[ सुरेंद्र किशोर ]: सांसद क्षेत्र विकास निधि यानी एमपीलैड ने इस देश की राजनीति और प्रशासन को जितना प्रदूषित किया है, उतना शायद किसी अन्य ने नहीं। इसने राजनीति और प्रशासन की धाक समाप्त करने का काम किया है। सांसद निधि की उपयोगिता को लेकर चाहे जैसा दावा किया जाए, तथ्य यह है कि सांसद निधि से आदर्श गांव तैयार करने की योजना बुरी तरह नाकाम रही। इस तरह हाल की एक खबर के अनुसार सरकार इस निधि से होने वाले विकास कार्यों की निगरानी के लिए जियोग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टम का सहारा लेने की सोच रही है। वह सांसद निधि को प्रभावी तरीके से लागू करने के उपायों पर भी विचार कर रही है। बेहतर हो कि वह यह देखे कि वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाली प्रशासनिक सुधार समिति ने इसे समाप्त करने की सिफारिश की थी।

मोइली समिति की रपट 11 साल पहले आई थी। इसके पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इसे समाप्त करने की सोच रहे थे, लेकिन किसी कारण पीछे हट गए। कुछ समय बाद उन्होंने इसे एक करोड़ रुपये सालाना से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये कर दिया। जब यह राशि बढ़ाई जा रही थी तब मनमोहन सिंह राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता थे। उन्होंने इसका कड़ा विरोध करते हुए कहा था, ‘यदि आप चीजों को इस तरह होने देंगे तो जनता नेताओं और लोकतंत्र में विश्वास खो देगी।’ यह बात अलग है कि जब मनमोहन सिंह खुद प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने 2011 में सांसद निधि की राशि दो करोड़ रुपये से बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये वार्षिक कर दी।

कई सांसद कह रहे हैं कि इस राशि को 50 करोड़ रुपये कर दिया जाए तो सांसद आदर्श ग्राम योजना को कार्यान्वित करने में सुविधा होगी। मोदी सरकार ने अभी तक तो इस मांग को स्वीकार नहीं किया है, परंतु वह सांसद निधि के खर्चे की ‘थर्ड पार्टी ऑडिट’ कराने की अपनी घोषणा को भी लागू नहीं कर पा रही है। इस निधि से किस तरह घोटाले होते हैैं, इसका एक उदाहरण बिहार में मिला। एक सांसद अपने चुनाव क्षेत्र में अपनी सांसद निधि से हो रहे निर्माण का जायजा ले रहे थे। इंजीनियर भी साथ में था।

घटिया निर्माण होते देख जब सांसद ने इंजीनियर को डांटा तो उसने कहा कि मैं क्या करूं सर? आप नहीं लेते, परंतु 30 प्रतिशत कमीशन तो ऑफिस ही ले लेता है और उसके बाद तो निर्माण ऐसा ही हो सकता है। नि:संदेह कुछ थोड़े से सांसद इस फंड के उचित इस्तेमाल का अलग रास्ता निकाल लेते हैं। एक राज्यसभा सदस्य ने अपना पूरा फंड एक विश्वविद्यालय को दे दिया। वाजपेयी सरकार के एक मंत्री अपनी सांसद निधि आइआइटी कानपुर को दे देते थे, लेकिन सब सांसद ऐसे नहीं हैं।

कई साल पहले एक राज्यसभा सदस्य की सदस्यता इसीलिए समाप्त कर दी गई थी, क्योंकि उन पर सांसद निधि के मामले में रिश्वत लेने का आरोप पुष्ट हो गया था। दरअसल सांसद निधि को जिला स्तर का कोई जूनियर आइएएस अधिकारी नियंत्रित करता है। अपवाद छोड़ दें तो उसके दफ्तर का कमीशन तय रहता है। यानी अपने सेवा काल के आरंभिक वर्षों से ही उसे रिश्वतखोरी की लत लग जाती है। उसे ऐसा करने के लिए अधिकांश मामलों में सांसद भी मजबूर करते हैं। इसमें अपवाद भी हैं, पर वे बहुत कम हैं। इस तरह आइएएस के लिए यह फंड भ्रष्टाचार की पाठशाला साबित होता है। दूसरी ओर इन दिनों देश के अधिकतर हिस्सों में सांसद निधि से होने वाले निर्माण कार्य की जिम्मेदारी लेने वाले ठेकेदार ही सांसद के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता की भूमिका भी निभाते हैं। जब ऐसा होता है तो यह फंड प्रशासन और राजनीति को एक साथ प्रदूषित करता है।

एक बड़े नेता ने कई साल पहले मुझे बताया था कि कुछ कार्यकर्ता भी सांसद निधि के ठेकेदार बन गए हैं। पहले उनसे हमारा संबंध सेवा और सार्वजनिक हित का था। अब उनके व्यावसायिक हित भी प्रभावी होने लगे हैं। आखिर जो सांसद अपने फंड में कमीशन लेता है वह सरकार के दूसरे अंगों में हो रहे दैनिक भ्रष्टाचार पर कैसे नजर रख सकेगा? समय रहते देश की राजनीति की देह से इस कोढ़ को मोदी सरकार समाप्त नहीं करती तो शासन के अन्य क्षेत्रों से भ्रष्टाचार को हटाने का उनका प्रयास भी अधूरा ही रह जाएगा।

दरअसल इस फंड की शुरुआत का उद्देश्य ही दूषित लगा था। 1993 में यह फंड शुरू किया गया तो उसी साल वकील राम जेठमलानी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने शेयर दलाल हर्षद मेहता से एक करोड़ रुपये लिए। कुछ समय बाद सांसद क्षेत्र विकास फंड का प्रावधान करने का काम त्वरित गति से हुआ। माकपा के सांसद निर्मलकांत मुखर्जी के विरोध के बीच संयुक्त संसदीय समिति की अंतरिम रपट सदन में 2 दिसंबर 1993 को 3 बजकर 43 मिनट पर पेश की गई। सरकार ने 5 बज कर 50 मिनट पर यह घोषणा कर दी कि वह एक करोड़ रुपये की सांसद निधि के प्रस्ताव को सरकार स्वीकार करती है। मुखर्जी ने कहा कि हमने तो ऐसी कोई मांग नहीं की थी। जब यह सब हो रहा था तब वित्त मंत्री मनमोहन सिंह विदेश दौरे पर थे। वह इसके खिलाफ थे। बाद में उन्होंने कहा भी था कि यदि मेरा वश चलता तो मैं ऐसा नहीं होने देता। सांसद निधि को लेकर अदालतों और सीएजी ने समय-समय पर प्रतिकूल टिप्पणियां भी की हैं।

बिहार में चुनाव हारने के बाद लालू प्रसाद यादव ने कहा था कि सांसद-विधायक निधि ने हमें हरा दिया। दरअसल राजनीतिक ताकत हासिल किए ठेकेदारों की आपसी प्रतिद्वंद्विता कई बार नेताओं पर भारी पड़ती है, क्योंकि फंड की अधिकांश राशि सरकारी अफसरों, जनप्रतिनिधियों, ठेकदारों और बिचैलियों की जेबों में चली जाती है। इसे लेकर अक्सर खींचतान भी होती है।

सांसद निधि का कुछ हिस्सा कमीशन के रूप में भ्रष्ट तत्वों की जेब में जाने से रोकना आज किसी सरकार या खुद सांसद के लिए संभव नहीं हो पा रहा है। इसीलिए अधिकांश नेता अब उसे रोकना ही नहीं चाहते, परंतु इस तरह लूट बढ़ती जा रही है और साथ ही प्रशासन-राजनीति में उसी अनुपात में गिरावट भी। यदि मोदी सरकार इसे नहीं रोक पाएगी तो कोई अन्य सरकार शायद ही इसे रोक पाए। यदि केंद्र सरकार इस फंड की बुराइयों की गंभीरता की सोशल ऑडिट कराएगी तो उसे चौंकाने वाले नतीजे मिल सकते हैं।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं ]