[अवधेश कुमार]। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा सत्ता में आने पर देश के 20 प्रतिशत सबसे गरीब परिवारों को हर साल 72,000 रुपये दिए जाने की घोषणा से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उन्होंने इसी वर्ष रायपुर में किसान रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि हम सत्ता में आने पर न्यूनतम आय की गारंटी देंगे। इस योजना के अनुसार अगर किसी की आय 12 हजार से कम है तो उतने पैसे सरकार उसे देगी।

दरअसल न्यूनतम आय गारंटी योजना यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्किम ही है। अरुण जेटली ने 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में इसे शामिल किया था। 2017-18 के बजट के पूर्व इस पर काफी विचार विमर्श हुआ, लेकिन बाद में दुनिया के अनुभवों तथा अन्य पहलुओं पर विचार करने पर इस दिशा में कदम नहीं बढ़ाया गया। अब राहुल गांधी की योजना के अनुसार देश के 5 करोड़ परिवारों और 25 करोड़ लोगों को इस योजना का फायदा मिलेगा। इस पर सालाना 3.60 लाख करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं। यह 2019-20 के बजटीय खर्च का 13 प्रतिशत हिस्सा होगा। अंतरिम बजट 27 लाख 84 हजार 200 करोड़ रुपये का है। इसमें 3 लाख 60 हजार रुपये जोड़ दिए जाएं तो यह 31 लाख 44 हजार करोड़ रुपये हो जाएगा। इस समय राजकोषीय घाटा 7 लाख 3 हजार

करोड़ रुपये है। यह सकल घरेलू उत्पाद का 3.4 प्रतिशत है। यूपीए सरकार के वित्तीय कुप्रबंधन के कारण यह 5 प्रतिशत से ऊपर चल गया था।

राहुल की योजना के साथ यह बढ़कर 10 लाख 63 हजार करोड़ यानी 5.6 प्रतिशत हो जाएगा। राजकोषीय असंतुलन के साथ कई आर्थिक समस्याएं आती हैं। इसमें महंगाई वृद्धि सर्वप्रमुख है। जाहिर है रिजर्व बैंक का महंगाई दर को 4 प्रतिशत रखने का संकल्प टूट जाएगा। महंगाई दर कम से कम अतिरिक्त 1.5 प्रतिशत बढ़ेगी। महंगाई को काबू में रखने के लिए जो कदम उठाए जाएंगे उसका नकारात्मक असर विकास पर पड़ेगा। यूनिवर्सल बेसिक इनकम का सुझाव लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गाय स्टैंडिंग ने यूपीए सरकार को दिया था। तब यूपीए सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया था। तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम एवं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बताना चाहिए कि उस समय क्या समस्या थी? वास्तव में पिछले कुछ समय से राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस जिस तरह की अदूरदर्शी राजनीति कर रही है यह घोषणा उसी का विस्तार है।

एक प्रश्न यह भी है कि 5 करोड़ परिवार ही 12 हजार रुपये से कम मासिक आय वाले हैं यह आंकड़ा कहां से आया? आज भारत में कितने लोग गरीब हैं? सरकार के आंकड़ों के अनुसार 2012 में ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी दर 25.7 प्रतिशत और शहरों में 13.7 प्रतिशत थी। यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2012 में सी रंगराजन की अगुआई में बने विशेषज्ञ समूह ने गरीबी रेखा के लिए गांवों में एक दिन में 32 रुपये और शहरों में 47 रुपये खर्च की सीमा तय की थी। किंतु विश्व संस्थाओें ने हाल में कुछ नए आंकड़े दिए हैं। वल्र्ड डाटा लैब विश्व में गरीबी का आंकड़ा एकत्रित करती है। विश्व मानक के अनुसार अत्यंत गरीबी के दायरे में वे लोग आते हैं जिनके पास अपने जीवनयापन के लिए रोजाना 1.9 डॉलर यानी 134 रुपये भी नहीं होते।

वर्ल्ड डाटा लैब ने कहा है कि 2018 में भारत में ग्रामीण क्षेत्र में 4.3 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्र में 3.8 प्रतिशत आबादी को गरीब माना जाएगा। वहीं ब्रूकिंग्स के मुताबिक 2022 तक भारत में अत्यंत गरीब जनसंख्या केवल तीन प्रतिशत रहेगी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मई 2018 में उसके अध्ययन से पता चला है कि भारत में 7 करोड़ 30 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। वल्र्ड डाटा लैब की मानें तो हो सकता है कि अब भारत में करीब 5 करोड़ लोग ऐसे हों जो 1.90 डॉलर (करीब 134 रुपये) प्रतिदिन में गुजारा करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र कहता है कि भारत का पिछले कई सालों का रिकॉर्ड इस मायने में अत्यंत ही उत्साहजनक है। कहने का तात्पर्य यह है कि पहले की तरह रोमांसवादी भाव में हम गरीबी को लेकर छाती पीटते हैं, पर धरातल पर जाकर देखिए तो अंतर दिखाई देता है। इसी संयुक्त राष्ट्र ने सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य रिपोर्ट 2014 में कहा था कि दुनिया के समस्त निर्धनतम लोगों का 32.9 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है। आज वही संस्था भारत का बिल्कुल अलग आकलन कर रही है। हम नहीं कहते कि बिल्कुल स्थिति बदल गई है, लेकिन जमीन पर स्थिति कुछ बदली हुई दिखाई देती है। जब सही तरीके से गरीबी पर चोट हुई है और परिणाम उत्साहवर्धक हैं तो अनावश्यक इस तरह देश की पूरी अर्थव्यवस्था को चरमरा देने वाली लुभावनी घोषणाओं की क्या आवश्यकता है?

राहुल गांधी के सलाहकारों को लगता है जिस तरह इंदिरा गांधी ने 1967 से गरीबी हटाओं की बात करनी शुरू की और 1971 में गरीबी हटाओ नारे पर चुनाव जीत लिया वैसा ही 2019 में हो सकता है। उस समय गरीबी दर्दनाक अवस्था में थी। इतने सामाजिक-आर्थिक विकास के कार्यक्रम नहीं थे। 48 वर्ष बाद आज का भारत काफी अलग है। आज का पूरा राजनीतिक परिदृश्य अलग है। वैसे कोई पार्टी जीते या हारे इसके आधार पर ऐसी घोषणाओं का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। ऐसी योजनाओं का मूल्यांकन केवल अर्थशास्त्रीय कसौटियों पर ही किया जाना चाहिए।

भारत क्या दुनिया के किसी देश की हैसियत एक साथ कर्ज माफी से लेकर इतनी राशि हर वर्ष मुफ्त में बांटने की नहीं है। यूनिवर्सल बेसिक इनकम का एक सिद्धांत यह है कि सारे मुख्य सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों एवं सब्सिडी योजनाओंको समाप्त कर सीधे नकद स्थानांतरित किया जाए। क्या इनको बंद किया जा सकता है? वैसे भी जो योजनाएं भारत में गरीबी तेजी से घटाने तथा लोगों के जीवन स्तर उठाने का कारण बन रही हैं उन्हें खत्म नहीं किया जाना चाहिए। नकदी देंगे तो राशि की व्यवस्था करनी होगी। क्या उसके लिए नया कर लगाया जाएगा? कुल मिलाकर कह सकते हैं कि राहुल गांधी की योजना लागू करने पर वित्तीय ढांचा चरमरा जाएगा। इसलिए कर्ज माफी और प्रति महीने नकद की राजनीति देश की अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी साबित होगी।

[वरिष्ठ पत्रकार]