अब इस पर कोई संशय नहीं कि नागरिकता संशोधन कानून के हिंसक विरोध के पीछे अज्ञानता भरे अंदेशे के साथ ही शरारत भरे राजनीतिक दुष्प्रचार की भी एक बड़ी भूमिका है। नागरिकता कानून में संशोधन के बाद विभिन्न विपक्षी राजनीतिक दलों और किस्म-किस्म के गैर राजनीतिक संगठनों ने एक ऐसा माहौल खड़ा कर दिया है, मानो सरकार ने अनर्थ कर दिया हो।

हैरानी यह है कि ऐसा माहौल खड़ाकर अराजकता को हवा देने का काम वे दल भी कर रहे हैं जो एक समय नागरिकता कानून में वैसी ही व्यवस्था चाह रहे थे जैसे सरकार ने की और जिस पर संसद ने विधिवत मुहर भी लगाई।

नागरिकता कानून के खिलाफ आज आग उगल रही कांग्रेस बड़ी चतुराई से यह भूलना पसंद कर रही है कि वाजपेयी सरकार के समय राज्यसभा में बतौर नेता विपक्ष मनमोहन सिंह बांग्लादेश जैसे देशों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करने में नरमी बरतने की जरूरत जता रहे थे।

उन्होंने इन प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करना देश की नैतिक जिम्मेदारी भी बताया था। अब जब मोदी सरकार ने इसी नैतिक जिम्मेदारी का निर्वाह कर दिया तो कांग्रेस समेत अन्य दल अराजकता का माहौल बनाने में जुटे हुए हैं।

कायदे से तो मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनने पर इस नैतिक जिम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने उससे पल्ला झाड़ना ही बेहतर समझा और वह भी तब जब असम से राज्यसभा सदस्य होने के नाते इससे भली तरह परिचित थे कि पूर्वोत्तर के विभिन्न इलाकों में पड़ोस से आए अल्पसंख्यक कितनी दयनीय दशा में रह रहे हैं।

यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते समय माकपा नेता प्रकाश करात ने उन्हें चिट्ठी लिखकर नागरिकता कानून को इस तरह संशोधित करने की मांग की थी कि बांग्लादेश से आए और परेशान हो रहे अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता मिल सके। इस चिट्ठी में उन्होंने मनमोहन सिंह को उनके उस संबोधन की याद भी दिलाई थी जो उन्होंने राज्यसभा में दिया था।

आज माकपा और अन्य दल बिना शर्म- संकोच नागरिकता कानून को काला कानून में बताने में लगे हुए हैं। वास्तव में इसी शरारतपूर्ण राजनीति के कारण नागरिकता कानून का हिंसक विरोध हो रहा है। यह भी एक किस्म की शरारत ही है कि शांतिपूर्ण विरोध के बहाने अशांति और अराजकता फैलाने का काम किया जा रहा है।

बंगाल, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की हिंसक घटनाएं यही रेखांकित कर रही हैं कि अराजकता और उन्माद फैलाने का काम किस सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। राजनीतिक फायदे के लिए हमारे नेता किस हद तक गिरने को तैयार हैं, इसका ही शर्मनाक उदाहरण है ममता बनर्जी की जनमत संग्रह संबंधी मांग।