नई दिल्ली [अनंत विजय]। फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत को लेकर हिंदी फिल्मों की दुनिया लगातार चर्चा में है। फिल्मी दुनिया के दांव पेंच, सितारों की निजी जिंदगी तक की बातें सामने आ रही हैं। फिल्मी सितारों के बीच के अंतरंग मैसेज भी सार्वजनिक होकर चर्चित हो रहे हैं।

फिल्मों से जुड़े लोग इस या उस पक्ष में होने के संकेत अपने बयानों से दे रहे हैं। कुछ लोग बयानों से अपनी कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन भी कर रहे हैं। इसी तरह का एक बयान ताजा-ताजा बयानवीर बने नसीरुद्दीन शाह ने भी दिया। उन्होंने इशारों में कंगना रनौत को अर्धशिक्षित कह डाला। एक टीवी चैनल पर साक्षात्कार में नसीरुद्दीन ने कहा कि उनका भारत की कानून व्यवस्था और न्यायिक प्रणाली में विश्वास है और कोई भी व्यक्ति किसी अर्धशिक्षित सितारे की राय जानने में रुचि नहीं रखता है।

नसीरुद्दीन शाह के इस बयान पर कंगना ने सवाल खड़ा किया और पूछा कि क्या नसीर यही बात प्रकाश पादुकोण या अनिल कपूर की बेटी के लिए कह सकते हैं। यह एक अलग लेकिन वैध मुद्दा है जो कंगना उठा रही है, पहले भी वो इस तरह के मुद्दे पर मुखर रही हैं। नसीरुद्दीन शाह का किसी को भी अर्धशिक्षित कहना यह बताने के लिए काफी है कि वो अहंकार की ऊंची मीनार पर खड़े होकर दूसरों को हेय दृष्टि से देख रहे हैं। पिछले साल भी जब नागरिकता संशोधन कानून को लेकर उनसे सवाल जवाब हुआ था तब भी उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर निहायत ही व्यक्तिगत आक्षेप किया था।

उस वक्त उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री कभी छात्र रहे नहीं इसलिए वो छात्रों की बात नहीं समझ सकते हैं या उनके मन में छात्रों के लिए करुणा नहीं है। वो मानते हैं कि मौजूदा हुकूमत में कोई भी बुद्धिजीवी नहीं है, लिहाजा वो बुद्धिजीवियों की महत्ता को नहीं समझ सकते है। कहते हैं न कि लोग जोश में होश खो बैठते हैं या क्रोध विवेक को हर लेता है, नसीर भी इसके शिकार हैं। वो तो प्रधानमंत्री की डिग्री तक देखने की ख्वाहिश जताने लगे थे और अपने को हिंदी फिल्मों के मानसिक रूप से विपन्न एक निर्देशक की इच्छा के साथ जोड़ रहे थे। यह उस व्यक्ति का अहंकार ही बोल रहा था।

पिछले कुछ सालों से नसीर इस बात की सफाई भी देने लगे हैं कि वो ये बात एक मुसलमान के तौर पर नहीं कह रहे हैं। इतना कहने के बाद वो अपनी भड़ास निकालने लगते हैं, वैसी भड़ास जिसमें तथ्य कम अहंकार अधिक रहता है। दरअसल नसीर जैसे लोगों के साथ दिक्कत ये हुई कि उनकी फिल्मों में उनके अभिनय को लेकर इतनी बड़ी-बड़ी बातें हो गईं कि वो खुद को बहुत ही ऊंचे पायदान पर देखने लगे। दरअसल 1970 में जब समांतर या कला फिल्मों की शुरुआत हुई तो उसमें काम करनेवाले अभिनेता अभिनेत्री को पता नहीं किस वजह से बुद्धिजीवी भी मान लिया गया। नसीर भी उनमें से एक हैं।

फिल्मों से हटकर जब भी नसीर बात करते हैं तो उनकी बातें फूहड़ और चालू लगती हैं। वो वही बातें करते हैं जिनका आधार सोशल मीडिया पर चलनेवाली आधारहीन और तथ्यहीन बातें होती हैं। आपको यकीन न हो तो नागरिकता संशोधन कानून या अन्य मसलों पर उनका साक्षात्कार देख लें। वास्तविकता सामने आ जाएगी।

नसीरुद्दीन शाह की ही तरह एक शायर हैं नाम है मुनव्वर राना। अभी राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उन्होंने अपनी कुंठा सार्वजनिक कर दी और कहा कि अदालतों में तो फैसले होते हैं, इंसाफ नहीं।

जबकि राम मंदिर के मामले पर तो इंसाफ की जरूरत थी। सुप्रीम कोर्ट के राम मंदिर पर दिए फैसले से वो इतने कुपित थे कि उन्होंने फैसला सुनाने वाले खंडपीठ में शामिल सुप्रीम कोर्ट के उस वक्त के चीफ जस्टिस रंजन गगोई पर बेहद संगीन इल्जाम लगा दिए। उन्होंने कहा कि रंजन गगोई बिक गए। जैसा कि उपर कहा गया कि बहुधा क्रोध विवेक को हर लेता है वहीं मुनव्वर राना के मामले में भी हुआ और वो एक ऐसी बात बोल गए जो उनकी सामंती मानसिकता को भी उजागर कर गया।

उन्होंने कहा कि वो तो इतने में बिक गए जितने में तवायफें नहीं बिकतीं। मुनव्वर राना का ये निहायत ही घटिया बयान है, जिसकी भर्त्सना होनी चाहिए थी। जो लोग महिला अधिकारों की बातें करते हैं वो खामोश रहे, हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श का झंडा लहरानेवाली लेखिकाएं भी इस मसले पर आश्चर्यजनक रूप से खामोश रहीं। मुनव्वर राना के इस बयान में एक खास चीज जो रेखांकित की जानी चाहिए वो ये कि जब वो राम मंदिर के फैसले पर बोल रहे थे तो उन्होंने भी ये कहा कि वो खरा-खरा बोलते हैं जिससे हिंदू भी नाराज होते हैं और मुसलमान भी।

परोक्ष रूप से वो ये कहना चाह रहे थे कि वो जो कह रहे हैं वो एक मुसलमान के तौर पर नहीं कह रहे हैं बल्कि उनकी आवाज को एक स्वतंत्र आवाज समझी जानी चाहिए। यही बात नसीरुद्दीन शाह भी कहते हैं कि वो एक मुसलमान के तौर पर नहीं बोल रहे हैं।  एक मुसलमान के तौर पर नहीं बोलने का दावा करने की बात को रेखांकित करते हुए अगर विश्लेषित करें तो पाते हैं कि इन दिनों ये बात आम हो गई है। कुछ कहने के पहले ये डिस्क्लेमर जरूर दिया जाता है।

बावजूद इस पूर्वकथन के इनकी बातों से जो ध्वनित होता है वो यही है कि वो पक्के तौर पर एक मुसलमान होने के नाते ही ऐसी बातें कर रहे हैं, चाहे वो नसीरुद्दीन शाह हों या मुनव्वर राना या फिर दस साल तक देश के उप राष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी। और अगर एक मुसलमान होने के तौर पर ये बातें कह भी रहे हैं तो उसमे हर्ज क्या है। ये देश स्वतंत्र देश है और हर किसी को चाहे वो किसी भी मजहब या धर्म का हो उसको अपनी बात कहने का अधिकार है।

दरअसल ये मौजूदा हुकूमत की आलोचना करने के पहले ये जताना चाहते हैं कि वो निष्पक्ष होकर अपनी बात कह रहे हैं। पर इनकी मुखरता इनके इस दावे की पोल खोल देता है। हाल के दिनों में नसीरुद्दीन शाह को अपने बेटों को लेकर डर लगता है, लेकिन नसीरुद्दीन शाह को तब डर नहीं लगा था जब मुंबई में बम धमाके हुए थे, उनको तब भी डर नहीं लगा था जब यूपीए के शासनकाल में नियमित अंतराल पर देश के इलग अलग शहरों में बम धमाके हो रहे थे। तब उनकी बेबाकी को लकवा मार गया था।

दरअसल अगर नसीर और राना जैसे लोगों के वक्तव्यों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो ये साफ तौर पर लगता है कि वो इस बात से आहत हैं कि इस देश का बहुसंख्यक अब अपनी बात मजबूती से रखने लगा है। बहुसंख्यकों की बात को और उनकी भावनाओं का सरकार सम्मान करने लगी है। बहुसंख्यकों के अपने हिस्से की बात करना उनको सांप्रदायिकता लगता है। यही मानसिकता उनसे ये कहवाती है कि वो एक मुसलमान के तौर पर नहीं बोल रहे हैं।

इसके अलावा ये लोग जिस तरह से प्रतिक्रिया देते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि वो मोदी सरकार के तीन तलाक खत्म करने से लेकर संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 खत्म करने के फैसले से भी खफा हैं। इसी को लेकर अपनी नाराजगी का प्रदर्शन वो कभी मोदी पर भड़ास निकालकर करते हैं तो कभी उनके मंत्रियों पर। पर इससे साख न तो मोदी की खराब होती है न उनके मंत्रियों की, बल्कि प्रतिष्ठा कम होती है नसीर और राना जैसों की।