सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने यह कहकर अपने कठोर रवैये का ही परिचय दिया कि कश्मीर में जो भी आतंक के रास्ते पर जाएंगे वे बख्शे नहीं जाएंगे। यह अच्छा हुआ कि उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट कहा कि यदि ऐसे तत्व सुधरते नहीं तो उन्हें खत्म करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं रह जाएगा। नि:संदेह यह एक कठोर चेतावनी है, लेकिन किसी भी सैन्य अधिकारी से ऐसे ही रवैये की अपेक्षा की जाती है, क्योंकि उसकी पहली प्राथमिकता देश के लिए खतरा बने तत्वों को मुंहतोड़ जवाब देना होता है।

खरी बात कहने के लिए चर्चित सेना प्रमुख ने आतंकियों के प्रति अपने सख्त रुख को रेखांकित करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि कश्मीर में रह रहे हर ऐसे शख्स से बातचीत की जा रही है जो इसका इच्छुक है। इसी क्रम में उन्होंने यह सही सवाल उछाला कि अगर अलगाववादी बात करना नहीं चाहते तो कोई क्या कर सकता है? बेहतर हो कि वे राजनीतिक दल और खासकर घाटी में असर रखने वाले राजनीतिक दल अलगाववादी नेताओं को वार्ता की मेज पर लाने का काम करें जो उनसे बातचीत की जरूरत जताते रहते हैैं। उन्हें यह बुनियादी बात समझनी होगी कि सरकार या उसके वार्ताकार अथवा अन्य कोई किसी से भी जबरन बातचीत नहीं कर सकता।

विडंबना यह है कि ऐसे राजनीतिक दल सत्ता में रहते समय अलग सुर में बोलते हैैं और विपक्ष में रहते समय अलग सुर में। इससे भी खराब बात यह है कि विपक्ष में रहते समय कई बार उनके और अलगाववादी तत्वों के रुख-रवैये में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। वे कभी पाकिस्तान से बातचीत की जरूरत पर जोर देने लगते हैैं तो कभी स्थानीय आतंकियों के प्रति नरमी बरते जाने की पैरवी करने लगते हैैं। यह तो किसी से छिपा ही नहीं कि उनकी नजर में पत्थरबाज भटके हुआ युवा हैैं। इस दोषपूर्ण नजर में एक गंभीर समस्या छिपी हुई है, क्योंकि यह एक तथ्य है कि पत्थरबाज मूलत: आतंकियों के खुले-छिपे समर्थक हैैं। उनकी हरकतों के कारण ही सुरक्षा बलों को आतंकियों से निपटने में मुश्किल पेश आती है।

यह ठीक नहीं कि जब पत्थरबाजों को सख्त हिदायत दी जानी चाहिए तब कश्मीर के राजनीतिक दल उन्हें माफी देने को तैयार दिखते हैैं। यह रवैया और कुछ नहीं अलगाववाद को परोक्ष रूप से दी जाने वाली शह है। अगर कश्मीर के मुख्यधारा के राजनीतिक दल पत्थरबाजी का विरोध करने के लिए आगे नहीं आएंगे तो फिर उनमें और अलगाववादियों में अंतर ही क्या रह जाएगा?

समस्या केवल यह नहीं है कि कश्मीर के राजनीतिक दल हिंसा और आतंक की राह पर जाने वाले तत्वों के खिलाफ खुलकर बोलने को तैयार नहीं। समस्या यह भी है कि अन्य राजनीतिक दल भी पत्थरबाजों और अलगाववादियों के प्रति नरम-मुलायम बने रहते हैैं। आश्चर्य नहीं कि वे सेना प्रमुख के ताजा बयान पर असहमति दर्ज कराएं। आखिर यह किसी से छिपा नहीं कि इसके पहले सेना प्रमुख ने पत्थरबाजों को जब भी चेताया, राजनीतिक दलों ने एकजुट होकर उनका समर्थन करना पसंद नहीं किया। ऐसा संकीर्ण राजनीति कारणों से हुआ। दरअसल यह संकीर्णता भी कश्मीर की अशांति का एक कारण है।