अपने कामकाज से वंचित किए गए सीबीआइ प्रमुख आलोक वर्मा को बहाल करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला मोदी सरकार के उस फैसले पर सवाल खड़े कर गया जिसके तहत उन्हें जबरन छुट्टी पर भेजा गया था। इसके बावजूद यह फैसला न तो बतौर संस्था सीबीआइ की साख बहाल करने वाला है और न ही उसके प्रमुख की। इस फैसले की ऐसी कोई व्याख्या करना कठिन है कि इससे सीबीआइ प्रमुख सही साबित हुए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि आलोक वर्मा तब तक कोई नीतिगत या संस्थागत फैसला नहीं लेंगे जब तक उन्हें नियुक्त करने वाली उच्च स्तरीय समिति इसकी इजाजत न दे दे।

सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए समिति को एक सप्ताह का समय दिया है, लेकिन क्या यह विचित्र नहीं कि वह खुद दो महीने में यह तय नहीं कर सका कि आलोक वर्मा पर लगे आरोप कितने गंभीर हैैं? एक सवाल यह भी है कि आखिर इस फैसले को सुरक्षित रखने की क्या आवश्यकता थी, क्योंकि आलोक वर्मा का कार्यकाल चंद दिनों का ही है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सीबीआइ प्रमुख को छुट्टी पर भेजने का निर्णय उसे नियुक्ति करने वाली उच्च स्तरीय समिति को करना चाहिए था।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार को सबक मिलने के साथ ही भविष्य के लिए एक नजीर तो बन गई, लेकिन इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि अगर सीबीआइ प्रमुख रंगे हाथ पकड़े जाएं तो भी क्या सरकार को पहले उसे नियुक्ति करने वाली उच्च स्तरीय चयन समिति के पास ही जाना होगा? सवाल यह भी है कि आखिर ऐसी किसी स्थिति में सीबीआइ के कामकाज की निगरानी करने वाले केंद्रीय सतर्कता आयोग की भूमिका क्या होगी? जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सीबीआइ प्रमुख और तत्कालीन विशेष निदेशक एक-दूसरे के कपड़े उतारने में लगे हुए थे। अगर सरकार दोनों से काम छीनकर छुट्टी पर नहीं भेजती तो सीबीआइ के साथ ही सरकार का और अधिक उपहास ही उड़ता।

सीबीआइ जैसी संस्था के प्रमुख का कार्यकाल तय करना सर्वथा उचित है, लेकिन अगर वह गंभीर आरोपों से घिर जाए या फिर किसी मामले में रंगे हाथ पकड़ा जाए तो फिर उसे उसके पद से हटाने की कोई आसान प्रक्रिया भी होनी चाहिए। अगर उसे नियुक्त करने वाली समिति उसके बारे में कोई आमराय नहीं बना पाती तो क्या वह अपने पद पर बना रहेगा? आखिर यह किसी से छिपा नहीं कि कई बार यह समिति सीबीआइ प्रमुख का चयन आसानी से नहीं कर पाती।

सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को सीबीआइ प्रमुख के पद पर बहाल करते हुए जिस तरह यह साफ किया कि वह न तो कोई नीतिगत फैसला कर सकेंगे और न ही किसी नए मामले को देख सकेंगे वह एक तरह से उन पर अविश्वास ही है। पता नहीं उच्च स्तरीय समिति आलोक वर्मा के संदर्भ में क्या फैसला करती है, लेकिन इसमें कोई संशय नहीं कि उनके शेष कार्यकाल में सीबीआइ को न तो कोई दिशा मिलने वाली है और न ही उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होने वाली है। बेहतर हो कि इस पर नए सिरे से विचार हो कि सीबीआइ एक विश्वसनीय संस्था कैसे बने।