तत्काल तीन तलाक की बुराई को रोकने के लिए लोकसभा में पेश मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक का कांग्रेस, जद-यू समेत कुछ अन्य दलों की ओर से विरोध किए जाने पर हैरानी नहीं। इन दलों ने पहले से ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वे इस मसले पर विरोध की राह पर ही चलना पसंद करेंगे।

तत्काल तीन तलाक से संबंधित विधेयक का विरोध करने वाले दल यह तर्क दे रहे हैं कि आखिर एक सामाजिक बुराई को रोकने के लिए कानून का सहारा क्यों लिया जा रहा है? यह इसलिए एक खोखला तर्क है कि अतीत में भारत ही नहीं, अन्य अनेक देश भी सामाजिक कुरीतियों पर रोक लगाने के लिए कानून का सहारा ले चुके हैं।

क्या दहेज और बाल विवाह पर कानून नहीं बनाए गए? पता नहीं क्यों तत्काल तीन तलाक संबंधी विधेयक का विरोध कर रहे राजनीतिक दल यह साधारण सी बात समझने को तैयार नहीं कि कुछ कुरीतियां ऐसी होती हैं जिन्हें रोकने के लिए कानून का सहारा लेना ही पड़ता है।

इन राजनीतिक दलों को इस तथ्य से परिचित होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से तत्काल तीन तलाक को अवैध ठहरा दिए जाने के बाद भी इस तरह से तलाक देने का सिलसिला कायम है। क्या लोकसभा में मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक पेश करते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की ओर से दी गई यह जानकारी चौंकाने वाली नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक झटके में तलाक देने के 229 मामले सामने आ चुके हैं? क्या यह अदालत की अवमानना के साथ विधि के शासन को चुनौती नहीं?

चिंताजनक केवल यह नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की परवाह नहीं की जा रही है, बल्कि यह भी है कि तत्काल तीन तलाक को दंडनीय अपराध ठहराने वाले अध्यादेश के बाद भी इसी तरह से तलाक देने का काम किया गया। एक आंकड़े के अनुसार उक्त अध्यादेश के बाद एक झटके में तलाक देने के 31 मामले सामने आ चुके हैं। स्पष्ट है कि ऐसे आंकड़ों के बाद यह दलील भी बहुत दमदार नहीं रह जाती कि आननफानन तलाक देकर पत्नी को छोड़ देने के मामलों में कमी आ रही है।

इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कई मुस्लिम संगठन ऐसे हैं जो तत्काल तीन तलाक को कुरान सम्मत न मानते हुए भी यह चाह रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार इस मामले में दखल न दे। शायद यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यकायक तलाक देने के मामले थमे नहीं।

जब समाज किसी सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध न दिखे तब फिर सरकार के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं कि वह दंडात्मक उपायों का सहारा ले। मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक लाकर सरकार ने यही किया है।

क्या इस विधेयक का विरोध कर रहे दल ऐसा कोई उपाय सुझा सकते हैं जिससे दंडात्मक प्रावधानों वाले कानून के बगैर इस सामाजिक बुराई को रोका जा सके? बेहतर हो कि वे यह समझें उनकी ओर से वही गलती की जा रही है जो शाहबानो मामले में राजीव गांधी सरकार ने की थी। 

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