कृषि कानूनों के खिलाफ राष्ट्रपति को ज्ञापन देने के बाद कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने देश में लोकतंत्र के केवल कल्पनालोक तक सीमित रह जाने के साथ ही मोदी सरकार के खिलाफ जिस तरह अपनी भड़ास निकाली, उससे यही प्रकट हुआ कि वह वैचारिक और मानसिक रूप से अब भी वहीं हैं, जहां लोकसभा चुनाव के पहले थे। उनकी समझ से कृषि कानूनों में सुधार के नाम पर चार-पांच पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने की कोशिश की गई है। यह ठीक वही आरोप है जो वह लोकसभा चुनावों के वक्त भी उछाल रहे थे। लगता है कि कोई उन्हें यह बताने-समझाने वाला नहीं कि ऐसे घिसे हुए आरोपों से बात नहीं बनने वाली।

शायद यही कारण है कि उन्होंने किसानों का जिक्र करते हुए चीन की भी चर्चा कर डाली और प्रधानमंत्री को अक्षम भी करार दिया। उनके ऐसे तेवरों पर हैरानी नहीं, क्योंकि उनका तो एक मात्र लक्ष्य ही प्रधानमंत्री को नीचा दिखाना और येन-केन-प्रकारेण उनकी छवि धूमिल करना है।

नि:संदेह उनके पास प्रधानमंत्री के खिलाफ बहुत कुछ कहने को होता है, लेकिन उसमें तत्व और तथ्य मुश्किल से ही मिलते हैं। यही कारण है कि उनकी बातें असर नहीं करतीं और कई बार तो वह हास-परिहास का विषय बन जाते हैं।

क्या यह हास्यास्पद नहीं कि राहुल गांधी कृषि क्षेत्र में सुधारों की जरूरत तो जता रहे हैं, लेकिन ठीक वैसे ही सुधारों का विरोध कर रहे हैं जैसे कांग्रेस के घोषणापत्र में दर्ज किए गए थे? उन्होंने दिल्ली में डेरा डाले किसानों की खुली तरफदारी करते हुए यह कहा कि जब तक कृषि कानून वापस नहीं लिए जाते, तब तक ये किसान पीछे नहीं हटेंगे। उनके इस कथन से इसकी ही पुष्टि होती है कि पंजाब के किसानों को उकसाकर दिल्ली लाने में कांग्रेस का ही हाथ है। कल तक किसान संगठन यह कह रहे थे कि उनका किसी राजनीतिक दल से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे या तो कांग्रेस की भाषा बोल रहे हैं या फिर वामपंथी समूहों की।

यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि अड़ियल किसान नेताओं की तरह राहुल गांधी ने भी यही कहा कि कृषि कानूनों को वापस लेने का काम किया जाए। क्या संवैधानिक और लोकतांत्रिक परंपराएं यह कहती हैं कि यदि किसी कानून के विरोध में कुछ लोग सड़क पर आकर बैठ जाएं तो सरकार को उसे वापस ले लेना चाहिए? क्या राहुल गांधी ऐसे ही किसी लोकतंत्र की कल्पना कर रहे हैं? यदि नहीं तो फिर उन्हें बताना चाहिए कि संसद से पारित कानून वापस लेने की अनुचित मांग का खुला समर्थन करके वह क्या संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं?