[अद्वैता काला]। सात जून को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के नागपुर स्थित मुख्यालय का दौरा किया। उन्हें एक विशेष मौके पर वहां आमंत्रित किया गया था। यह अवसर था संघ शिक्षा वर्ष के तृतीय वर्ष कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए स्वयंसेवकों को संबोधित करना। उनसे यही अपेक्षा की गई कि पांच दशकों के अपने सार्वजनिक जीवन में वह अपने अर्जित अनुभवों से स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन करेंगे। उनके भाषण से पहले संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने स्वयंसेवकों को संबोधित किया। संघ के इस आयोजन को मीडिया में भी अभूतपूर्व चर्चा मिली जहां सभी चैनलों ने इसका सीधा प्रसारण दिखाया।

उम्मीद जताई जा रही थी कि वहां कुछ हंगामाखेज सुनने को मिलेगा, लेकिन मुखर्जी ने जो बातें कहीं वे किसी युगल गीत से कम नहीं थीं। डॉ. मुखर्जी ने अंग्रेजी में दिए अपने भाषण में भारत की सभ्यता एवं संस्कृति की जिस निरंतरता के भाव पर जोर दिया उसे संघ के गलियारों में सगर्व ‘भारतवर्ष’ की संज्ञा दी जाती है। अपने भाषण से पहले पूर्व राष्ट्रपति अपने मेजबान सरसंघचालक के साथ संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के उस घर में भी गए जहां 1925 में विजयादशमी के दिन उन्होंने संघ की स्थापना की थी। इस घर को बहुत संवारकर रखा हुआ है। मुखर्जी ने वहां हेडगेवार को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए ‘विजिटर्स बुक’ में उन्हें भारत मां का महान सपूत बताया।

कुछ ‘प्रख्यात’ इतिहासकारों और राजनीतिक शक्तियों द्वारा आजादी की लड़ाई में डॉ. हेडगेवार को उनके योगदान का श्रेय नहीं दिया गया। जबकि साक्ष्य इसके उलट हैं जो दर्शाते हैं कि संघ की स्थापना के बाद उनकी गतिविधियों के चलते अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया था। उनके प्रति ऐसी सोच बेहद संकीर्ण और अनावश्यक ही कही जाएगी, क्योंकि स्वतंत्रता मिलने से पहले ही उनका निधन हो गया और उनके जीवनकाल में संघ की गतिविधियां मुख्य रूप से मध्य प्रांत तक ही सीमित रहीं और संगठन अपनी गतिविधियों का श्रेय लेने की स्थिति में नहीं था। लोकतांत्रिक तरीके से ही तथ्यों को उदारतापूर्वक स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन फिर इसे क्यों नकारा जाता है और स्वाधीनता संघर्ष के दौरान भी स्वयंसेवकों के योगदान की अनदेखी की जाती है। इसके बारे में विरले ही बात होती है। बहरहाल आरएसएस से जुड़ी कुछ पीढ़ियों के जेहन में तमाम बातें आज भी ताजा हैं। कालांतर में आपातकाल के दौरान संवैधानिक मूल्यों को पुनस्र्थापित करने को लेकर आरएसएस के व्यापक रूप से स्वीकार्य प्रतिरोध की वैचारिक विरोधियों द्वारा भी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। यहां तक कि आपातकाल के दौर में देश के सबसे बड़े नेताओं में शुमार जयप्रकाश नारायण भी संघ से खासे प्रभावित हुए। ऐसे में यह पहलू महत्वपूर्ण था जो डॉ. मोहन भागवत के भाषण में भी झलका।

उन्होंने कहा कि संघ खारिज करने वाले विचारों को प्रोत्साहन नहीं देता, क्योंकि वह बाह्य विविधता के बावजूद इस धरती पर जन्मे प्रत्येक व्यक्ति को भारत माता की संतान मानता है। डॉ. मुखर्जी के भाषण में भी यही भाव प्रतिध्वनित हुआ था जब उन्होंने ‘सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया’ की बात कही। इसका अर्थ है कि हम समस्त संसार को एक परिवार मानते हैं और उसके सुख की कामना करते हैं। मंच पर आसीन इन दो बड़ी शख्सियतों के विचारों में सबसे बड़ा साम्य कुछ उन ‘सत्यों’ की स्वीकृति में नजर आया जिनमें 2500 वर्ष की राजनीतिक उथलपुथल के बावजूद 5000 वर्ष पुरानी सभ्यता की अक्षुण्णता का उल्लेख किया गया। डॉ. मुखर्जी के भाषण की शुरुआत भारत के राजनीतिक इतिहास के विस्तृत ब्योरे के साथ हुई। उसमें राजवंशों के साथ ही मुस्लिम आक्रांताओं और ब्रिटिश उपनिवेशवाद का भी समावेश था। उन्होंने बताया कि ब्रिटिश राजशाही के दखल से पहले अंग्रेजी राज का स्वरूप कारोबारी था और दोनों प्रकार के शासनों में क्या अंतर था। उन्होंने माना कि ब्रिटिश या यूरोपीय परिभाषा से पहले ही भारत राष्ट्र राज्य बन चुका था। यह निश्चित रूप से ऐसी व्याख्या थी जो स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली और बौद्धिक विमर्श से इतर थी। वास्तव में यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विचार से गहरा जुड़ाव रखती है।

भारत का विशिष्ट राष्ट्रवाद हमारे संविधान और सांस्कृतिक मूल्यों से स्थापित होता है। बहुलता इस राष्ट्रवाद का विशेष पहलू है। असल में यह संस्कृति ही है जो देश के एक धागे में पिरोती है। पूर्व राष्ट्रपति ने दोहराया कि राष्ट्र- राज्य की पश्चिमी अवधारणा की जननी मानी जाने वाली वेस्टफेलिया संधि से पहले भी भारत में राष्ट्र राज्य का प्रतिरूप था। वास्तव में कोई राज्य मूल्यों, समावेशन, बहुलता एवं विविधता से ही बंधा होता है। दोनों महानुभावों के विचारों में यही भाव परिलक्षित हुए। बहुलता के इस विचार में वैचारिक विविधता को भी स्वीकृति मिलनी ही चाहिए। इसका निदान भी पश्चिमी ढर्रे वाली मानसिकता में नहीं, बल्कि हमारे उसी तंत्र में निहित है जो शासन कला एवं वैचारिक अपरिहार्यता की ओर ले जाता है। संघ के इस निमंत्रण को स्वीकार करने के बाद अपनी ही पार्टी के नेताओं के निशाने पर आए पूर्व राष्ट्रपति ने अपने उद्बोधन के बाद ट्वीट किया, ‘लोकतंत्र में राष्ट्रीय महत्व के सभी मुद्दों पर सार्थक एवं अर्थपूर्ण चर्चा आवश्यक है। न केवल प्रतिस्पर्धी हितों को संतुलित करने के लिए, बल्कि उनमें सामंजस्य स्थापित करने के लिए भी संवाद बेहद जरूरी है।’ लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है कि संवाद और सक्रियता बढ़े। हालांकि भाषणों और जुमलों में तो अरसे से इसकी दुहाई दी जाती रही है, लेकिन असल में वैचारिक छुआछूत की बुराई कायम ही रही। कुल मिलाकर इससे आरएसएस की छवि को मजबूती ही मिलेगी जहां वैचारिक विरोधी को भी मंच प्रदान किया गया। इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से ही देखा जाएगा।

मुखर्जी द्वारा आरएसएस के आमंत्रण को स्वीकार करने के मसले पर कुछ अप्रिय टीकाटिप्पणियां भी सामने आईं। यहां तक कि उनकी पार्टी के नेता ही आनन-फानन में उनसे किनारा करते नजर आए जबकि कांग्रेस नेता के रूप में मुखर्जी का शानदार अतीत रहा है। यह पूरा प्रकरण दिखाता है कि असल में असहिष्णु कौन है? फिर एक तबके के मुताबिक यह संघ की खुद को मान्यता दिलाने या वैधता हासिल करने की एक कोशिश थी। यह वही वर्ग है जो आरोप लगाता है कि सरकार से लेकर तमाम संस्थान संघ के इशारे पर ही चल रहे हैं। ऐसे लोगों की दोनों बातें तो सही साबित नहीं हो सकतीं। यह दलील तार्किक रूप से खरी नहीं उतरती। इससे पहले कि इससे जुड़ी बहस कुछ और तल्ख होती उन्हें डॉ. भागवत ने तूल नहीं पकड़ने दिया जब उन्होंने कहा कि इसके बाद भी संघ, संघ ही रहेगा और प्रणब दा भी प्रणब दा रहेंगे।

प्रणब दा अभी भी सक्रिय हैं और माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर ‘सिटीजन मुखर्जी’ हैंडल के माध्यम से पूरी तन्मयता के साथ अपनी मौजूदगी दर्शाते हैं। नागपुर जाकर उन्होंने अपनी लोकतांत्रिक भावना दिखाई, दलगत संकीर्णता की दीवार को पार किया और भारतीयता के भाव से भरे रहे। वहीं डॉ. भागवत ने दिखाया कि संघ के दृष्टिकोण में उन लोगों के साथ भी संवाद के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं जो भले ही भिन्न वैचारिक नजरिया रखते हों और उनकी देहरी पर ऐसे लोगों को भी पूरा सम्मान मिलता है।

(लेखिका जानी-मानी पटकथा लेखक हैं)