[विवेक काटजू]। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और पाकिस्तानी फौज के बीच जारी तनातनी और अधिक कड़वाहट भरी होती जा रही है। पिछले वर्ष जुलाई में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर शरीफ को प्रधानमंत्री पद से हटना पड़ा था। तीन महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने ही फैसला सुनाया कि वह अपनी पार्टी पीएमएल(एन) के अध्यक्ष बने रहने की पात्रता भी नहीं रखते। अब उन पर भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई हो रही है और आसार हैं कि उन्हें जेल की सजा भी सुना दी जाए। पाकिस्तान मामलों के तमाम जानकारों को लगता है कि अदालत और सेना ने शरीफ के खिलाफ सांठगांठ की हुई है, लेकिन शरीफ भी उनके आगे घुटने टेकने को तैयार नहीं दिख रहे। इसके बजाय वह सेना पर समांतर सरकार चलाने और राजनयिक मोर्चे पर देश के अलग-थलग पड़ने एवं आर्थिक मुश्किलों के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।

सेना को लिया आड़े हाथों 

एक हालिया साक्षात्कार में उन्होंने सेना को इसके लिए आड़े हाथों लिया कि उसने भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ आतंकी हमलों में सक्रिय समूहों के खिलाफ भी कोई कदम नहीं उठाया है। मुंबई में हुए आतंकी हमलों का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए शरीफ ने सवाल किया कि पाकिस्तानी अदालत में इससे जुड़े मामले में फैसला क्यों नहीं हो रहा है? कुछ पाकिस्तानी नेता निजी बातचीत में यह स्वीकार करते हैं कि उनकी सेना भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ आतंकी तैयार करती है। हालांकि वे यह भी दावा करते हैं कि अब पाकिस्तान ने उन्हें समर्थन देना बंद कर दिया है। उनकी ही तरह पाकिस्तानी सेना के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारी भी यह स्वीकार करते हैं कि उनकी सेना भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए लश्कर-ए-तोइबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे समूहों का इस्तेमाल करती आई है, लेकिन अब वह इस नीति को तिलांजलि दे चुकी है। तथ्य यह है कि इन आतंकी धड़ों का इस्तेमाल बदस्तूर जारी है।

शरीफ की बात को महत्व

ऐसे में नवाज शरीफ की ओर से सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि यह नीति ज्यों की त्यों कायम है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नवाज शरीफ की बात को खासा महत्व दिया जाएगा, क्योंकि वह तीन बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके हैं और वह भी उस दौरान जब उनके देश की सेना आतंक को प्रायोजित करने में पूरे मनोयोग से जुटी थी। नवाज शरीफ ने मांग रखी कि पाकिस्तान का शासन संवैधानिक रूप से चुनी हुई सरकार द्वारा चलाया जाना चाहिए और सेना द्वारा समांतर सरकार की परिपाटी पर विराम लगना चाहिए। शरीफ के आरोपों पर सेना का सन्न रह जाना स्वाभाविक है, क्योंकि ये आरोप ऐसे वक्त लगाए गए जब अगले कुछ महीनों में पाकिस्तान में चुनाव होने जा रहे हैं।

एनएससी की बैठक

शायद इसी कारण प्रधानमंत्री शाहिद खाकन अब्बासी को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद यानी एनएससी की बैठक बुलानी पड़ी। इसमें सेना की सभी इकाइयों के प्रमुख और अन्य वरिष्ठ मंत्री भी शामिल थे। बैठक में वही हुआ जिसका अनुमान था यानी मुंबई हमले को लेकर शरीफ के आरोपों को सिरे से नकार दिया गया और दावा किया गया कि चूंकि भारत ने अजमल कसाब से संपर्क नहीं करने दिया और उसे जल्दबाजी में फांसी पर चढ़ा दिया तो इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई।

सेना की समांतर सरकार 

एनएससी ने शरीफ के इस आरोप की अनदेखी ही कर दी कि सेना समांतर सरकार चलाती है। दरअसल वह केवल मुंबई हमले पर ही चर्चा करके मामले को भारत-पाक मसले में तब्दील कर शरीफ की छवि खराब करना चाहती थी। पाकिस्तानी विपक्षी दलों ने भी यही रुख अख्तियार किया। कुछ ने तो शरीफ को गद्दार तक करार देकर उनसे अपने आरोप वापस लेने की मांग की। शरीफ ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया और एनएससी के रुख को खारिज कर दिया। नवाज शरीफ न केवल अपनी बातों पर कायम रहे, बल्कि इस पर जोर भी दिया कि उन्होंने जिन सवालों को उठाया उनके जवाब दिए जाने चाहिए। उन्होंने एक राष्ट्रीय आयोग बनाने की मांग भी रखी ताकि यह पता चले कि पाकिस्तान में आतंक पनपने और देश के अलग-थलग पड़ने के लिए कौन जिम्मेदार है। शरीफ के रवैये से चिढ़ी सेना ने उस समाचार पत्र (डॉन) का वितरण बाधित करना शुरू कर दिया जिसमें उनका चौंकाने वाला साक्षात्कार छपा था।

पाकिस्तानी सेना निहायत ही क्रूर

पाकिस्तानी सेना निहायत ही क्रूर संस्था है और इस बार नवाज शरीफ ने उससे ही पंगा लिया है। जब भारत को लेकर नीति तैयार करने में शरीफ ने निर्णायक भूमिका चाही थी तो सेना ने उन्हें इसकी मंजूरी नहीं दी थी। मई, 2014 में सेना इसके पक्ष में नहीं थी कि शरीफ प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हों। फिर दिसंबर, 2015 में पाकिस्तान से संबंध सुधारने की मोदी की पहल को सेना ने ही पटरी से उतारा। पाकिस्तान के साथ अनौपचारिक वार्ता की मोदी की कोशिश सेना के मठाधीशों के गले नहीं उतरी थी। उसकी ओर से यह स्पष्ट भी किया गया कि यह बैठक भारत-पाकिस्तान संबंधों पर चर्चा के लिए नहीं, बल्कि दो राजाओं के बीच होने वाली बातचीत थी। पठानकोट और उड़ी हमले भी मोदी और शरीफ के बीच बढ़ती नजदीकी को खत्म करने के मकसद से ही किए गए थे।

पाकिस्तान की भारत नीति 

इन दिनों पाकिस्तान की भारत नीति को पाकिस्तानी फौज ही पूरी तरह तैयार कर रही है। नवाज शरीफ के उलट मौजूदा प्रधानमंत्री ने तो इस मामले में अपनी कोई मंशा जाहिर करने की भी जहमत नहीं उठाई। सवाल उठता है कि आखिर पाकिस्तानी फौज भारत से चाहती क्या है? इसके संकेत मिले हैं कि वह भारत के साथ व्यापक वार्ता की शुरुआत चाहती है, लेकिन वह आतंकवाद को लेकर अपनी नीति में बदलाव करने की इच्छुक नहीं है। वह चाहती है कि भारत उसकी आतंकी गतिविधियों की अनदेखी कर कश्मीर मसले पर वार्ता को फिर से शुरू करे। पाकिस्तानी सेना की ओर से इसके कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिल रहे कि वह भारत के साथ आर्थिक संबंधों को उस स्तर तक परवान चढ़ाएगी जितना नवाज शरीफ चाहते थे। सेना व्यापार को हमेशा से भारत के खिलाफ एक हथियार के तौर पर देखती आई है।

पीएमएल(एन) के नेतृत्व में बदलाव 

जहां नवाज शरीफ पंजाब में अपने जनाधार को बचाए रखने के लिए चुनावी रैलियां कर रहे हैं वहीं सेना उनके हर एक कदम पर पैनी नजर बनाए हुए है। इसमें कोई रहस्य नहीं कि पीएमएल(एन) के नेतृत्व में बदलाव के बावजूद सेना नहीं चाहेगी कि वह सत्ता में वापस लौटे, क्योंकि उसे लगता है कि नवाज शरीफ तब भी पर्दे के पीछे से मामलों को प्रभावित कर सकते हैं। मौजूदा सरकार 31 मई को केयरटेकर सरकार को सत्ता सौंप देगी जिसकी निगरानी में ही चुनाव होंगे। चुनावों को लेकर पाकिस्तानी संविधान में यही व्यवस्था है। मौजूदा माहौल में भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना शरीफ के आरोपों को भारत- पाक मसले में बदलने में सफल न होने पाए।

मुंबई हमले पर ध्यान केंद्रित

भारत को बहुत ही सलीके से मुंबई हमले पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इससे पाकिस्तानी लोगों का ध्यान भी सेना के खिलाफ लगाए गए शरीफ के आरोपों पर टिका रहेगा। भारत को इसके लिए भी दबाव बनाए रखना होगा कि अगर पाकिस्तान रिश्ते बहाल करना चाहता है तो पहले उसे अपनी आतंकी जड़ों को काटना होगा।

(लेखक विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव और पाकिस्तानी मामलों के जानकार हैं)