यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले को बातचीत से हल करने के लिए तीन मध्यस्थ तय कर दिए। तीन सदस्यीय मध्यस्थता समूह की अध्यक्षता सेवानिवृत्त न्यायाधीश एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला को सौंपी गई है। इस समूह के दो अन्य सदस्य हैं आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर और वरिष्ठ वकील एवं मध्यस्थता संबंधी मामलों के विशेषज्ञ श्रीराम पंचू।

हालांकि, कुछ लोगों को श्रीश्री रविशंकर के मध्यस्थ होने पर आपत्ति है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि वह अपने स्तर पर अयोध्या मामले को बातचीत से हल करने की कोशिश कर चुके हैं। वह न केवल इस विवाद के हर पहलू से परिचित हैं, बल्कि उन्हें इसका भी भान है कि संबंधित पक्ष क्या चाहते हैं? स्पष्ट है कि उनके जैसे किसी शख्स को इस मध्यस्थता समूह में होना ही चाहिए था। 

सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता पैनल को आठ सप्ताह का समय दिया है और यह भी अपेक्षा की है कि आपसी बातचीत का विवरण मीडिया को सार्वजनिक करने से बचा जाए। इस पर भी विरोध के कुछ स्वर सामने आए हैं, लेकिन विरोध जताने वाले यह ध्यान रखें तो बेहतर कि किसी संवेदनशील मसले पर पल-पल की जानकारी देना कई बार समस्या को उलझाने का ही काम करता है। नि:संदेह इस मध्यस्थता समूह के सिर पर महती जिम्मेदारी है और यह तय है कि उस पर देश ही नहीं, दुनिया की भी निगाहें होंगी, लेकिन उसकी सफलता-असफलता संबंधित पक्षों के रुख-रवैये पर निर्भर करेगी। बेहतर हो कि उन्हें भी अपनी जिम्मेदारी का आभास हो।

कहने को तो अयोध्या मामला जमीन के मालिकाना हक का विवाद है, लेकिन सच्चाई यही है कि यह केवल जमीन के एक टुकड़े का मसला नहीं है। इस पर हैरत नहीं कि कुछ लोग अभी भी यह तर्क पेश कर रहे हैं कि आखिर सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाने के बजाय उसे मध्यस्थता के हवाले क्यों कर दिया? इस तर्क का अपना महत्व है, लेकिन सभी पक्षों से बात करके किसी सर्वमान्य हल पर पहुंचने के जो लाभ हैं वे कहीं अधिक दूरगामी महत्व के हैं। यदि आपसी वार्ता से अयोध्या विवाद का हल निकल आता है तो किसी भी पक्ष को निराशा का सामना नहीं करना पड़ेगा।

आपसी सहमति से हासिल समाधान न केवल संबंधित पक्षों में सद्भाव बढ़ाएगा, बल्कि देश में भी मैत्री की भावना का संचार करेगा। क्या इससे बेहतर और कुछ हो सकता है कि अयोध्या मामले का हल इस तरह से हो कि कोई भी पक्ष हार या जीत की भावना से न भरे? यह सही है कि किसी सर्वमान्य हल पर पहुंचना एक कठिन काम है, लेकिन अगर तनिक भी संभावना है तो उसे टटोला जाना चाहिए। अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट ने जो काम अब किया वह तभी कर देता जब उसकी ओर से पहली बार इस मामले को बातचीत से हल करने की जरूरत जताई गई थी। जो भी हो, कम से कम अब तो सुप्रीम कोर्ट को इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि अगर मध्यस्थता से बात न बने तो फिर वह अपना फैसला सुनाने में देर न करे। वैसे अच्छा यही होगा कि इसकी नौबत न आए।