[ प्रो. निरंजन कुमार ] अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ के हालिया अंतरराष्ट्रीय संस्करण के आवरण पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर के साथ शीर्षक छपा-‘इंडियाज डिवाइडर इन चीफ’ यानी भारत को विभाजित करने वाला मुखिया। इसकी मीडिया और सोशल मीडिया में काफी चर्चा रही। विपक्षी नेताओं और खासकर कांग्रेसियों ने इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश भी की। यह बात और है कि इसी आवरण कथा में राहुल गांधी को कुछ भी न सीखने वाला बताया गया था। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में लोकसभा चुनाव के सिलसिले में पीएम मोदी के बारे में ऐसे लेखों और खबरों की भरमार है। टाइम के अतिरिक्त द इकोनॉमिस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और पाकिस्तान के ‘डॉन’ और अन्य अखबारों को इस संदर्भ में देखना प्रासंगिक होगा कि पिछले लगभग डेढ़ महीने में उन्होंने भारतीय चुनाव को किस रूप में चित्रित किया? उनकी रिपोटिर्ंग के पीछे की मानसिकता क्या है और भारतीय अभिजन वर्ग से इसका क्या संबंध है? ‘टाइम’ की आवरण कथा के लेखक आतिश तसीर हैं जो पाकिस्तान के पूर्व राजनेता सलमान तसीर के बेटे हैं। वह भारत के अलावा पाकिस्तान भी जाते रहते हैं। वह अमेरिकी नागरिक हैं और बतौर लेखक पहचान रखते हैं। आतिश तसीर ने लिखा कि क्या विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र मोदी सरकार के पांच साल और ङोल सकता है? इस लेख में अर्थव्यवस्था और विकास के मोर्चे पर मोदी की नाकामी, किसानों की बदहाली, मुसलमानों के खिलाफ गौ-रक्षकों की ¨हसा और उनके साथ तथाकथित भेदभाव आदि मुद्दों पर मोदी को घेरा गया है। तथ्यों के आधार पर देखें तो आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के पांच वर्ष मनमोहन सिंह के पिछले पांच साल से बेहतर नजर आते हैं। मनमोहन सिंह के समय आर्थिक विकास की औसत दर जहां 6.7 फीसद रही वहीं मोदी सरकार के दौरान यह दर 7.6 प्रतिशत रही। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक आदि ने भी भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की मान्यता दी। टाइम के इसी अंक के एक अन्य लेख में भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए मोदी को एकमात्र उम्मीद के तौर पर देखा गया, लेकिन उसकी चर्चा नहीं हुई।

यदि किसानों की स्थिति देखें तो उनकी बदहाली के पीछे विभिन्न सरकारों की बेरुखी या गलत नीतियां रहीं। मोदी सरकार ने किसानों की दशा सुधारने के लिए पहली बार ठोस कदम उठाए। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागत से डेढ़ गुना किया। मूल्य बढ़ोतरी के साथ सरकार ने यह भी सुनिश्चित किया कि कृषि उपज की खरीद भी हो। 2009-14 में जहां सिर्फ सात लाख मीटिक टन दलहन और तिलहन खरीदे गए वहीं 2014-19 में 94 लाख मीटिक टन की खरीद हुई। इसके अतिरिक्त किसान फसल बीमा योजना और छोटे किसानों के लिए 6000 रुपये सालाना किसान सम्मान योजना लागू की गई ताकि दशा को सुधारा जा सके। कथित गौ-रक्षकों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ ¨हसा की घटनाएं अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय हैं। ¨हसा का सहारा लेने वालों को सख्त सजा दी जानी चाहिए। मोदी ने अक्सर ऐसे तत्वों की भर्त्सना की और उनके खिलाफ कड़े कदम उठाने के लिए राज्य सरकारों को निर्देश भी दिए। इसके बावजूद उतनी सख्ती से कार्रवाई नहीं हो पाई जितनी जरूरी थी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कानून-व्यवस्था राज्यों के अधिकार क्षेत्र वाला विषय है।

मोदी सरकार पर जाति-पंथ के आधार पर भेदभाव का आरोप पूरी तौर पर गलत है। शौचालय, गैस सिलेंडर, बिजली, आयुष्मान समेत अन्य अनेक योजनाओं का लाभ बिना किसी भेदभाव सभी गरीबों को दिया गया। देसी-विदेशी मीडिया में भले ही कुछ लोग मोदी को मुसलमान विरोधी के रूप में चित्रित करें, लेकिन अरब देशों में उनका आदर है और उन्हें सम्मानित भी किया गया है। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात, दोनों ने उन्हें अपने सर्वोच्च सम्मान से नवाजा है। सच्चर समिति की रपट इसका साक्षात प्रमाण है कि खुद को मुस्लिम हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों ने मुसलमानों का कितना हित किया है? दूसरी ओर मोदी सरकार में अल्पसंख्यक कल्याण संबंधी योजनाएं कहीं प्रभावी ढंग से लागू की गईं। साफ है कि टाइम की आवरण कथा तथ्यों की सही तरह से छानबीन किए बगैर लिख दी गई। इस कथा में मोदी का अंध विरोध साफ झलकता है।

चुनावों के दौरान न्यूयॉर्क टाइम्स की कुछ खबरों के शीर्षक देखें-‘भारत में चुनाव, किसान पीड़ित। ‘मोदी का डरावना अभियान’, ‘मोदी के शासन में हिंदू राष्ट्रवादी उभार से भारत और विभाजित’, ‘चुनाव अधिकारी की घने जंगल में यात्र ताकि अकेला हंिदूू पुजारी मतदान करे।’ गौर करें कि यह नहीं लिखा गया कि भारत का चुनाव आयोग इतना मुस्तैद है कि निकोबार में आदिवासियों के लिए समुद्र में नाव से मीलों यात्र करके मतदान की व्यवस्था कराई गई, जबकि आमतौर पर ये आदिवासी मतदान नहीं करते। द इकोनॉमिस्ट की एक खबर का शीर्षक देखें- ‘भारत के चुनाव अभियान में गंदी चालें, मतदाताओं को डराना, प्रतिद्वंद्वियों को धमकाना, नेताओं की खरीद’। शीर्षक के ठीक नीचे भाजपा कार्यकर्ताओं का फोटो छपा था। एक अन्य रपट-‘नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की सत्तारूढ़ पार्टी लोकतंत्र के लिए खतरा’, ‘अल्पसंख्यकों में भय’। पाकिस्तानी अखबारों ‘डॉन’, ‘द नेशन’, आदि अखबारों की सुर्खियां भी अलग नहीं-‘मोदी ने जहरीले धार्मिक राष्ट्रवाद का माहौल बनाया’, ‘ईवीएम समीक्षा की विपक्ष की मांग ठुकराई।’ इस शीर्षक से लगता है मानों सरकार ने इसे ठुकराया है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने विपक्षी मांग ठुकराई थी।

‘भारत में 20 लाख ईवीएम लापता,’ ऐसी बेबुनियाद रिपोर्ट एक भारतीय अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका में छपी। एक चैनल में भी यही खबर चलाई गई। इसका चुनाव आयोग ने खंडन किया। ‘चुनाव में बड़े पैमाने पर मतदाता वंचित,’ ऐसी खबर एनजीओ की एक कथित वामपंथी पत्रिका में प्रकाशित की गई। इस खबर के अनुसार तीन करोड़ मुस्लिम और चार करोड़ दलित मतदाता सूची से गायब हैं। यह वह एनजीओ है जिसे 2006 में फोर्ड फाउंडेशन ने विभिन्न गतिविधियों के लिए दो लाख डॉलर अनुदान दिया था। ध्यान रहे विदेशी धन को लेकर बने एक पुराने कानून का मोदी सरकार ने कड़ाई से पालन करते हुए जब एनजीओ वालों से हिसाब मांगा तो रातों-रात 20,000 एनजीओ गायब हो गए थे। मोदी से उनकी नाराजगी स्वाभाविक है। साफ है कि झूठी खबरें चुनाव आयोग और सरकार को बदनाम करने के मकसद से छापी गईं। अगर इनमें सच्चाई होती तो मोदी विरोधी खेमा कोर्ट पहुंच चुका होता।

क्या यह हैरानी की बात नहीं कि अमेरिकी, ब्रिटिश, पाकिस्तानी मीडिया में बिल्कुल समान नजरिये वाली खबरें और लेख छप रहे हैं? क्या यह इत्तफाक इसलिए है, क्योंकि वामपंथी विचारक, लुटियन बुद्धिजीवी और विदेशी धन पा रहे एनजीओ मोदी विरोध के नाम पर एकजुट हैं? सच्चाई जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जैसा लेख ‘टाइम’ में छपा वैसे न जाने कितने भारतीय मीडिया में छप चुके हैं। ऐसे लेख मोदी के प्रति दुराग्रह को भी जाहिर करते हैं और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग की कुंठा को भी।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

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