[ कैप्टन आर विक्रम सिंह ]: नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ सड़कों पर उतरे लोगों और खासकर मुस्लिम समाज की प्रतिक्रिया चकित करने वाली है। यह अचानक नहीं हुआ। इसे समझने के लिए वापस 1946-47 में जाना होगा। 1946 में 14 अगस्त को जिन्ना द्वारा घोषित ‘डायरेक्ट एक्शन’ भारत विभाजन की पूर्वपीठिका था। कांग्रेस के पास इस पूर्व नियोजित नरसंहार का मुकाबला कर पाने का कोई हथियार नहीं था। गांधी जी का एक लाइन का अहिंसक फॉर्मूला यह था कि वध होने के लिए स्वयं को हत्यारों के सम्मुख प्रस्तुत कर दो। असहायता की यह विरासत आजाद भारत की नीति बनी और हमने इसके परिणाम भी देखे। विभाजन के दंगों में सदियों से प्यार- मुहब्बत से साथ रहने वालों ने तलवारें निकालीं, एक दूसरे की गर्दनें काटीं, औरतें लूटीं। सैकड़ों साल साथ रहने के बाद भी जो घृणा थी वह एक ही झटके में सतह पर आ गई।

भारत में मुसलमानों को रोकने वाले नेता थे, पाक में हिंदुओं को रोकने वाला कोई नहीं था

कांग्रेस के नेताओं, खासकर पंडित नेहरू, मौलाना आजाद आदि ने पाकिस्तान जाने वाले बहुत से लोगों के शिविरों में भ्रमण कर उन्हें भारत में रुकने को प्रेरित किया कि हम सेक्युलर देश हैं। यह हिंदुओं का देश नहीं है। वे जानते थे कि अगर यह हिंदुओं का देश बन गया तो नेतृत्व वीर सावरकर जैसों के हाथ चला जाएगा और उनकी भूमिका समाप्त हो जाएगी। उधर पाकिस्तान में हिंदुओं को रोक लेने वाला कोई नहीं था। आज हिंदू आबादी वहां 23 प्रतिशत से घटकर 1.5-2 प्रतिशत रह गई है, जबकि भारत में मुस्लिम आबादी जो आजादी के वक्त की 9.8 प्रतिशत थी अब 14-15 प्रतिशत हो चुकी है।

यदि मुसलमान सेक्युलर हो जाते तो उन्हें एक वोट बैंक बनाए रखने की योजना बेकार हो जाती

पाकिस्तान के रास्ते से वापस लौट आने के बाद यहां के सुरक्षित माहौल में मुसलमानों से भारतीय अस्मिता से एकाकार हो जाने की हमारी अपेक्षा स्वाभाविक थी, लेकिन यदि मुसलमान सेक्युलर हो जाते तो उन्हें एक वोट बैंक बनाए रखने की योजना बेकार हो जाती। इसलिए जरूरी था कि उनकी अलग बस्तियां हों, अलग पहचान और अलग संस्थान हों। हिंदुओं के समान मुसलमानों की समस्याएं शिक्षा, रोजगार की ही तो हैं। भारतीय मुसलमान भी तो मलेशिया, इंडोनेशिया के मुसलमानों की मलय या इंडोनेशियाई संस्कृति के समान अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व कर सकते थे। वे भी इंडोनेशिया की तरह राम को अपना पूर्वज मान सकते थे, पर उन्हें अरबों, तुर्कों से जोड़ा गया। उन्हें राम मंदिर के विरुद्ध मुकदमे में भी खड़ा कर दिया गया।

मुस्लिम समाज को भारत की संस्कृति-सभ्यता से जोड़े रखने के प्रयास नहीं हुए

दरअसल मुस्लिम समाज को भारत की संस्कृति-सभ्यता से जोड़े रखने के प्रयास ही नहीं हुए। राजनीतिक आवश्यकताओं ने साझा संस्कृति ही नहीं विकसित होने दी। आजादी से पहले इस अलगाव के लिए हम अंग्रेज सरकार की नीतियों, शाह वलीउल्लाह, सैयद अहमद, अल्लामा इकबाल, मुहम्मद अली जिन्ना को दोषी मान सकते थे, लेकिन आजादी के बाद तो नेहरू भारत के नए भाग्य विधाता थे। अंग्रेजों की जेल में भारत और विश्व इतिहास पर पुस्तकें लिखते नेहरू को उन वतनपरस्त मुसलमानों जैसे हाकिम खां सूर, इब्राहिम गार्दी जो महाराणा और मराठों के सेनाओं में लड़ते हुए शहीद हुए थे, की याद नहीं थी। दारा शिकोह को उन्होंने शायद पढ़ा नहीं था। हमारी संस्कृति-साहित्य का हिस्सा बन चुके कबीर, रसखान, बाबा फरीद, दादू को उन्होंने कितना जाना, वे ही बता सकते थे।

भारतीय मुस्लिम समाज राष्ट्रीय एकता की सबसे मजबूत कड़ी बन सकती थी

पता नहीं उन्होंने अब्दुर्रहीम खानखाना का यह दोहा ‘जेहि रज मुनि पतनी तरी, सो ढूंढत गजराज’ कभी सुना था या नहीं, लेकिन उन्होंने मुस्लिम समाज में भारतीय इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रीयता का भाव जागृत करने के लिए कुछ नहीं किया। वे चाहते तो भारतीय मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय एकता की सबसे मजबूत कड़ी बना सकते थे। वे कह सकते थे कि अगर भारत टूटा तो सोचो, तुम कितने टुकड़ों में होगे। हर खंडित टुकड़े में भारत की विरासत तुम्हारी रक्षा के लिए नहीं होगी, लेकिन नहीं, मुसलमान भारतीयता से दूर सिर्फ वोट बैंक बनता गया। बड़ी-बड़ी समस्याओं को विरासत में हमारे हवाले कर नेहरू जी इतिहास पटल से विदा हुए। उनके आगे पीछे वह पीढ़ी भी विदा हो गई जिसे भारत की फिक्र थी। अब शुद्ध रूप से सत्ता आकांक्षियों का राज आ गया था।

नेहरू जी जिन सवाल को उलझाकर रुखसत हो गए थे, उनका समाधान अब हुआ

भारतीय मुस्लिम समाज राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में अपनी मूल समस्या पाकिस्तान को लेकर एक स्पष्ट अवधारणा विकसित ही नहीं कर सका, दुविधाग्रस्त ही रहा। रफी अहमद किदवई जैसे नेता दोबारा नहीं आए। आरिफ मुहम्मद खान एक बड़ी संभावना थे, लेकिन परिस्थितियां ही नहीं बनीं। वे सवाल जिन्हें और उलझाकर नेहरू जी रुखसत हो गए थे, उनके समाधान का सिलसिला अब जाकर शुरू हुआ।

अनुच्छेद 370, तीन तलाक का हटना असंभव लगता था, पर संभव हुआ

अनुच्छेद 370 व्यतीत इतिहास का भाग हो चुका है। तीन तलाक का हटना असंभव लगता था, पर वह संभव हुआ। आतंकवाद से रक्तरंजित मजबूर भारत आज सशक्त भारत है। आशा थी कि अनुच्छेद 370 के हटने का भारतीय मुस्लिम समाज स्वागत करेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भारत का हित और भारतीय मुस्लिम समाज का हित अलग-अलग कैसे हो सकता है? हम अपनी अल्पसंख्यक राजनीति को लेकर गलत रास्तों पर चले हैैं।

भारत का मुसलमान आज भी दोराहे पर खड़ा

भारत का मुसलमान आज भी दोराहे पर खड़ा है। आज जब नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हिंसक प्रदर्शनों का दौर चल रहा है तो संदेह होता है कि कहीं कोई दूसरा एजेंडा इन्हें प्रभावित तो नहीं कर रहा है। आखिर बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने से भारतीय मुस्लिमों के हित कैसे प्रभावित होते हैं? संविधान की रक्षा का दम भरते प्रदर्शनकारियों से सीधा सवाल है कि क्या संविधान ने देश को धर्मशाला बनाया है? यदि वे चाहते हैैं कि पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, र्रोंहग्या भारत के नागरिक बन जाएं तो 1946 में यूपी, बिहार, बंगाल के मुसलमानों को जिन्ना के साथ खड़े होकर पाकिस्तान मांगने की जरूरत क्या थी?

समस्या भारतीय मुसलमान नहीं, बल्कि वह मानसिकता है जो उन्हें अलगाव की प्रेरणा देती

हमारी समस्या क्या है? हमारी समस्या वह धार्मिक एजेंडा है जिसके तहत हजारों र्रोंहग्या म्यांमार से लाकर जम्मू में बसा दिए गए। करोड़ों बांग्लादेशी घुसपैठिए इस देश के नागरिक बनने की फिराक में हैैं। बहुत से पाकिस्तानी यहां आकर गुम हो गए हैैं। समस्या भारतीय मुसलमान नहीं, बल्कि वह मानसिकता है जो उन्हें भारतीयता से अलगाव की प्रेरणा देती है। समस्या आज भी शिलादित्य जैसे वे लोग हैैं जो खानवा के युद्ध के दौरान अपने हजारों सैनिकों के साथ राणा सांगा को छोड़कर बाबर से जा मिलते हैं। रात में किले के फाटक खोल देने वाले पहले भी थे, आज भी हैैं। अफसोस होगा अगर कल के इतिहासकार यह कहेंगे कि सदियों से भारत का अटूट हिस्सा रहे एक तबके ने अपनी क्षुद्र सोच के चलते सशक्त होते भारत में अपनी हिस्सेदारी गंवा दी।

( लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैैं )