अयोध्या मामले का समाधान मध्यस्थता के जरिये करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही यह पता चलेगा कि आपसी बातचीत से इस विवाद का हल निकालने की दिशा में आगे बढ़ा जाता है या नहीं, लेकिन उचित यही होगा कि सदियों पुराने इस प्रकरण को आपस में मिल-बैठकर सुलझाने की कोशिश नए सिरे से की जाए। यह सही है कि इसके पहले आपसी बातचीत से अयोध्या मसले के हल की कई कोशिश हो चुकी हैं और वे कामयाब नहीं रहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इस दिशा में बढ़ने से ही बचा जाए। किसी काम में असफलता मिलते रहने के आधार पर इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि सफलता मिल ही नहीं सकती।

यह भी याद रखना चाहिए कि पहले आपसी बातचीत से अयोध्या विवाद के समाधान की कोई राह इसलिए नहीं निकल सकी, क्योंकि तब कुछ राजनीतिक दलों का एक मात्र एजेंडा ही यह था कि यह विवाद अनसुलझा बना रहे ताकि उनके संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति होती रहे। उनके इस एजेंडे को पूरा करने में कुछ बुद्धिजीवी भी सहायक बने। आखिर यह किसी से छिपा नहीं कि प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के कार्यकाल में जब आपसी बातचीत से अयोध्या मसले का हल निकालने के गंभीर प्रयास हो रहे थे तब किस तरह कुछ वामपंथी इतिहासकारों ने एक पक्ष को सुलह की राह से हटने के लिए उकसाया। इन संकीर्ण सोच वाले इतिहासकारों ने बाद में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करने के साथ ही पुरातात्विक साक्ष्यों को भी नकारने की कोशिश की।

अयोध्या मामले के सभी पक्षकार सुप्रीम कोर्ट की इस बात पर ध्यान दें तो बेहतर कि अगर मध्यस्थता के माध्यम से इस विवाद का हल निकलने की संभावना एक प्रतिशत भी है तो ऐसा किया जाना चाहिए। इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि यह देश में सद्भाव को बल देगा और साथ ही दुनिया के लिए उदाहरण बनेगा कि जटिल मसले भी बातचीत से सुलझाए जा सकते हैैं। नि:संदेह इतिहास की भूलों को नहीं सुधारा जा सकता, लेकिन उनसे सबक लेकर भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है।

अयोध्या भगवान राम के जन्म स्थान के रूप में पूरी दुनिया में मान्य है। वह अयोध्या के पर्याय हैैं और साथ ही देश की अस्मिता के प्रतीक भी। अगर उनके नाम का मंदिर उनके जन्म स्थान पर नहीं बन सकता तो और कहां बन सकता है? आखिर इस साधारण से प्रश्न पर ईमानदारी से विचार करने वाला कोई भी व्यक्ति या संगठन अयोध्या में राम जन्म भूमि मंदिर के निर्माण का विरोध कैसे कर सकता है? यदि वह करता है तो क्या उसे भारतीय समाज का हितैषी कहा जा सकता है?

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं कि अयोध्या विवाद के समाधान के लिए मध्यस्थता की सूरत बनेगी या नहीं, लेकिन अगर ऐसी सूरत बनती है तो फिर यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि यथाशीघ्र समाधान के करीब पहुंचा जाए, क्योंकि पहले ही बहुत अधिक देर हो चुकी है और उसके चलते लोग अधीर हो रहे हैैं। इस अधीरता का आभास सुप्रीम कोर्ट को भी होना चाहिए। मध्यस्थता के नाम पर ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे विवाद को टालने की कोशिश होती दिखे।