[शास्त्री कोसलेंद्रदास]। शक्ति पूजन के सनातन पर्व नवरात्र में घर-परिवार में देवी माता के जयकारे लग रहे हैं। पूजा-पाठ, जप-तप और अनुष्ठान जैसी धार्मिक विधियों का पर्व नवरात्र पारंपरिक उल्लास से जारी है। इस बार शक्ति पूजा के इस महापर्व का संयोग ‘मीटू’ से हो रहा है जो महिलाओं के यौन शोषण के खिलाफ एक अभियान है। इस मुहिम में यौन शोषण का शिकार बनीं महिलाएं अपने कथित उत्पीड़क का नाम सार्वजनिक कर रही हैं जिससे सोशल मीडिया पर ऐसे गुनहगारों की बाढ़ आ गई है।

देवी पूजन के पवित्र पर्व के साथ यह त्रासदी क्यों बन गई है कि सर्वस्वरूपा जगज्जननी माता दुर्गा अपनी माटी की बनी मूरत पर ‘मीटू’ के घाव लिए खड़ी है। कहीं वह कन्या रूप में पीड़ित है तो कहीं महिला रूप में प्रताड़ित। आज शायद ही कोई काली, लक्ष्मी या सरस्वती होगी जो नारी को देवी मानकर पूजने वाले समाज में शोषित न हुई हो। उधर ‘मीटू’ के जवाब में सोशल मीडिया पर ‘हीटू’ कैंपेन चलाया जा रहा है जो पुरुषों के खिलाफ यौन शोषण के झूठे आरोपों से जुड़ा है।

मौजूदा वक्त में यौन अपराधों की घटनाओं ने एक नई बहस को जन्म दिया है। इस बहस से यह निष्कर्ष निकला कि इन यौनापराधों ने स्त्रीपूजक समाज को किस हालात में पहुंचा दिया है। यह स्थिति सामाजिक चेहरे को बेनकाब करती है। समाज में एक ओर देवी पूजा कन्या रूप में होती है। उनसे आयु व ऐश्वर्य का आशीर्वाद मांगते हैं, लेकिन दूसरी ओर वही लक्ष्मी और सरस्वती जब कन्या रूप में कोख में उतरती है तो उसे जन्म लेने से पहले नष्ट कर देते हैं! क्या यही है दुर्गा पूजा का विधान और देवी के प्रति श्रद्धा का सत्य? देवी कोई पत्थर की मूरत नहीं है, वह नारी में विराजमान है। देवी माता के रूप में हमें जन्म देती है। पत्नी बनकर सुख देती है। पुत्री का जन्म धर आनंद का प्रसाद बांटती है।

देवी धरती पर उतरती है तो वह प्रकृति में सबसे निराली, कोमल व बेजोड़ होती है। संस्कृति ने नारी में तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखा है। इसी के नाते नारी के नाम में ‘देवी’ शब्द जोड़ा जाता है। अब महिलाएं अपने नाम के आगे ‘देवी’ शब्द लगाना भले पसंद न करती हों पर है यह बड़ा ही अर्थ-गंभीर और महिमामय शब्द। दरअसल कुंआरी कन्याओं के नाम में ‘कुमारी’ व विवाहित महिलाओं के नाम में ‘देवी’ शब्द जोड़कर संस्कृति ने स्पष्ट किया कि प्रत्येक नारी दैदीप्यमान ज्योतिर्मय सत्ता है। चरणों में कुंकुम लगाए व नुपूर झंकार की मधुर ध्वनि सुनाती देवी का धरती पर साक्षात अवतरण होती है नारी। देवी खुद कहती है कि ‘स्त्रियों में जो सौभाग्य व सौंदर्य है, वह मेरा है।’

शरद्काल के आश्विन मास में ‘दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते’ की शास्त्रीय ध्वनि सुनाई देती है। ये वे मंत्र हैं जिन्हें शताब्दियों से हमारी संस्कृति में भगवती से वर प्राप्ति के लिए जपा जाता है। दुर्गासप्तशती में देवी कहती हैं, ‘शारदीय नवरात्र में जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति से मेरी पूजा करेगा वह सभी बाधाओं से मुक्त होकर धन, धान्य व संतान प्राप्त करेगा।’

नवरात्र आध्यात्मिक शक्ति बढ़ाने का पर्व है। यह साधना व संयम के मनोभाव को प्रकट करने का काल है। इन्हीं नौ दिनों में भगवान श्रीराम ने दुराचारी रावण को मारने के लिए किष्किंधा में पर्वत पर ‘शक्ति पूजा’ की थी। किसी अन्य त्योहार पर पूजन-उत्सव भले न हो, दुर्गा-पूजा के उत्सव का प्रचलन दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। साथ ही बढ़ती जा रही है युवाओं में देवी के आधुनिक चित्र व कलात्मक मूर्तियां बनाने की रुचि। मान्यता के अनुसार तो स्वच्छ दीवार पर सिंदूर से देवी की मुखाकृति बनाई जाती है। माता दुर्गा की जो तस्वीर लभ्य हो जाए चौकी पर स्थापित की जाती है। परंतु देवी की असल प्रतिमा ‘घट’ है। घट पर घी-सिंदूर से कन्या चिह्न और स्वस्तिक बनाकर उसमें देवी का आह्वान किया जाता है। तेज, द्युति, दीप्ति, ज्योति, कांति, प्रभा, चेतना और जीवन शक्ति संसार में जहां कहीं भी दिखाई देती है वह देवी है।

देवीभागवत में लिखा है देवी ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का रूप धर संसार का निर्माण, पालन और संहार करती हैं। देवी पुण्यात्माओं की समृद्धि एवं पापाचारियों की दरिद्रता हैं। माता दुर्गा सुकृती मनुष्यों की संपत्ति, पापियों में दुर्बुद्धिरूपी अलक्ष्मी, विद्वानों में बुद्धि, सज्जनों में श्रद्धा व भक्ति तथा कुलीन महिलाओं में लज्जा व मर्यादा के रूप में है।

स्त्रियों की महिमा से पुरातन ग्रंथ भरे पड़े हैं। इन धार्मिक ग्रंथों में उन पर हुए अत्याचारों की कथा है तो अत्याचारियों को मिले दंड का भी विवेचन है। लेकिन अब ‘मीटू’ कैंपेन से अजीब हालात बन रहे हैं, जिस पर गंभीरता से चिंतन जरूरी है। सोचने की बात है आखिर इससे नारी की प्रतिष्ठा कैसे स्थापित होगी? यह सामने है कि इस अभियान में नामचीन महिलाओं द्वारा जाने-माने पुरुषों के लिए ‘मीटू’ का इस्तेमाल हो रहा है।

यह सही है कि यौन उत्पीड़न और शोषण को लेकर बना हुआ गुस्सा कभी शांत नहीं होता। इस अभियान से महिलाओं को सामने आकर शिकायत करने का हौसला मिल रहा है। पर क्या यह स्त्री सम्मान बढ़ाने के बजाय उपहास की वजह नहीं बन रहा है? सब जानते हैं कि बॉलीवुड में ‘शरीर’ कितना महत्वपूर्ण है। अभिनेत्रियों के ढेरों बयान इसकी पुष्टि करते हैं। अब इस पर रार छिड़ने पर भी समाज में आखिर क्रांति क्यों नहीं आ पा रही है? इस पर सवाल खड़े हो रहे हैं, जिनका जवाब यह है कि नामचीन महिलाओं द्वारा लगाए आरोप किस हद तक सिद्ध हो पाते हैं? इससे किसको फायदा होगा और किसको नुकसान? पाश्चात्य सोच में भरोसा रखने वाले बॉलीवुड के लिबरल लोगों को या दूरदराज गांव में बैठी उन महिलाओं को जिनके पास न अंग्रेजी है, न ट्वीटर और न ही अपनी बात कहने के लिए कोई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म।

ऐसे में क्या इस अभियान से भारतीय दर्शन और संस्कृति में बदलाव की जरूरत है कि क्या यौन संबंध व्यक्तिगत विकल्प है या इनकी सामाजिक सीमाएं भी हैं? यह आंदोलन कहीं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की भेंट न चढ़ जाए इसका ध्यान रखना बेहद जरूरी है। इससे इस आंदोलन की सफलता और विफलता तय होगी। पर इतना जरूर है कि यदि इससे महिलाओं के विरुद्ध हुए यौनापराध में पीड़िता को न्याय मिले तो यह देवी की सच्ची आराधना होगी।

वर्तमान समय में यौन अपराधों की घटनाओं पर नए सिरे से बहस चल रही है। इससे यह भी निष्कर्ष निकला है कि इन घटनाओं ने स्त्रीपूजक समाज को किस दशा में पहुंचा दिया है।

[सहायक आचार्य, राजस्थान संस्कृत
विश्वविद्यालय, जयपुर]