नई दिल्ली [एनके सिंह]। समाजशास्त्रीय और राजनीतिक सिद्धांतों के अनुसार समय के साथ समाज अपने को बेहतर ढंग से संगठित करता है। इसके अतिरिक्त भावनात्मक सोच पर वैज्ञानिक समझ को प्राथमिकता देकर बेहतर संस्थाएं तैयार करता है, तर्क पर आधारित विकास के सही पैमानों पर जनमत तैयार करता है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ समतामूलक समाज बनाते हुए बेहतर जीवन की और बढ़ता है। इसीलिए जंगल राज और कबायली संस्कृति से होते हुए हम सामंतवादी व्यवस्था और फिर राजशाही एवं अंत में आज प्रजातंत्र तक पहुंचे। इसके तहत शासन कौन करे, इसके चुनाव में सैद्धांतिक रूप से राजा और रंक में भेद मिटा और दोनों की राय से शासन चलने लगा, लेकिन अंतरराष्ट्रीय जगत की हाल की कुछ घटनाओं से लगने लगा है कि दुनिया में प्रजातंत्र कमजोर हो रहा है और एकल एवं गैर-प्रजातांत्रिक नेतृत्व का वर्चस्व बढ़ रहा है। प्रजातंत्र की औपचारिक संस्थाएं जैसे संसद और न्यायपालिका या निरपेक्ष जन-विमर्श केधरातल कमजोर पड़ते जा रहे हैं अथवा मात्र ताली बजाने की भूमिका तक सीमित हो गए हैं। हाल के वर्षों में खुद अपने देश में संसद का हफ्तों तक न चलना इसकी एक बानगी है।

पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने देश की संसद यानी कांग्रेस की अनुमति के बिना सेना को सीरिया पर हमला करने के आदेश दिए, जबकि अमेरिकी संविधान ने अपने पहले अनुच्छेद में ही युद्ध घोषित करने की शक्तियां संसद में निहित की हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति सेना के मुख्य कमांडर के रूप में हमले के आदेश तभी दे सकता है जब संसद उसे पारित कर दे, लेकिन गलती केवल ट्रंप की ही नहीं है। पिछले 77 वर्षों में किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने संसद से युद्ध प्रस्ताव पर पूर्व-अनुमोदन नहीं लिया। अगर किसी राष्ट्रपति ने कभी अपनी उदारता दिखाते हुए संसद को सूचित किया भी तो मात्र सहयोग भाव दिखाने के लिए, न कि पूर्व-अनुशंसा के लिए। राष्ट्रपति निक्सन ने वियतनाम युद्ध में जब संसद की अनदेखी की तो वह कुछ हरकत में आई और 1973 में यह नियम पारित किया कि अगर आपात स्थिति हो तो राष्ट्रपति युद्ध शुरू करने के 60 दिन के अंदर संसद की अनुशंसा हासिल करे वरना युद्ध खत्म करेगा।

उधर राष्ट्रपति को सर्वोपरि मानने वालों का मत है कि संविधान ने उन्हें सेना का मुख्य कमांडर बनाते हुए अमेरिकी हित की रक्षा में निर्बाध शक्तियां दी हैं। हकीकत यह है कि अमेरिकी संविधान निर्माताओं ने दोनों के बीच एक संतुलन बनाया था। धीरे-धीरे राष्ट्रपति का पलड़ा भारी होता गया। राष्ट्रपति के उम्मीदवार के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप को जनता के मत इसलिए नहीं मिले थे कि उनकी लोकतांत्रिक मूल्यों में बेहद आस्था थी, बल्कि इसलिए मिले थे कि वह राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा गढ़ते हुए युवाओं को रोजगार दिलाने और जेहादी आतंकवाद से सख्ती से निपटने की जरूरत जता रहे थे।

हाल में रूस में पुतिन की लगातार चौथी जीत पर नजर डालें तो पाएंगे कि उन्होंने अपने प्रमुख विरोधी की उम्मीदवारी को ठीक चुनाव के पहले खारिज करवा दिया। चुनाव प्रचार के दौरान उनका एक छोटा सा भाषण देशवासियों के मन को तब भाया जब उन्होंने कहा कि रूस की नाभिकीय क्षमता दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है और फिर भी दुनिया हमें सम्मान नहीं दे रही है, लेकिन अब उसे रूस को सम्मान देना पड़ेगा। जाहिर है कि यह परमाणु युद्ध की धमकी थी, लेकिन चुनाव नतीजों ने बताया कि रूसी जनता को पुतिन का यही अंदाज रास आया। चीन में माओत्से तुंग के बाद पहली बार संसद समेत तमाम अन्य संस्थाओं को ठेंगा दिखाते हुए राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने आजीवन पद पर रहने के लिए संविधान बदला। इसके बावजूद कहीं एक भी प्रदर्शन नहीं हुआ।

इसका कारण था विरोध के स्वर को खत्म करना। चिनफिंग के आजीवन राष्ट्रपति बनने का रास्ता साफ होने के बाद मानव अधिकार के अलमबरदार और जाने-माने अधिवक्ता यू वेनशेंग ने राष्ट्रपति के नाम एक खुला पत्र लिखा। इसमें उन्होंने राष्ट्रपति के अधिनायकवादी शासन की निंदा की और अन्य राजनीतिक सुधार और सही प्रजातंत्र की बहाली की वकालत भी की। अगले दिन जब वह अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए पैदल जा रहे थे तो पुलिस की एक जीप उन्हें उठा ले गई। इस अपहरण के खिलाफ एक भी आवाज नहीं सुनाई दी। जन-शासन के नाम पर 78 साल पहले आए साम्यवाद की या यूं कहें कि एक नए तरह के प्रजातंत्र की ऐसी परिणति कि जनता के बीच से असहमति का एक स्वर भी न सुनाई दे तो यह एक गंभीर बात है। मुश्किल यह है कि चीनी जनता इस बात से खुश है कि विश्व मानचित्र में चीन का परचम लहरा रहा है। यह बात और है कि चीन की चौधराहट से उसके पड़ोसी देश त्रस्त हैं। अगर कोई देश खुश हैं तो वे हैं उत्तर कोरिया और पाकिस्तान। चीन इन दोनों गैर जिम्मेदार देशों का सबसे बड़ा संरक्षक बना हुआ है। चीन अगर सचमुच महाशक्ति बना तो कैसे हालात होंगे, इसकी झलक इससे मिलती है कि विश्व की सबसे बड़ी संस्था संयुक्त राष्ट्र में वह आतंकी सरगनाओं का खुला बचाव करने में संकोच नहीं करता।

कुछ समय पहले तुर्की में हिंसा, सरकारी दहशत और विरोधियों पर जुल्म करते हुए राष्ट्रपति एर्दोगन ने फिर चुनाव जीत लिया। उन्होंने संविधान की ऐसी-तैसी करते हुए न केवल चुनाव जीता, बल्कि एक तरह से प्रजातंत्र को निष्क्रिय करते हुए प्रधानमंत्री का पद भी खत्म कर दिया। एर्दोगन ने स्वयं कानून बनाने का अधिकार प्राप्त करते हुए न्यायपालिका पर नियंत्रण का फैसला भी किया। यह साफ है कि एर्दोगन के रूप में एक और तानाशाह का उदय हुआ है। वह 2034 तक सत्ता में बने रह सकते हैं। चुनाव जीतने के लिए एर्दोगन ने जब धुर राष्ट्रवादी पार्टी एमपीएच से हाथ मिलाया तो इसका विरोध हुआ।

इस पर एर्दोगन ने समझाया कि प्रजातंत्र एक ट्रेन की तरह है जिससे यात्री अपने गंतव्य पर पहुंच कर उतर जाता है और फिर पलट कर देखता भी नहीं। शायद तुर्की की जनता यह समझने को तैयार नहीं कि राष्ट्रवाद जरूरी है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं की कीमत पर नहीं। यही मानसिकता अन्य देशों की जनता की भी नजर आ रही है, अन्यथा क्या कारण है कि एक के बाद एक देशों में ट्रंप, पुतिन, चिनफिंग या फिर एर्दोगन सरीखे शासक मजबूत हो रहे हैं? इस सवाल का जवाब जो भी है, चूंकि जनता एकल नेतृत्व को स्वीकार कर रही है इसलिए संसद, न्यायपालिका के साथ अन्य लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर पड़ रही हैं। ध्यान रहे कि ये संस्थाएं ही नेताओं को एकाधिकारवादी और तानाशाह बनने से रोकती हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के सदस्य हैं)