आशुतोष झा। दस मार्च को उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के चुनाव नतीजे आते ही 2024 के महासंग्राम के लिए अटकलों का बाजार गर्म हो जाएगा। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के चुनाव को हमेशा से आम चुनाव के सेमीफाइनल की तरह ही देखा जाता रहा है। लगातार दूसरी बार केंद्र में बहुमत की मोदी सरकार बनी तो उसका एक बड़ा कारण उत्तर प्रदेश का जनमत ही था। इस बार होने वाले पांच राज्यों के चुनाव का महत्व और भी बढ़ गया है। एक तरफ जहां उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सत्तारूढ़ दल भाजपा के सामने वर्चस्व बचाए रखने की चुनौती है तो दूसरी ओर पंजाब के सहारे काग्रेस के समक्ष न सिर्फ अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने की संकट है, बल्कि इस भय से उबरने का भी संकट है कि कहीं उसके साथी दल ही विरोधियों में न तब्दील हो जाएं। यह आसान नहीं है। खासकर तब, जबकि महत्वाकांक्षा हर किसी के सिर चढ़कर बोल रही हो।

पहले बात भाजपा की, जो 2014 के बाद से मोदी लहर पर सवार होकर लगातार आगे बढ़ती रही। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की बड़ी जीत उसी लहर की देन थी। तब दोनों प्रदेश में केवल मोदी ही चेहरा थे। आज इन दोनों प्रदेशों में चेहरे सामने हैं। उन चेहरों के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव सामने हैं। अब पांच साल के शासन के रिपोर्ट कार्ड की भी पड़ताल की जा रही है। गोवा और मणिपुर में भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति का प्रभाव दिखा था। गठबंधन का फार्मूला बनाने में सक्रियता दिखी थी। बाद के दिनों में कांग्रेस ने वही सक्रियता कर्नाटक में दिखाई थी। हालांकि गठबंधन को थामे रखने की कला में वह मात खा गई। खैर भाजपा के सामने वही चार राज्य फिर से खड़े हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ गिनाने को कुछ नहीं है। घर-घर पहुंच रहे नरेन्द्र मोदी सरकार के कामकाज की चर्चा है, लेकिन हाल में कुछ बड़े नेताओं के पार्टी छोडऩे से एक नई चुनौती पैदा हुई है। खासकर ओबीसी वर्ग और कुछ हद तक ब्राह्मण नेता उस पाले में गए हैं, जो भाजपा के सामने खड़ा है। 2017 की बड़ी जीत में इन दो जातियों की बड़ी भागीदारी थी। हालांकि पाला बदलने वाले नेताओं के व्यक्तिगत कारण भी होते हैं, लेकिन इसके कारण क्षेत्रों में उनका प्रभाव शून्य तो नहीं हो जाएगा। उत्तराखंड में तो मजबूती की बात ही नहीं हो रही है। वहां यह कहना मुश्किल है कि भाजपा ज्यादा कमजोर है या कांग्रेस। शुक्र सिर्फ इतना ही है कि पहलवान दो ही हैं और किसी न किसी को जीतना है। भाजपा के लिए चुनौती यह है कि इन दोनों राज्यों में जीत पहले जैसी हो। बंगाल के बाद देश में भाजपा को लेकर जो सोच पैदा हुआ था उसे तभी तोड़ा जा सकता है। आगामी कुछ महीनों में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से लेकर राज्यसभा चुनाव तक में यहां के नतीजे असर दिखाएंगे। वैसे भी भाजपा नेतृत्व की ओर से यह कहा जाता रहा है कि पार्टी का स्वर्णिम काल आना बाकी है। ऐसे में अब किसी भी गलती के लिए गुंजाइश नहीं है। 2014-2019 की भाजपा जिस गति और तेवर के साथ बढ़ी वह भविष्य में क्या स्वरूप लेगी, ये चुनाव इसका भी संकेत देंगे।

पिछले कुछ महीनों से केंद्र की राजनीति में भाजपा विरोधी एक बड़े धड़े को खड़ा करने की पूरी मशक्कत हो रही है। यह और बात है कि अंतर्द्वंद्व के कारण यह प्रयास पूरी तरह कभी सफल नहीं हो सका। पांच राज्यों के चुनावों में भी इसका हल निकालने की कोशिश हो रही है। बंगाल की जीत के बाद तृणमूल कांग्रेस ने एक तरह से खुद को कांग्र्रेस के मुकाबले विपक्षी नेतृत्व का अगुआ घोषित कर दिया है। कांग्रेस और तृणमूल की खींचतान हाल में संसद में भी दिखी थी। गोवा में इसका एलान तब हो गया जब कांग्रेस के नेताओं को ही तोड़ तृणमूल ने अपनी महत्वाकांक्षा को साधने की इच्छा जता दी। वहीं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने फिर से वही किया है, जिसके लिए वह प्रसिद्ध हैं। मध्यस्थ के रूप में वह नेता ही बनते हैं। उन्होंने फिर से चुनावी राज्यों में कांग्रेस के साथ विपक्षी दलों के गठबंधन का प्रस्ताव बाजार में उछाल दिया है। संकट कांग्र्रेस के लिए है कि वह विपक्षी एकता का प्रस्ताव माने तो राजनीतिक शक्ति की हिस्सेदारी होगी और न माने तो विपक्षी एकता में कुठाराघात की दोषी। खैर माना जा रहा है कि कांग्रेस ने गोवा जैसे राज्य में ऐसे किसी गठबंधन से मना कर दिया है, लेकिन हित रक्षा और आत्मविश्वास की यह लड़ाई तभी आगे बढ़ पाएगी जब कांग्रेस चक दे पंजाब कर पाए। किसी और राज्य को भाजपा के हाथों से छीनने में सफल हो जाए। साथ ही उत्तर प्रदेश में यह साबित कर पाए कि उसकी भी कुछ धमक है। यह इसलिए जरूरी है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी अमेठी जैसी सीट भी खो चुकी है। इस बार रायबरेली से सोनिया गांधी लड़ेंगी या नहीं यह तय नहीं है। वैसे भी केंद्रीय राजनीति का गढ़ उत्तर प्रदेश है। फिलहाल समाजवादी पार्टी और बसपा कांग्र्रेस से दूरी बनाकर रखना ही उचित मानती हैं। यानी कांग्रेस वहां मौजूद दलों के लिए अस्पृश्य हो गई है।

कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई भी किसी से छिपी नहीं है। 23 वरिष्ठ नेताओं का एक धड़ा अर्से से बागी तेवर अपनाए हुए है। अब पंजाब कांग्र्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने बयान दे दिया कि पंजाब का भावी सीएम आलाकमान नहीं, बल्कि जनता तय करेगी। यानी पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व को भी खुद को साबित करना है, कांग्रेस और भाजपा को भी। इसका असर सरकार गठन तक नहीं रुकेगा। कई गुत्थियां सुलझेंगी।

(लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं)