जोर-जबरदस्ती का सहारा लेकर कराए गए भारत बंद की नाकामी के बाद किसान हितों की फर्जी आड़ में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे दलों को यह आभास हो जाए तो बेहतर कि वे किसानों को सड़कों पर उतारकर अपनी फजीहत ही करा रहे हैं। इस पूरे प्रकरण में यदि किसी राजनीतिक दल की सबसे अधिक फजीहत हो रही है तो वह है कांग्रेस। अपनी इस फजीहत के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। कांग्रेस अपने नेताओं के बयानों और यहां तक कि अपने उस घोषणापत्र से मुंह नहीं चुरा सकती जिसमें वैसे ही कृषि सुधारों को आगे बढ़ाने पर बल दिया गया था जैसे सुधार तीन नए कृषि कानूनों के जरिये किए गए हैं।

कांग्रेस किस तरह कुतर्क की राजनीति करने पर आमादा है, इसका ताजा और शर्मनाक प्रमाण हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का यह बयान है कि उनकी पार्टी कृषि क्षेत्र में सुधारों के खिलाफ नहीं है, लेकिन नए कृषि कानून वापस लिए जाने चाहिए। आखिर यह क्या बात हुई? इसे कुतर्क और राजनीतिक पैंतरेबाजी के अलावा और क्या कहा जा सकता है कि नए कृषि कानूनों को रद कर उन्हें नए सिरे से बनाने की मांग की जाए? क्या इसका यही मतलब नहीं कि कहीं न कहीं खुद कांग्रेस कृषि सुधारों की आवश्यकता महसूस कर रही है?

बेहतर हो कि किसान संगठन कांग्रेस, राकांपा और तृणमूल कांग्रेस सरीखे मौकापरस्त दलों के असली चेहरे की पहचान करें और यह समझें कि इन दलोें का उद्देश्य उनकी आंखों में धूल झोंकना ही है। यदि नए कृषि कानूनों में कहीं कोई खामी है तो उस पर बात करने में हर्ज नहीं। खुद सरकार भी इसके लिए तैयार है, लेकिन इसका कोई तुक नहीं कि कृषि कानूनों को रद करने की बात की जाए। इस तरह की बातें कुल मिलाकर किसानों का अहित ही करेंगी, क्योंकि खुद किसान भी यह अच्छी तरह जान रहे हैं कि पुरानी व्यवस्था को अधिक दिनों तक नहीं ढोया जा सकता। उचित यह होगा कि किसान संगठन कांग्रेस सरीखे दलों से पल्ला झाड़कर अपने हितों की चिंता करें और इस क्रम में यह देखें कि किसी भी क्षेत्र में सुधार एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं और समय के साथ व्यवस्था सही आकार लेती है। विभिन्न क्षेत्रों में किए गए आर्थिक सुधार यही बयान भी कर रहे हैं।

किसानोें को अपने हितों की चिंता करते समय इस पर भी गौर करना होगा कि उन्हें अपने दूरगामी हितों की रक्षा को अधिक प्राथमिकता देनी होगी। किसी भी क्षेत्र में किए जाने वाले सुधार प्रारंभ में कुछ कठिनाइयों को जन्म देते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सुधारों को अपनाने से बचा जाए और अप्रासंगिक नियम-कानूनों और तौर-तरीकों को बनाए रखने की जिद पकड़ ली जाए।