डेरा प्रकरण में पंचकूला में हुर्ई हिंसा के 53 अभियुक्तों पर देशद्रोह और हत्या के प्रयास की धारा को न्यायालय ने निरस्त कर दिया है। यह निर्देश हरियाणा पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है। पुलिस ने गिरफ्तार लोगों पर जानबूझकर गंभीर धाराएं लगाईं या फिर पर्याप्त साक्ष्य जुटाने में लापरवाही की। यह बात भी रेखांकित करने योग्य है कि किसी भी प्रकरण में पुलिस पर इतना राजनीतिक दबाव बना दिया जाता है कि उसकी जांच की दिशा भटक जाती है। इसलिए केवल पुलिस को भी दोषी ठहराना वास्तविकता से मुंह मोड़ना होगा। इस प्रकरण में हत्या के प्रयास और राजद्रोह की धाराएं अभियुक्तों पर प्रथमदृष्ट्या नहीं बनती थीं।

अभियोजन पक्ष ने आरोप पत्र में भी यह उल्लेख नहीं किया कि किसी पुलिस कर्मचारी या अन्य पर सशस्त्र आक्रमण किया गया अथवा किसी को गंभीर चोट लगी। जब पुलिस ने अपने आरोप में ऐसा उल्लेख नहीं किया तो धारा 307 लगाने का कोई औचित्य नहीं था। पुलिस ने यह भी नहीं स्पष्ट किया कि अभियुक्त राज्य के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने के लिए एकत्र हुए थे। उन्हें डेरा प्रमुख के सत्संग के बहाने बुलाया गया या फैसला अनुकूल न आए तो उपद्रव करने के लिए, इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि अनुयायियों की मंशा राजद्रोह की नहीं थी। न्यायालय के इस निर्देश के बाद अन्य अभियुक्तों के विरुद्ध भी पुलिस को इन धाराओं के साक्ष्य दे पाना कठिन होगा। इसका लाभ बचाव पक्ष को मिल सकता है। ऐसे ही अधिकतर आपराधिक वादों में जांच के दौरान की गई त्रुटियों का लाभ उठाकर अभियुक्त छूट जाते हैं।

[ स्थानीय संपादकीय: हरियाणा ]