विजय कपूर। पिछले करीब दो माह से एलएसी पर कायम तनाव के बीच आजकल नेपाल सीमा से भी निरंतर ऐसी खबरें आ रही हैं कि वह भारतीय सीमा क्षेत्र में मनमानी कर रहा है। बहरहाल हम भारत के पड़ोसियों के संबंधों की दशा-दशा को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। रूस, भारत और चीन ने वर्ष में 1998 में आरआइसी ग्रुप यानी रूस-भारत-चीन समूह का गठन दो प्रमुख उद्देश्यों से किया था।

तीनों देश आपस में व्यापारिक सहयोग करें और आपसी विवादों को इस मंच के माध्यम से निपटाएं। दूसरा यह सुनिश्चित करने के लिए कि ग्लोबल शासन के नियमों का गठन अकेले अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिम को न करने दिया जाए यानी वैकल्पिक ग्लोबल शासन जिसका नेतृत्व एशिया के पास हो, यह इस समूह का सपना था। इन दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हुई है। रूस अपनी दुनिया में ही गुम है, किसी की कोई परवाह नहीं है, चीन अपने क्षेत्र व प्रभाव का विस्तार करने में लगा हुआ है और भारत अकेला पड़ गया है। ऐसे में आरआइसी ग्रुप का अर्थहीन हो जाना तो तय ही था।

गौरतलब है कि आरआइसी समूह ने अनेक अन्य प्रमुख समूहों के गठन को प्रेरित किया जैसे ब्रिक्स और शंघाई कॉपरेशन आर्गेनाइजेशन, जिनका उद्देश्य नई विश्व शक्तियों को आपसी सहयोग का मंच व मजबूती प्रदान करना था। ये समूह अपने विविध ऐतिहासिक अनुभव व मूल्यों का पश्चिम आदर्श से टकराए बिना एक वैकल्पिक दृष्टिकोण विकसित करने के इच्छुक थे। ये समूह पश्चिमी नजरिये यानी ग्लोबल नियम आधारित व्यवस्था के मुकाबले साझा भाग्य का समुदाय दृष्टिकोण देना चाहते थे, जिसकी रचना चीन ने की थी और पश्चिम को छोड़कर शेष संसार के अधिकतर देश उसके साथ हो गए थे और मजबूरन पश्चिम को भी इन समूह के सदस्यों के साथ व्यापारिक व अन्य सहयोग करना पड़ा था। लेकिन एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव आदि के जरिये चीन साझा भाग्य का अपना ही ग्लोबल समुदाय गठित करने लगा और बीआरआइ, ब्रिक्स, आरआइसी, एससीओ व आरसीइपी के सदस्य देशों को बराबरी का मुकाम मिलना तो बहुत दूर की बात, वह चीन के विशेष हितों के पिछलग्गू हो गए। चीन के इस मॉडल से ग्लोबल स्थिरता पर गंभीर ग्लोबल कुप्रभाव पड़ने के खतरे बढ़ गए हैं।

भारत तो इन कुप्रभावों को महसूस भी करने लगा है, खासकर इसलिए कि चीनी तालाब में छोटी मछली बनने के मोह में भारत ने उन तालाबों यानी सार्क व गुट-निरपेक्ष आंदोलन को छोड़ दिया जिनमें वह बड़ी मछली थी। अब स्थिति यह हो गई है कि चीन ने भारत के पड़ोसियों को भी अपने प्रभाव में इस हद तक ले लिया है कि जिस नेपाल से हमारा रोटी-बेटी का रिश्ता रहा है, वह भी नई दिल्ली को आंखें दिखा रहा है। पड़ोसियों में भारत के बांग्लादेश से ही बेहतर संबंध हैं, बाकी श्रीलंका सहित हमारे सभी पड़ोसी चीन के प्रभाव में हैं, जो अच्छी बात नहीं है।

हाल के दिनों में नई दिल्ली ने जो विदेश नीति अपनाई है, उस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है, विशेषकर ड्रैगन के चंगुल से निकलने के लिए। समाजवादियों खासकर जॉर्ज फर्नांडीज, मुलायम सिंह यादव आदि का हमेशा से ही यह मानना रहा है कि चीन हमारा कभी दोस्त नहीं हो सकता। शायद इसीलिए इंदिरा गांधी ने चीन से उस वक्त तक संबंध बेहतर न करने की नीति को अपनाया था, जब तक वह सीमा विवाद हल नहीं कर लेता। बहरहाल नई दिल्ली के लिए यही बेहतर प्रतीत होता है कि आरआइसी जैसे बेकार के समूह से बाहर निकले, अपने पड़ोसियों से संबंध सुधारे और अन्य जगहों जैसे क्वैड में नए दोस्त तलाश करे और जेएएआइ यानी जापान-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया-भारत जैसे नए सूह का गठन करे ताकि वह अपने त्वरित रक्षा व व्यापारिक लक्ष्यों को हासिल कर सके। चीन से व्यापारिक या अन्य कोई युद्ध करना बेनतीजा ही निकलेगा, एलएसी पर अपनी चौकसी मजबूत करते हुए चीन से इंदिरा गांधी की तरह मुंह मोड़ लेना ही ठीक नीति है। 

वास्तविक नियंत्रण रेखा: भारत-पाक युद्ध के बाद जम्मू कश्मीर का ढेर सारा हिस्सा पाकिस्तान में चला गया जिसके बाद पाकिस्तान से चीन ने इसे अपने हिस्से में मिला लिया। इसे हम अक्साई चीन कहते हैं। करीब 4,057 किलोमीटर लंबी यह सीमा रेखा जम्मू - कश्मीर में भारत अधिकृत क्षेत्र और चीन अधिकृत क्षेत्र अक्साई चीन को अलग करती है। यह लद्दाख, कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से होकर गुजरती है। यह भी एक प्रकार की सीज फायर क्षेत्र ही है। 1962 के भारत-चीन युद्घ के बाद दोनों देशों की सेनाएं जहां तैनात थी, उसे वास्तविक नियंत्रण रेखा मान लिया गया। - ईआरसी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)