[लालजी जायसवाल]। देश का प्रशासन चलाने का कार्य एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, जहां राजनेताओं को यह जिम्मेदारी पांच वर्षो के लिए मिलती है, वहीं अधिकारियों को उनकी सेवानिवृत्ति तक। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि सिविल सेवा में यथोचित सुधार हो। सिविल सेवा भर्ती परीक्षा पुराने ढर्रे पर चलती जा रही है, जिसमें तमाम सिफारिशों के बावजूद कोई विशेष सुधार नहीं हो सका है। इस परीक्षा से चयनित अधिकारी सरकार की नीतियों के अनुपालन में अपनी भूमिका निभाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि इस नौकरशाही की लौह चौखट को नरम और कठोर का मिश्रण अर्थात लचीला कैसे बनाया जाए? अब वक्त आ गया है कि सिविल सेवा भर्ती और उसकी आंतरिक कमियों को दूर करने के लिए सुधार के संदर्भ में कदम उठाया जाए। इसे चरणबद्ध रूप से अंजाम दिया जा सकता है।

पहला सुधार : यह भाषाई स्तर पर हो, जिसमें मूल पेपर अंग्रेजी में बनाने की बजाय हिंदी में बनाया जाए या हिंदी अनुवाद को व्यवस्थित कराया जाए, क्योंकि हिंदू अनुवाद का स्तर सही नहीं होता है। इसके अनुवाद ने गुगल ट्रांसलेटर को भी धता बता दिया है, ऐसा अनुवाद हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों को ड़ोलना पड़ता है। प्रारंभिक परीक्षा में जहां 10 से 12 लाख छात्रों में से महज 12 हजार छात्रों का चयन करना होता है, वहां 0.01 अंक भी कितना महत्वपूर्ण होता होगा।

दूसरा सुधार : संघ लोक सेवा आयोग अपना विज्ञापन परीक्षा के दो महीने पहले जारी करता है। इसे एक निश्चित समयांतराल पर जारी किया जाए, ताकि पाठ्यक्रम में यदि किसी तरह का बदलाव हो तो अभ्यर्थी उसे नियत समय में तैयार कर परीक्षा में बैठ सके। आयोग को यह लगता है कि यदि पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव किया जाए, तो छात्र किसी भी परिस्थिति में परीक्षा देने को तैयार हो जाएगा? आखिर क्या छात्र बदला हुआ पैटर्न को दो महीने में समेट सकता है? बिल्कुल नहीं। फिर संघ लोक सेवा आयोग अपना पाठ्यक्रम और विज्ञापन सही समय पर क्यों नही जारी करता?

तीसरा सुधार : सभी वैकल्पिक विषयों को समाप्त करने पर विचार किया जाए, जिन विषयों का वास्तव में कोई औचित्य ही नही हैं, क्योंकि जब छात्र अपने स्नातक व स्नातकोत्तर में अन्य विषयों को पढ़ कर आता ही है तो उसे उसी विषय को वैकल्पिक रूप में फिर से लेना कोई विशेष अर्थ प्रकट नहीं करता। अगर वैकल्पिक विषय रखना ही है तो वह विषय रखना अनिवार्य कर दिया जाए जो उसे प्रशासन में कार्य रूप में करना है। जैसे लोक प्रशासन विषय। इसकी संस्तुति खन्ना कमेटी और होता कमेटी ने भी की थी। संघ लोक सेवा आयोग की यह विशेषता है कि वह हर एक दशक बाद पूरी परीक्षा प्रणाली की समीक्षा करता है। 1979 में बदलाव के साथ शुरू हुई परीक्षा प्रणाली की समीक्षा 1988 में सतीश चंद्र कमेटी ने की और उसके 10 वर्ष बाद 2000 में वाइपी अलघ कमेटी ने की। होता कमेटी, निगवेकर कमेटी और खन्ना कमेटी ने भी सुझाव दिए। 2014 में अंग्रेजी अनुवाद की समस्या के खिलाफ लाखों छात्र सड़कों पर उतरे। पर कमियों को अभी भी दूर नहीं किया जा सका है।

चौथा सुधार : भारत में सिविल सेवा भर्ती प्रक्रिया को जो सर्वाधिक प्रभावित कर सकती है वह है वर्ष 2022-23 तक भर्ती के लिए सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए ऊपरी आयु सीमा को चरणबद्ध तरीके से 27 वर्ष तक कर दिया जाना। सिविल सेवा में उम्र बढ़ाना एक लोकप्रिय फैसला रहा है। सरकार को अब तक उम्र घटाने के कई सुझाव मिले हैं, पर सरकार इसको घटाने की जगह बढ़ाती चली गई। वर्ष 1947 में देश आजाद होने के समय भारतीय सिविल सेवा के नाम से पहचाने जाने वाली यूपीएससी परीक्षा में अभ्यíथयों की उम्र 21-24 साल तक थी। फिर इसे 1970 में बढ़ा कर 26 साल किया गया। वर्ष 2000 में इसे 30 साल कर दिया गया। अभी सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों की उम्र सीमा 32 साल है। आरक्षित श्रेणी के लिए अधिक है। क्या आपको आश्चर्य नहीं होता ऐसे पैटर्न पर कि जिनके लिए परीक्षा में कोई एटेम्प्ट की सीमा तय नहीं है और जिनमें तय भी है तो वो अधेड़ उम्र तक परीक्षा देते रहें और अंतत: असफल होने पर किसी लायक न बचें। सवाल उठता है, आखिर इतनी लंबी आयु सीमा क्यों? कई समितियों के सुझाव के बाद भी परीक्षा की आयु सीमा में कटौती नहीं की जा सकी है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि सरकार अगर परीक्षा में बैठने के वर्षो में कटौती कर देगी तो देश के कई लाख लोग एक साथ बेरोजगार की श्रेणी में आ जाएंगे, क्योंकि अगर वे लंबी उम्र तक परीक्षा में बैठते रहेंगे तो उनको बेरोजगारी कि नहीं, बल्कि परीक्षा की चिंता रहेंगी। ऐसा लगता है, बेरोजगारी से आंदोलन न उत्पन्न हो जाए, इसी भय से इस परीक्षा में आयु सीमा का निर्धारण ऊंचा रखा गया है।

परीक्षा में प्रतिवर्ष 10 से 12 लाख छात्र बैठते हैं

सिविल सेवा परीक्षा में प्रतिवर्ष 10 से 12 लाख छात्र बैठते हैं और अंतिम रूप से सफल लगभग 700 से 800 होते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि राज्यों की राज्य सेवा परीक्षाओं को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो यह संख्या लगभग एक करोड़ हो जाती है। अत: कहा जा सकता है कि प्रतिवर्ष करोड़ों लोग सिविल सेवा परीक्षा देते हैं, जिसमें अलग-अलग भाषा के लोग अपनी भाषा में परीक्षा देते हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि हिंदी माध्यम का स्तर लगातार गिरता जा है। वर्ष 2011 से पहले हिंदी माध्यम में सफल अभ्यíथयों की संख्या 40 फीसद से भी अधिक रही है, लेकिन आज की स्थिति ऐसी नहीं है। आज परिणाम गिरकर लगभग चार फीसद पर सिमट गया है।

ऐसे में यदि उपरोक्त सुझाए गए बिंदुओं पर सुधार किया जाए तो न केवल नौकरशाही का चरित्र बदल सकता है, बल्कि सभी को समान अवसर मिलने के साथ राष्ट्र निर्माण में एक कुशल नौकरशाही का आगमन भी सुनिश्चित होगा।

[लेखक- इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोधार्थी हैं]