[विराग गुप्ता]। रावण वध के दिन दशहरा मनाने के उपरांत दिवाली राम के अयोध्या आगमन के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। दीवाली के अवकाश पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी छुट्टी पर जाते हैं। इस बार भी गए। इससे और कुछ न सही, राम की ऐतिहासिकता तो प्रमाणित हो ही जाती है। यह बात और है कि राम को सुप्रीम कोर्ट से जल्द न्याय नहीं मिल पा रहा है। अयोध्या मामला देश के सबसे पुराने मुकदमों में से एक है। यह आजादी के बाद से ही लंबित है।

कुछ समय पहले नए मुख्य न्यायाधीश ने लंबित मुकदमों पर चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि लंबित मामलों के कारण न्यायपालिका की छवि धूमिल हो रही है, लेकिन अयोध्या विवाद की सुनवाई करते हुए उन्होंने कहा कि नई पीठ ही यह तय करेगी कि मामले की सुनवाई जनवरी, फरवरी या मार्च में होगी या अप्रैल में। इस टिप्पणी से यही ध्वनित हुआ कि अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में नहीं। शायद इस टिप्पणी के कारण ही आम लोगों ने निराशा और हताशा प्रकट की।

इसी के साथ इस मांग ने जोर पकड़ लिया कि कानून बनाकर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ किया जाए। कुछ लोग तो सीधे अध्यादेश लाने की मांग कर रहे हैं। क्या इन मांगों की दिशा में बढ़ा जाना संभव है? कानून के माध्यम से अयोध्या विवाद सुलझाने की मांग के सिलसिले में न्यायिक अड़चनों को समझना जरूरी है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वर्ष 2010 में अयोध्या मामले पर फैसला सुनाते हुए विवादित स्थान की 2.77 एकड़ भूमि को तीन हिस्सों में बांटा था।

फैसले के अनुसार गर्भगृह रामलला को, सीता रसोई एवं राम चबूतरा निर्मोही अखाड़े को और बाहरी हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिलना तय हुआ। 2011 में उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी, परंतु सात वर्षो बाद भी अपना फैसला देने की स्थिति में नहीं आ सका है और इस बारे में कुछ कहना कठिन है कि अगले वर्ष फैसला आ ही जाएगा। अयोध्या मामले में एक तथ्य यह भी है कि विवादित ढांचा ध्वस्त होने के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने 1993 में विवादित स्थान समेत संपूर्ण परिसर की 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया था।

उच्चतम न्यायालय ने 1994 में अधिग्रहण को मान्यता देते हुए अयोध्या से जुड़े मुकदमों के निस्तारण न होने तक भूमि के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। अब जब दीवानी मामले में अदालत से जल्द न्यायिक फैसला होने की उम्मीद नहीं दिख रही तो फिर सरकार को पुराने कानून के अनुसार मामले के समाधान के लिए पहल करनी चाहिए। मैंने एक बार बाबरी पक्ष के वकील से यह पूछा था कि आखिर 1528 में बाबर के पास अयोध्या की भूमि की मिल्कियत कैसे आई? इस पर उनका जवाब था कि बादशाह होने की वजह से वह हंिदूुस्तान की सारी जमीनों का मालिक था। आखिर इसी तर्क से चुनी गई सरकार अयोध्या में अधिग्रहीत भूमि का इस्तेमाल अपने हिसाब से क्यों नहीं कर सकती और वह भी तब जब अयोध्या की जमीन का स्वामित्व उसके पास है?

उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा 1994 में दिए गए फैसले के अनुसार मस्जिद की जमीन को भी सरकार अधिग्रहीत कर सकती है। विडंबना यह है कि अयोध्या मामले में सरकार पक्षकार ही नहीं है, जबकि सिविल प्रोसीजर कोड कानून के तहत जमीन की मिल्कियत के मुकदमे में भू-स्वामी को पक्षकार होना जरूरी है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की कार्यवाही के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि केंद्र सरकार को पक्षकार बनाने के लिए सुनवाई हुई थी, लेकिन तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार की अनिच्छा के कारण उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को मुकदमे में औपचारिक पक्ष नहीं बनाया, जबकि संसद द्वारा 1993 में बनाए गए कानून के अनुसार केंद्र सरकार के पास राम-जन्मभूमि परिसर की संपूर्ण भूमि का स्वामित्व है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अयोध्या मामले के हल की इच्छुक सरकार को इस मामले में औपचारिक पक्षकार क्यों नहीं बनना चाहिए? जब भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण की बात कही है तो फिर इस मामले में पक्षकार बनकर उसे यह प्रदर्शित करना चाहिए कि वह राम मंदिर के निर्माण के लिए तत्पर है।

केंद्र सरकार द्वारा अयोध्या की भूमि का अधिग्रहण किए जाने के बाद 1994 में और निजी पक्षों के बीच भूमि संबंधी दीवानी मामलों की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने 2011 में स्थगन आदेश पारित किए थे। उच्चतम न्यायालय की तीन जजों की पीठ द्वारा एक अन्य मामले में मार्च 2018 में दिए गए फैसले के अनुसार आपराधिक या दीवानी मामलों में अदालतों के स्थगन आदेश छह महीने बाद स्वत: निरस्त हो जाने चाहिए। इन परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय के स्थगन या यथास्थिति के पुराने आदेशों को निरस्त करके मामले के तुरंत निराकरण की ओर बढ़ा जा सकता है। इस संदर्भ में 1994 के बोम्मई मामले की दुहाई देते हुए यह कहा जा रहा है कि पंथनिरपेक्ष व्यवस्था में सरकार द्वारा किसी मंदिर निर्माण के लिए भूमि नहीं दी जा सकती, लेकिन क्या राम जन्म भूमि मंदिर का निर्माण किसी सामान्य मंदिर का निर्माण है? संविधान की प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों में कल्याणकारी राज्य की संकल्पना राम राज्य का ही तो विस्तार है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की अपेक्षाओं को साकार करने के लिए संविधान एक कानूनी दस्तावेज है। सभी जानते हैं कि आजादी के बाद सोमनाथ मंदिर का पुर्ननिर्माण किया गया।

जब राम भारत की अस्मिता के प्रतीक हैं तो फिर उनके जन्म स्थान पर उनके नाम के मंदिर का निर्माण असंवैधानिक कैसे हो सकता है? कोई नया कानून बनाने या फिर अध्यादेश लाने अथवा निजी बिल लाने से संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ सकता है। ऐसा होने पर यह मामला और टल सकता है। इसी तरह यदि निजी पक्षकारों के पक्ष में उच्चतम न्यायालय का फैसला आ भी जाए तो भी इस मसले का हल आसान नहीं होगा। चूंकि संसद द्वारा 1993 में बनाए गए कानून के अनुसार केंद्र सरकार 67 एकड़ भूमि की मालिक है इसलिए उसे चाहिए कि वह उस कानून में इस तरह संशोधन करे ताकि विवादित भूमि को मंदिर निर्माण के लिए दिए जाने में आसानी हो। इस मामले का संविधान के दायरे में इसी तरह से समाधान किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए सरकार को इच्छाशक्ति दिखानी होगी।

(लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं)