[चौधरी पुष्पेंद्र सिंह]। कांग्रेस की तीन राज्यों-राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई हालिया चुनावी जीत में किसानों की कर्जमाफी के वायदे को भी एक बड़ा कारण बताया जा रहा है। अब कांग्रेस ने इसे 2019 के आम चुनावों में भी एक बड़े राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का मन बना लिया है। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की कर्जमाफी की मांग को तो खारिज कर दिया है, परंतु किसानों को एक राहत पैकेज देने की बात जरूर चर्चा में है।

पिछले कुछ वर्षों में देश का किसान कई बार कर्जमाफी और फसलों के लाभकारी मूल्य को लेकर आंदोलन कर चुका है। जब भी किसानों का कर्जा माफ करने या उन्हें राहत पैकेज देने की बात आती है तो देश में हाहाकार मच जाता है। अर्थशास्त्री इसके कारण देश का राजकोषीय घाटा बढ़ने और ऋण अनुशासन खराब होने की चेतावनी देने लगते हैं।

किसानों का हक मारते बिचौलिए
किसानों की कर्जमाफी या राहत पैकेज को राजनीतिक से अलग सरकारी आर्थिक नीतियों के परिपेक्ष्य में देखने की भी आवश्यकता है। पिछले 70 वर्षों में सरकारों ने उपभोक्ता हित में महंगाई दर को काबू करने की नीतियों का अनुसरण किया है, जिस कारण उन्होंने फसलों की एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) में अनुपातिक वृद्धि कभी नहीं की। इसी प्रकार सरकारें किसानों के प्रतिकूल व्यापार नीतियां अपनाती रही हैं ताकि आम नागरिकों को सस्ता खाद्यान्न मिलता रहे और महंगाई दर काबू में रहे।

ओईसीडी के एक अध्ययन के अनुसार भारत में 2000-2017 के बीच विभिन्न सरकारी नीतियों के हस्तक्षेप के कारण किसानों की आमदनी औसतन 14 प्रतिशत घटी है। तमाम नीतियों के बावजूद देश के अधिकांश नागरिक अब भी बाजार से महंगे फल, सब्जियां और अनाज खरीदते हैं, परंतु उस पैसे का बहुत कम हिस्सा ही किसानों तक पहुंच पाता है। इसका कारण सरकारों द्वारा बिचौलियों को काबू नहीं कर पाना और पर्याप्त भंडारण तथा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की संरचना खड़ी नहीं कर पाना है। आज भी एक तरफ करीब एक लाख करोड़ रुपये मूल्य के फल, सब्जी, अनाज सड़ जाते हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों लोगों को भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। हमारे देश में केवल सात प्रतिशत खाद्य पदार्थों का प्रसंस्करण किया जाता है, जबकि चीन में 33 प्रतिशत और अमेरिका में 65 प्रतिशत!

बढ़ती लागत घटती आय
एक तरफ हम अपने किसानों को उनकी फसल का उचित और लाभकारी मूल्य दिलाने में विफल रहे हैं तो दूसरी तरफ खेती की लागत भी लगातार बढ़ती चली गई। परिणाम स्वरूप खेती घाटे का सौदा बन गई और किसान कर्ज के जाल में फंसता चला गया। किसान की ऋण माफी की मांग उसे उचित मूल्य नहीं देने से जुड़ी हुई है। सरकार ने किसानों को कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) द्वारा निर्धारित ‘संपूर्ण लागत-सी 2’ का डेढ़ गुना मूल्य देने का वायदा किया था, परंतु इसे आज तक पूरा नहीं किया गया। कम से कम आकलन भी किया जाए तो भी, लागत का डेढ़ गुना मूल्य नहीं मिलने और अन्य सरकारी नीतियों के चलते पिछले साढ़े चार वर्षों में ही लगभग नौ लाख करोड़ रुपये का नुकसान किसानों को हुआ है और किसान कर्ज में डूब गए हैं। इसी रकम को किसान कर्जमाफी के रूप में मांग रहे हैं जो उनको पहले ही मिल जानी चाहिए थी। अत: इसे कर्जमाफी नहीं, बल्कि पुराने बकाये का भुगतान कहना ज्यादा उचित होगा, यह किसान का हक है।

किसानों की उपेक्षा
देश का खजाना किसानों पर लुटाए जाने का आरोप लगाने वाले अर्थशास्त्री अन्य सरकारी नीतियों पर कोई चर्चा नहीं करते। आरबीआइ के आंकड़ों के अनुसार बैंकों द्वारा यूपीए के दस वर्षों के शासनकाल में लगभग 2.10 लाख करोड़ रुपये और इस सरकार के चार वर्षों के शासनकाल में लगभग 3.60 लाख करोड़ रुपये का ऋण बट्टे खाते में डाल दिया गया। यानी पिछले 15 सालों में ही कुल मिलाकर 5.70 लाख करोड़ रुपये की राहत मिली है-जिसका लाभ मुख्यत: धन्ना सेठों ने ही उठाया है। बट्टे खाते यानी राइट ऑफ की बहुत कम रिकवरी होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसके मुकाबले केंद्र सरकार ने किसानों को 2008 में लगभग 72,000 करोड़ रुपये की कर्जमाफी की राहत दी थी, परंतु सीएजी की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार इस पर वास्तव में लगभग 52,000 करोड़ रुपये ही खर्च किए गए। इस दौरान किसानों को कुछ राज्य सरकारों ने भी राहत दी है, परंतु यदि उद्योगों को दी गई सब्सिडी और टैक्स छूट जोड़ दें तो किसानों की कर्जमाफी का आंकड़ा नगण्य है।

देश में राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की सब्सिडी देश की जीडीपी की लगभग 6 प्रतिशत यानी करीब 10 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष है, जिसका लाभ मुख्यत: संपन्न तबका उठाता है। इसके अलावा केंद्रीय बजट में सरकार द्वारा विभिन्न उद्योगों आदि को दी जाने वाली सब्सिडी और रियायतें भी देश की जीडीपी की लगभग 6 प्रतिशत यानी करीब 10 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष है, जिसे ‘रेवेन्यू फोरगोन’ नाम से बजट में दर्ज किया जाता है। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के चलते केंद्र और राज्य सरकारों पर दो लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का वार्षिक बोझ पड़ने का अनुमान है। इन सब पर न तो कभी हाहाकार मचता है, ना ही किसान कभी आपत्ति करते हैं। इन सबके मुकाबले हम किसानों को सहायता तो बहुत कम दे रहे हैं, परंतु शोर बहुत ज्यादा मचा रहे हैं।

पिछले दो वर्षों में विभिन्न राज्यों ने कुल मिलाकर लगभग 1.80 लाख करोड़ रुपये की किसानों की कर्जमाफी की घोषणाएं की हैं, पर क्या ये धरातल पर पूर्ण हुई हैं। उत्तर प्रदेश में घोषित 36,359 करोड़ रुपये की कर्जमाफी के सापेक्ष अभी तक लगभग 25,000 करोड़ रुपये की ही कर्जमाफी हुई है। पंजाब में घोषित 10,000 करोड़ रुपये के सापेक्ष लगभग 3,500 करोड़ रुपये और महाराष्ट्र में 34,000 करोड़ रुपये की घोषणा के सापेक्ष लगभग 17,000 करोड़ रुपये ही माफ किए गए हैं। कर्नाटक में घोषित 34,000 करोड़ रुपये की कर्जमाफी की तो अभी शुरुआत ही हुई है, वहां कितनी राशि माफ होगी यह तो भविष्य ही बताएगा। अत: कर्जमाफी की बड़ी-बड़ी घोषणाओं और वास्तविक माफी में भी काफी बड़ा अंतर है।
[अध्यक्ष, किसान शक्ति संघ]