Pt. Deendayal Upadhyaya Birth Anniversary: एकात्म मानव दर्शन का तात्पर्य मनुष्य का एकात्म विचार करना
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानव दर्शन के नाम पर एक ऐसी दार्शनिक दृष्टि प्रस्तुत की है जो त्यागमूलक उपभोग पारस्परिकतापरक समाज और उत्तरदायित्वपरक अधिकार के मानव जीवन का सृजन करने का सनातन प्रस्ताव है- रजनीश कुमार शुक्ल
रजनीश कुमार शुक्ल। एकात्म मानववाद जैसी विचारधारा और अंत्योदय के प्रणोता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन मनुष्य को केंद्र में रखकर संपूर्ण विश्व व्यवस्था का मूल्याधिष्ठित, किंतु व्यावहारिक विश्लेषण है। हम जानते हैं कि दर्शन के रूप में इसका सैद्धांतीकरण 1965 में आयोजित भारतीय जनसंघ के कालीकट अधिवेशन में हुआ था, जिसमें भारतीय जनसंघ ने नीति वक्तव्य व नीति प्रारूप के रूप में इस पर चर्चा की थी।
चर्चा के अनंतर इसे भारतीय जनसंघ के दिशा-निर्देशक सिद्धांत और दल के दार्शनिक अधिष्ठान के रूप में स्वीकार किया गया। उसके बाद मुंबई में देशभर के भारतीय जनसंघ के कार्यकर्ताओं के समक्ष दीनदयाल उपाध्याय ने अपने व्याख्यान में एकात्म मानव दर्शन को विस्तार से प्रस्तुत किया। एकात्म का तात्पर्य एक ही होना है। एक ही प्रकार की चेतना का होना, एक ही प्रकार की बुद्धि का होना, एक ही प्रकार की चिंतन प्रक्रिया का होना है। वस्तुत: एकात्म मानव दर्शन का जो तत्वमीमांसीय अधिष्ठान है, वह अधिष्ठान दीनदयाल जी ने शंकराचार्य पर जो पुस्तक लिखी थी, उसमें ही प्रतिपादित किया था। एकात्म यानी अद्वैत की दृष्टि। मैं और तुम, ये दो नहीं हैं। शायद पश्चिम में उपजी हुई सारी विचारधाराओं को यही पहला प्रत्युत्तर है।
दीनदयाल की दृष्टि से विचार करेंगे तो मनुष्य एक विशिष्ट रचना है। यह शरीर है, मन है, बुद्धि है और आत्मा है। यह एक फोर डाइमेंशनल निíमति है, जिसमें शरीर की ज्ञानेंद्रियां, मन और बुद्धि यह ज्ञात हो सकने वाले तथ्य हैं और इनसे परे जो आत्मा है, वह ज्ञाता है। यूरोप की जो पूरी विचार सारणी है, वह त्रिआयामी जगत से अधिक का विचार नहीं कर सकती है। एकात्म मानववाद दर्शन की वह प्रणाली है जो त्रिआयामी जगत को अतिक्रांत करती हुई लंबाई, चौड़ाई, मोटाई के संसार से बाहर चौथे आयाम की बात करती है।
साम्यवाद और पूंजीवाद के जो विविध पर्याय दुनियाभर में विकसित हुए थे, उन विविध पर्यायों में मात्र उत्पादन और वितरण को केंद्र में रखकर विचार किया गया था। इनका ठीक से विश्लेषण किया जाना चाहिए। दीनदयाल कहते हैं कि दोनों एकांगी हैं। दोनों ही समाज के, मनुष्यों के समूह के एक ही हिस्से का विचार कर पाते हैं। एक तो मनुष्य जाति के लिए उत्पादन का विचार कर सकने वाला या उसकी अधिकारिता का विचार कर सकने वाला पूंजीवादी दृष्टिकोण है, तो दूसरी तरफ मनुष्य के लिए वितरण की व्यवस्था और मनुष्य के सामाजिक उत्तरदायित्व का विचार कर सकने वाला समाजवाद, वैज्ञानिक समाजवाद, साम्यवाद या मार्क्सवाद के विविध पर्यायों से दुनियाभर में विकसित हुआ समाज केंद्रित विचार है।
केवल उत्पादन और केवल वितरण मनुष्य का जीवन नहीं है। यदि केवल उत्पादन करना, उत्पादन का वितरण करना और उत्पादन का उपयोग करना, यही मनुष्य का लक्ष्य है तो मनुष्य और पशु के बीच का भेद करना संभव नहीं है। यह वह प्रस्थान बिंदु है, जहां दीनदयाल जी भारत की अनादि सांस्कृतिक परंपरा पर आधारित एक दर्शन की प्रस्तुति करते हैं। एक समाज दर्शन की, एक व्यावहारिक दर्शन की प्रस्तुति करते हैं। ऐसे व्यावहारिक दर्शन की प्रस्तुति करते हैं, जो जीवन के प्रश्नों का समाधान करते हुए, राज्य के व्यवहार के प्रश्नों का समाधान करते हुए, राज्य के लिए दिशा-निर्देशक तत्व के रूप में प्रस्तुत होते हुए, इस जीवन से परे लोकोत्तर जीवन के भी समाधान का रास्ता निकलता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दीनदयाल उपाध्याय वह पहले दार्शनिक हैं जो मनुष्य को सही अर्थो में परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। अपने प्रथम व्याख्यान में वह एकात्म मानववाद को धाíमक मनुष्य के रूप में प्रतिस्थापित करते हैं। वह धर्म ही है जो मनुष्य को विशिष्ट बनाता है। यह विशिष्ट प्रकार का दर्शन समग्रता में सोचना है। टुकड़े-टुकड़े में देखना नहीं है। पूरी दुनिया से परिचय तो किसी का नहीं है, इसलिए अपरिचित मनुष्य को उसको जोड़ने में कठिनाई होती है। लेकिन यदि एक मनुष्य का चित्र कई टुकड़े में विभाजित हो और यदि वह उसे जानता हो, तो उसे जोड़ लेना आसान है। मनुष्य को जोड़ने से समग्र विश्व को जोड़ा जा सकता है।
एकात्म मानव दर्शन मनुष्य की मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक जरूरतों की पूíत का जीवन और जगत के अंर्तसंबंधों के परिप्रेक्ष्य में सांगोपांग विचार है। एकात्म मानववाद वस्तुत: उस कालखंड में और आज भी जो दो मूल पाश्चात्य विचार हैं, जिनको दक्षिणपंथ और वामपंथ के नाम से जाना जाता है, इन सबको शमित करते हुए, प्राचीन जीवन मूल्यों पर आधारित अधुनातन समाज के लिए और भविष्य के मानव जीवन के लिए, एक दार्शनिक अवधारणा की निíमति करता है, जो वस्तुत: मनुष्य, मनुष्य के समाज, मनुष्य के राष्ट्र इन सबका सम्यक विचार करते हुए सबके लिए सुख सृजित करने की व्यवस्था का प्रतिपादन करता है। यह त्याग पर आधारित है, लेकिन उपभोग का निषेध करके नहीं।
एकात्म मानव दर्शन का तात्पर्य मनुष्य का एकात्म विचार करना है। वह बंटा हुआ नहीं है। अपितु सब रूप में वह एकरस है। एकात्म मानव दर्शन केवल राजनीतिक व्यवस्था नहीं है। एकात्म मानव दर्शन जनसंघ का नीति सिद्धांत तो था, लेकिन यह जनसंघ का राजनीतिक एजेंडा नहीं था। दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानव दर्शन के नाम पर एक ऐसी दार्शनिक दृष्टि प्रस्तुत की है, जो त्यागमूलक उपभोग, पारस्परिकतापरक समाज और उत्तरदायित्वपरक अधिकार के मानव जीवन का सृजन करने का सनातन प्रस्ताव है।
[कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा]