[ बद्री नारायण ]: भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने हाल में एक एडवाइजरी यानी सलाह जारी कर मीडिया एवं संबंधित संस्थानों से आग्रह किया कि वे दलित सामाजिक समूहों एवं जातियों के लिए दलित के स्थान पर अनुसूचित जाति या एससी शब्द का उपयोग करें। इससे मीडिया, राजनीतिक विश्लेषकों, अकादमिक वर्ग और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक विमर्श छिड़ गया। उनकी ओर से यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि इससे क्या हासिल होगा? इसके क्या राजनीतिक निहितार्थ हैं? क्या सत्तारूढ़ दल द्वारा यह कदम उठाने के पीछे कोई राजनीतिक मंशा छिपी हुई है? इन सवालों के बीच यह जानना जरूरी है कि पिछले दिनों मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने अपने एक निर्णय में सभी सरकारी प्रपत्रों में दलित के स्थान पर एससी शब्द का ही इस्तेमाल करने का सुझाव दिया था। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट एवं कई अन्य विधिक संस्थानों के माध्यम से भी ऐसे सुझाव सामने आ चुके हैं।

एससी शब्द एक प्रशासनिक शब्दावली है। इसके तहत उन सामाजिक समूहों की अस्मिता निर्धारित होती है जिनका निर्धारण औपनिवेशिक जनगणना एवं गजेटियर्स के माध्यम से अंग्रेजी काल में किया गया था। आजादी के बाद शेड्यूल्ड की गई जातियों की सूची में समय-समय पर संशोधन एवं परिवर्तन किया जाता रहा। जबकि दलित शब्द एक व्यापक सामाजिक एवं राजनीतिक श्रेणी है। इसमें अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त जनजातियां, निम्न ओबीसी, मुस्लिम एवं महिला सहित वे सभी सामाजिक समूह आ सकते हैं जो हमारे जाति प्रधान समाज में दलन यानी दमन के शिकार रहे हैं। ऐसे में दलित शब्द एससी से ज्यादा व्यापक रूप में उपयोग में लाया जाता है।

जब हम दलित शब्द का उपयोग करते हैं दो अर्थ सामने आते हैं- एक तो वह जो उपेक्षित, प्रताड़ित एवं दमित है, दूसरा वह जो अपनी इस स्थिति से उबरने के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संघर्ष में रत है। इसके विपरीत एससी शब्द एक निरपेक्ष भाव पैदा करता है। महाराष्ट्र से उभरी उपेक्षितों की राजनीति में दलित शब्द एक अस्मिता से जुड़े शब्द के रूप में सामने आया जिसे ज्योतिबा फूले एवं डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे दमितों के विचारकों ने संघर्ष से नया राजनीतिक एवं सांस्कृतिक अर्थ दिया। अब यह शब्द अनुसूचित जाति के लोगों एवं अन्य उपेक्षितों के लिए उनकी अस्मिता का प्रतीक शब्द बन गया है।

दलित शब्द का उपयोग अनुसूचित समाज का मध्य वर्ग, पढ़ा लिखा तबका, शहरी दलित संवर्ग, दलित नेतृत्वकारी समूह लगातार करते रहे हैं। महाराष्ट्र में तो यह शब्द गांवों, कस्बों, झुग्गी बस्तियों के साथ ही मुंबई, पुणे, सतारा, नागपुर जैसे नगरों की अनुसूचित जाति की आबादी का लोकप्रिय शब्द बन गया है। इस शब्द का लंबा इतिहास रहा है। इतिहास ने इसका अर्थ और छवियां गढ़ी हैं। महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों में दलित शब्द अभी ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाया है।

गांवों में अनुसूचित जाति के लोग अपनी जाति के नाम से अपनी पहचान को जोड़ते हैं। जब वे सरकारी कार्यालयों में आवेदन करते हैं, पुलिस में रपट लिखाते हैं या सरकारी योजनाओं में अपनी हिस्सेदारी की मांग करते हैं तो वे अपने लिए अनुसूचित जाति शब्द का प्रयोग करते हैं। इन्हीं राज्यों में अनुसूचित जाति के लोग जब बहुजन समाज पार्टी या ऐसे ही अन्य राजनीतिक अथवा सामाजिक संगठन की रैली इत्यादि में जाते हैं तो वे अपने लिए दलित या बहुजन शब्द का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार अनुसूचित सामाजिक समूह का एक ही व्यक्ति एक साथ अनेक अस्मिताओं को लेकर चलता है, जिनका वह वक्त और संदर्भ के हिसाब से अलग-अलग इस्तेमाल करता है।

कांशीराम अपने राजनीतिक संदर्भ में दलित शब्द का प्रयोग कम से कम करते थे। इसके बजाय वह बहुजन शब्द का ज्यादा इस्तेमाल करते थे। बहुजन शब्द दलित शब्द से भी ज्यादा व्यापक है। इसके दायरे में ऊंचे एवं प्रभावी सामाजिक समूहों को छोड़कर सभी आ जाते हैं। कांशीराम का तो यहां तक मानना था कि ब्राह्मणों में गैर मनुवादी सामाजिक व्यवहार में विश्वास करने वाले लोग बहुजन कोटि में आ सकते हैं। बहुजन समाज पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग का आधार उनका यही विश्वास था। इसी कारण उत्तर प्रदेश के पिछले कई चुनावों में ब्राह्मण एवं अन्य ऊंची जातियों ने भी बसपा का समर्थन किया। बहुजन बुद्धवादी विमर्श से उभरी शब्दावली है जो पहले महाराष्ट्र के दलित विमर्श की शब्दावली का हिस्सा बना। इसे बाद में कांशीराम ने उप्र एवं देश के अन्य भागों में राजनीतिक विमर्श का केंद्र बना दिया। कांशीराम की तरह मायावती ने भी दलित शब्द का इस्तेमाल कम से कम किया है।

बिहार के तमाम गांवों में आज भी अनुसूचित सामाजिक समूह के लोग अपनी पहचान के लिए अक्सर हरिजन शब्द का प्रयोग करते हैं। हरिजन शब्द महात्मा गांधी ने अनुसूचित सामाजिक समूह के लोगों के लिए इस्तेमाल किया था। कुछ सामाजिक शोधकर्ताओं का मानना है कि आधार तल पर और ग्रामीण अंचलों में आज भी अनुसूचित जाति के लोग दलित से ज्यादा हरिजन शब्द का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि दलित विमर्श में हरिजन शब्द को नकारात्मक अर्थ और प्रतीक के रूप में देखा जाता है।

प्रश्न उठता है कि एससी शब्द से उपेक्षित समूहों की कैसी अस्मिता निर्मित होती है और उनकी इस अस्मिता पर क्या असर पड़ता है? एक सवाल यह भी है कि राज्य के प्रयोजन एवं सामाजिक समरसता के निर्माण में इसके क्या परिणाम होंगे? कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि एससी शब्द के प्रयोग से अनुसूचित जाति समूहों की आक्रामक अस्मिता प्रभावित होगी। यह अस्मिता सक्रिय अस्मिता से धीरे-धीरे निष्क्रिय अस्मिता में बदल सकती है। तब इस अस्मिता की अपने हक एवं हकूक के लिए लड़ाई लड़ने की क्षमता भी प्रभावित होगी। ऐसे में अनेक उपेक्षित समूहों की अपने अधिकारों के लिए दबाव बनाने की क्षमता प्रभावित होगी।

अनुसूचित समाज के बुद्धिजीवियों का यहां तक कहना है कि इससे हम धीरे-धीरे राज्याश्रित समूह में बदल जाएंगे। हालांकि राजसत्ता की चाहत भी तो यही होती है कि सत्ता से अपने हक के लिए टकराते रहने वाले सामाजिक समूह ऐसी अस्मिता में बदल जाएं जिससे सत्ता को उन्हें संयोजित करने में आसानी हो। राज्य की चाहत तो यही होगी कि ऐसी अस्मिताएं विकसित हों जो संविधानपरक संस्कृति के अनुरूप चलें। वे ऐसी हों जिन्हें आसानी से नियंत्रित एवं नियोजित किया जा सके और वे आपस में टकराती हुई अस्मिताओं का रूप न ले लें।

आज यह कहना कठिन है कि भारतीय समाज की एकबद्धता के निर्माण में अस्मिता निर्माण की राज्य निर्देशित प्रक्रिया कहां तक मददगार होती है, लेकिन अगर हमारे मीडिया विमर्श में दलित शब्द का प्रयोग घटेगा तो धीरे-धीरे इस शब्द से बनने वाली अस्मिता भी प्रभावित होगी। इसके साथ ही सामाजिक आंदोलनों एवं विचार-विमर्श द्वारा निर्मित अस्मिता कमजोर होगी। स्पष्ट है कि यह भविष्य बताएगा कि दलित के बजाय अनुसूचित जाति के इस्तेमाल से सामाजिक समरसता के निर्माण में क्या असर होगा?

[ लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं ]