाई के साथ ही हिंसक टकराव का मैदान बनने लगे हैं। इनमें से कुछ तो सरकारी अनुदान से संचालित होने वाले विश्वविद्यालय भी हैं।

आखिर कौन नहीं जानता कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किस तरह एक खास विचारधारा का पोषण इस हद तक होता है कि विपरीत विचार वालों को अपनी बात कहने का अवसर तक नहीं दिया जाता। यह एक किस्म के बौद्धिक अतिवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस विश्वविद्यालय में किस तरह देश विरोधी नारे गूंजते रहे हैं और किस प्रकार आतंकियों, नक्सलियों का महिमामंडन होता रहा है।

विश्वविद्यालय तो हर तरह के विचार विनिमय का केंद्र बनने चाहिए, क्योंकि यही भारत की परंपरा है। यह देखना दुखद है कि जब इस परंपरा को पोषित किया जाना चाहिए, तब उस पर प्रहार किया जा रहा है और इस क्रम में विपरीत विचार वालों को हेय दृष्टि से देखने के साथ ही उन्हें लांछित और अपमानित भी किया जाता है। ऐसा किया जाना भारत की ज्ञान परंपरा का अनादर ही है। स्वस्थ संवाद का जैसा अभाव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दिखता है, वैसा ही देश के कई अन्य शिक्षा संस्थानों में भी।

किसी भी शिक्षा संस्थान में किसी खास विचारधारा को अंतिम सत्य के रूप में प्रोत्साहित करने की नीति ज्ञानार्जन के मूल उद्देश्य के विरुद्ध है। कुछ शिक्षा संस्थान तो ऐसे हैं, जहां अधिकारों की लड़ाई के नाम पर असंतोष भड़काया जाता है और व्यवस्था को चुनौती देने के नाम पर अराजकता तक का सहारा लेने में संकोच नहीं किया जाता। यह बीमारी कुछ निजी शिक्षा संस्थानों में भी देखने को मिलने लगी है। क्या यह किसी से छिपा है कि अभी हाल में एक निजी विश्वविद्यालय में किस तरह फासीवाद और हिंदुत्व में समानता संबंधी प्रश्न पूछा गया?

कुछ शिक्षा संस्थानों में विपरीत विचार वालों के प्रति दुराग्रह ने घनघोर असहिष्णुता का कैसा रूप ले लिया है, इसे इससे समझा जा सकता है कि छात्रों को ऐसे विद्वानों को व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित करने से रोका जाता है, जो किसी विषय पर विपरीत विचार रखते हैं अथवा प्रचलित मान्यताओं का तर्कों और तथ्यों के साथ खंडन करते हैं। दुर्भाग्य से यह काम दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ महाविद्यालयों में भी हो चुका है।