शांतनु गुप्ता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कटु आलोचक भी मानते हैं कि उन्होंने भारतीय राजनीति के व्याकरण को कई मायनों में बदला दिया है। परिश्रम, दक्षता और योग्यता तेजी से चाटुकारिता और परिवारवाद वाली राजनीति की जगह ले रही है। वैसे भी जो पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रहती है, वही भविष्य के लिए खेल के नियम तय करती है। सभी छोटे खिलाड़ी उस फामरूले का अनुकरण करते हैं। कांग्रेस भी लंबे समय तक सत्ता में रही है। लिहाजा अधिकांश पार्टियों ने उसका अनुकरण किया। कांग्रेस ने भारतीय राजनीति को ‘वंशवाद की राजनीति’ का सूत्र सिखाया। बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी सरीखे दिग्गजों ने कांग्रेस को एक आंदोलन के रूप में चलाया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद वह नेहरू-गांधी परिवार की निजी संपत्ति मात्र बनकर रह गई। उसने समय के साथ खुद को देश के ‘प्रथम-परिवार’ के रूप में स्थापित कर लिया।

नेहरू-गांधी परिवार को स्थापित करने की होड़ में कांग्रेस ने सरदार वल्लभभाई पटेल, डा. बीआर आंबेडकर और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को भी भुला दिया। पार्टी की कमान हमेशा नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के बीच ही घूमती रहे। जब कभी पार्टी के किसी भी क्षेत्रीय नेता का कद यदि प्रथम-परिवार के सदस्यों से ऊंचा होने लगा तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। पार्टी कार्यकर्ताओं में यह भ्रम पैदा कर दिया गया कि प्रथम-परिवार के सदस्य ही कांग्रेस को एक साथ बांध कर रख सकते हैं। दुर्भाग्य से क्षेत्रीय क्षत्रपों ने भी कांग्रेस की इस नीति का अनुसरण किया। जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती और अब्दुल्ला परिवार राज्य के प्रथम-परिवार बन गए। उत्तर प्रदेश और बिहार में मुलायम और लालू यादव परिवार प्रथम-परिवार बन गए। इसी तरह कर्नाटक में देवगौड़ा परिवार, महाराष्ट्र में ठाकरे एवं पवार परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, तेलंगाना में केसीआर परिवार, आंध्र में नायडू एवं वाइएसआर परिवार ने अपनी-अपनी पार्टियों को पारिवारिक कंपनियों में बदल दिया।

योग्यता पर प्रथम-परिवार को हावी रखने के लिए कांग्रेस को और कई चालें चलनी पड़ीं। पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध नौकरशाही एवं न्यायपालिका, मैत्रीपूर्ण मीडिया, जातिगत राजनीति और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के माध्यम से चुनाव जीतने जैसे हथकंडे कांग्रेस के राजनीतिक व्याकरण का हिस्सा बन गए। निरंतर हार के बाद भी नेहरू-गांधी परिवार पार्टी के शीर्ष पर बना रहा। हद तो तब हो गई जब 2017 में राहुल गांधी ने वैश्विक स्तर पर वंशवाद की राजनीति का खुलकर बचाव किया। उन्होंने कहा कि पूरा भारत राजवंशों पर चलता है और इसमें कोई हर्ज नहीं है।

हालांकि किसी के लिए माता-पिता के व्यवसाय का अनुसरण करना स्वाभाविक है। किसी महान क्रिकेटर के बेटे का घर के माहौल से क्रिकेट सीखना स्वाभाविक है। किसी दिग्गज अभिनेता के बेटे का फिल्मों में आना भी स्वाभाविक है। समस्या तब शुरू होती है जब क्रिकेटर का बेटा प्रतिभावान न होने पर भी दशकों तक टीम का कप्तान बना रहे या फिल्म स्टार के बेटे को कई फ्लाप फिल्में देने के बाद भी बड़े बैनरों की फिल्मों में काम मिलता रहे। कुछ इसी तरह राहुल गांधी, अखिलेश यादव, एचडी कुमारस्वामी जैसे नेता कई विफलताओं के बाद भी अपनी-अपनी पार्टियों को पारिवारिक कंपनियों के रूप में चला रहे हैं। इन परिवार आधारित-संचालित पार्टियों में जमीनी स्तर का कार्यकर्ता पार्टी का मुखिया बनने का सपना तक भी नहीं देख सकता है।

भाजपा का चरित्र कुछ अलग नजर आता है। वह अपने नेताओं की ‘योग्यता के आधार पर पदोन्नति’ देती है। यही भाजपा की सफलता का आधार है। पिछले दो दशकों में भाजपा के नेतृत्व पर एक नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है। जेपी नड्डा का अमित शाह से कोई पारिवारिक संबंध नहीं है। अमित शाह का राजनाथ सिंह से कोई संबंध नहीं है। राजनाथ सिंह का नितिन गडकरी या वेंकैया नायडू का लालकृष्ण आडवाणी से कोई संबंध नहीं है। वे सभी विभिन्न जातियों और देश के विभिन्न क्षेत्रों से आते हैं। इन सभी में केवल एक चीज समान है-और वह है योग्यता और परिश्रम। इसके विपरीत प्रथम-परिवारों के नेताओं के जीवन से परिश्रम और योग्यता दूर हैं। वे अपने परिवार के नाम के सहारे ही संसद या विधानसभा में हैं। नतीजतन 17वीं लोकसभा में राहुल गांधी की उपस्थिति 56 प्रतिशत, अखिलेश यादव की 33 प्रतिशत और अभिषेक बनर्जी की 13 प्रतिशत है। जबकि मोदी के नेतृत्व में भाजपा यह सुनिश्चित करती है कि भले ही कोई किसी राजनीतिक परिवार से जुड़ा हो, लेकिन वह प्रदर्शन से समझौता नहीं करे। इस वजह से 17वीं लोकसभा में प्रवेश साहिब सिंह वर्मा की उपस्थिति 93 प्रतिशत और पूनम महाजन की उपस्थिति 83 प्रतिशत रही है।

वर्ष 2014 में पीएम मोदी के सत्ता में आने के साथ देश से वंशवाद की राजनीति का सूरज अस्त होना प्रारंभ हो गया है। मोदी के कुशल नेतृत्व, भ्रष्टाचार रहित और जन-केंद्रित शासन ने जाति और तुष्टीकरण की राजनीति पर जीत हासिल करनी शुरू कर दी है। वंशवाद की राजनीति का मुकाबला करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने कई राजनीतिक और शासन संबंधी प्रयोग भी किए हैं। भ्रष्टाचार रोकने के लिए जनकल्याणकारी योजनाओं को जनधन-आधार-मोबाइल से जोड़ा। इस तरह उन्होंने एक नया लाभार्थी वोट बैंक बनाया। इंटरनेट मीडिया के जरिये सीधे मतदाताओं तक पहुंचना शुरू कर दिया। आज मोदी ने वंशवाद की राजनीति के पैरोकारों को राजनीति को पूर्णकालिक काम की तरह मानने पर बाध्य कर दिया है। कुल मिलाकर मोदी युग में वंशवाद की राजनीति के ‘अच्छे-दिन’ का अंत भी शुरू हो गया है।

(स्तंभकार ‘बीजेपी की गौरवगाथा’ पुस्तक के लेखक हैं)