[ योगेंद्र नारायण ]: बीते दिनों उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू की पुस्तक का लोकार्पण करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘वेंकैया जी बहुत अनुशासित हैं, लेकिन हमारे देश की स्थिति ऐसी हो गई है कि अनुशासन को आसानी से अलोकतांत्रिक कह दिया जाता है। यदि कोई अनुशासन की बात करता है तो उसे तानाशाह करार देने लगते हैं...लोग शब्दकोश खोल देते है।’ उनका यह बयान भारतीय लोकतंत्र के अपेक्षाकृत अव्यवस्थित स्वरूप को देखते हुए बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसे लोकतंत्र में जहां हर किसी को हल्के में लिया जाता है। जहां कोई भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में किसी की परवाह किए बिना गैर-जिम्मेदाराना तरीके से अपने विचार टीवी, रेडियो और सोशल मीडिया पर रख सकता है। ऐसा करते हुए उसे मानहानि का भी डर नहीं सताता, क्योंकि भारत में न्याय का पहिया बहुत सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ता है।

ऐसा ही एक मामला यूएस ओपन टेनिस प्रतियोगिता के दौरान भी देखने को मिला जहां अंपायर कार्लोस ने नियमों के तहत सेरेना विलियम्स पर पेनल्टी रूल लगा दिया। इसके चलते खेल का रुख उनकी प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी के पक्ष में झुक गया। इस पर सेरेना द्वारा अंपायर को ‘सेक्सिस्ट’ से लेकर ‘चोर’ और ‘धोखेबाज’ तक कहा जाने लगा। ऐसी आलोचना पर प्रतिक्रिया देते हुए इंटरनेशनल टेनिस फेडरेशन ने कहा कि अंपायर का फैसला संबंधित नियमों के अनुरूप ही था। क्या सख्त नियमों को लागू करना किसी को तानाशाह बना देता है?

स्वतंत्र भारत के बीते 70 वर्षों का इतिहास दर्शाता है कि लोकतंत्र तभी कमजोर हुआ है जब राजनीतिक दृढ़ता के अभाव और संविधान एवं कानूनों के लागू न होने से सरकारी संस्थान अक्षम हो गए। उस वक्त ऐसी चर्चा होती थी कि देश को एक तानाशाह की दरकार है। 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रूप में एक शक्तिशाली नेता का उदय हुआ।

उन्होंने सरकारी कार्यालयों, लोकसेवकों और प्रशासन को अनुशासित बनाते हुए सरकारी कार्यक्रमों का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया, मगर उनके समय डरावना आपातकाल भी थोपा गया। आपातकाल ने अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को लांघ दिया। नागरिक स्वतंत्रता का हनन करते हुए मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन को अदालत में चुनौती देने के अधिकार को भी निलंबित कर दिया गया। आपातकाल पर विचार व्यक्त करने में प्रेस की आजादी भी छीन ली गई। आपातकाल का विरोध करने वाले नेताओं और प्रतिरोध जताने वाले संपादकों को भी जेल में डाल दिया गया। इससे इंदिरा गांधी सरकार तानाशाही में तब्दील हो गई।

महाराष्ट्र पुलिस ने जिन पांच कथित माओवादियों को गिरफ्तार किया है उनके पास अभी भी यह अधिकार है कि वे इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर अपनी गिरफ्तारी को नजरबंदी तक सीमित करा दें। यदि सत्तारूढ़ दल का कोई जनप्रतिनिधि विपक्षी दलों को धमकाता है तो वे उसके खिलाफ पुलिस या अदालतों में प्राथमिकी दर्ज करा सकते हैं। हाल में ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं जहां कथित रूप से मवेशियों का व्यापार करने वाले लोगों की हिंसक भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई। इस भीड़ को कथित रूप से हिंदुत्ववादी संगठनों का समर्थन मिला हुआ था।

ऐसी घटनाओं ने सत्तारूढ़ पार्टी को बहुत बदनाम किया है, परंतु सरकार के शीर्ष स्तर पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने न केवल ऐसी घटनाओं की कड़े शब्दों में निंदा की है, बल्कि राज्य सरकारों को ऐसे मामलों से सख्ती से निपटने का निर्देश भी दिया है। ऐसे में जब तक कानून का राज कायम है और अदालतें अपने फैसले सुनाने को स्वतंत्र हैं तब तक किसी भी सरकार को अधिनायकवादी या तानाशाह नहीं करार दिया जा सकता। संसद या विधानमंडलों के प्रति राजनीतिक कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने वाला हमारा संविधान सुनिश्चित करता है कि यहां कोई तानाशाही या निरंकुश व्यवस्था कभी चल ही नहीं सकती।

क्या मजबूत नेतृत्व निरंकुशता की ओर बढ़ता है? ऐसा आवश्यक नहीं है। यदि फैसले कैबिनेट द्वारा सामूहिक रूप से किए जा रहे हैं और यदि कानूनों को पारित होने के लिए संसद एवं विधानमंडलों की स्वीकृति की आवश्यकता बनी हुई है तब सरकारें किसी भी सूरत में निरंकुश नहीं हो सकतीं। आपातकाल के दौर में ऐसा नहीं था। उस हालत में क्या हो सकता है जब किसी एक दल को संसद में पूर्ण बहुमत हासिल हो? ऐसे में दो स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं।

पहली स्थिति में एक ही पार्टी को संसद के दोनों सदनों में पूर्ण बहुमत हासिल हो। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि सत्तारूढ़ दल को लोकसभा में तो बहुमत हासिल हो, लेकिन उच्च सदन यानी राज्यसभा में वह बहुमत के आंकड़े से दूर हो। एक तीसरी स्थिति यह भी हो सकती है उक्त दोनों ही स्थितियों के साथ कई दलों का गठबंधन सत्ता में हो। पहली स्थिति में संभव है कि सत्तारूढ़ दल अपने विधेयकों को बिना किसी दिक्कत के पारित करा ले, फिर भी उसके लिए संविधान का उल्लंघन करने वाला कोई कानून बनाना असंभव है, क्योंकि उस पर न्यायपालिका का हथौड़ा चल सकता है।

संविधान के मूल सिद्धांतों के संरक्षक के रूप में न्यायपालिका संविधान के मूल ढांचे में किसी भी तरह के व्यापक संशोधन को बर्दाश्त नहीं करेगी। दूसरी स्थिति में तो उच्च सदन हमेशा निचले सदन द्वारा पारित विधेयकों को खारिज कर सकता है, केवल धन विधेयक ही अपवाद हो सकते हैं। यदि गठबंधन सरकार की बात करें तो क्षेत्रीय क्षत्रपों और छोटे दलों के हितों के समक्ष सबसे बड़े दल के लिए निरंकुशता की कोई गुंजाइश ही नहीं बनती। इस सबके अलावा दलबदल विरोधी कानून भी है जिसे सभी दलों ने सर्वसम्मति से पारित किया था। इसके तहत पाला बदलने पर किसी भी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खत्म हो सकती है। किसी भी दल के धड़े के अन्य दल में विलय के लिए न्यूनतम दो तिहाई सदस्यों की जरूरत होती है। यहां तक कि सदस्य जिस दल से संबंध रखता है उसके व्हिप का उल्लंघन भी पार्टी द्वारा उसे बाहर का रास्ता दिखाने के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार देखें तो हमारे विधायी तंत्र में चुने हुए सदस्यों पर एक अनुशासन लागू होता है। जब ऐसे कानून के तहत कार्रवाई होती है तब किसी कदम को भला निरंकुश कैसे कहा जा सकता है?

दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को सदन के भीतर कार्यवाही के नियमन का दायित्व मिला हुआ है। असंतुष्ट सदस्यों द्वारा अब उन पर निरंकुश होने के आरोप लगाए जाने लगे हैं। सभापति द्वारा उनकी मनमानी न माने जाने पर वे शिकायती लहजे में रहते हैं। ऐसे सदस्य यह क्यों भूल जाते हैं कि सदन के कार्यसंचालन के नियम भी तो संसद सदस्यों द्वारा ही बनाए जाते हैं। यदि पीठासीन अधिकारी उन्हीं नियमों को लागू करता है तो उसे निरंकुश कैसे कह सकते हैं? यह नियमों पर आधारित अनुशासन ही है जो किसी भी संगठन को एकजुट रखता है, भले ही वे राजनीतिक संगठन हों या सामाजिक। यहां तक कि परिवार पर भी यह व्यवस्था लागू होती है। ऐसे अनुशासन को लागू करना किसी भी लिहाज से निरंकुशता नहीं है।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व महासचिव हैं ]