[अरविंद कुमार सिंह]। दशहरा के मौके पर अमृतसर में दो रेलगाड़ियों से कुचल कर हुई वीभत्स मौतों ने पूरे देश को उत्सवी माहौल के बीच उदासी में डुबो दिया। इस मसले को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच आरोप प्रत्यारोप भी चल रहे हैं और तमाम दूसरे सवाल भी उठ रहे हैं। रावण दहन के दौरान घटी इस घटना में अगर बारीकी से देखें तो राज्य सरकार, रेल प्रशासन, स्थानीय निकाय और आम लोग सभी दोषी नजर आते हैं। अगर थोड़ी सावधानी बरती गई होती तो इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को टाला जा सकता था। लेबल क्रॉसिंग पर सारी व्यवस्थाओं के बाद भी दुर्घटनाओं की गुंजाइश बनी रहती है, इस घटना ने इस बात का साफ संकेत दे दिया है। इस नाते लेबल क्रॉसिंगों को समाप्त करने की रेलवे की नीति में कुछ ठोस एहतियाती उपाय लाजिमी हैं।

इस घटना में रविवार तक 61 मौतों और 72 घायलों की प्रशासन ने पुष्टि की है। साथ ही रेलवे ने कहा है कि उसे दशहरा कार्यक्रम की सूचना नहीं दी गई थी और रेल लाइन पर भारी भीड़ का एकत्र होना सीधे अतिक्रमण का मामला बनता है। रावण दहन और पटाखे फूटने के बाद भीड़ में से कुछ लोग रेल पटरियों की ओर बढ़ने लगे जहां पहले से ही बड़ी संख्या में लोग खड़े थे। उसी समय दो विपरीत दिशाओं से एक साथ दो ट्रेनों ने लोगों को कुचल दिया। उनके पास भागने या बचने का समय ही नहीं था। ऐसे में रेलवे को यह सुनिश्चित करना था कि इस खंड पर ट्रेन की रफ्तार धीमी रहे, क्योंकि पटाखों के शोर की वजह से ट्रेन की सीटी की आवाज लोगों को सुनाई नहीं पड़ी। मरने वालों में अधिकतर उत्तर प्रदेश और बिहार के थे जो पंजाब में रोजी रोटी की तलाश में गए थे।

इस भयानक हादसे के बाद केंद्र से लेकर राज्य सरकार सभी हरकत में आई। घटना की भयावहता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पंजाब सरकार ने एक दिन के शोक का ऐलान किया। रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा से लेकर रेलवे के आला अधिकारी मौके पर पहुंचे और रेल मंत्री पीयूष गोयल को अमेरिका से अपने सभी कार्यक्रम रद्द करने पड़े।

पटरी पर सर्वाधिक मौत मुंबई में

वास्तव में रेल पटरियों पर खूनी खेल की यह पहली घटना नहीं है। दिनेश त्रिवेदी के रेल मंत्री काल में गठित काकोदकर कमेटी ने पाया कि देश में हर साल पंद्रह हजार से अधिक लोग रेल की पटरियां पार करते हुए रेलगाड़ी से कटकर मर जाते हैं। इसमें से करीब आधी मौतें मुंबई के उपनगरीय इलाकों में होती हैं। काकोदकर समिति ने पांच साल के भीतर सभी रेलवे क्रॉसिंग को खत्म करके पुलों का निर्माण करने को कहा था। इस पर करीब 50 हजार करोड़ रुपये का खर्च आंका गया था। समिति की राय थी कि सुरक्षा के लिए यह कदम तत्काल उठाया जाना चाहिए। रेल मंत्रालय ने इस दिशा में धीमी गति से सही, लेकिन पहल की है और ब्रॉड गेज यानी बड़ी लाइन पर सारे रेलवे अनमैंड लेबल क्रॉसिंग को समाप्त करने की दिशा में काम हो रहा है। वर्ष 2016-17 के रेल बजट में शून्य दुर्घटना मिशन आरंभ किया गया। रणनीति बनी कि तीन चार वर्षों में सभी मानव रहित फाटकों को समाप्त किया जाएगा।

संसद में दिए गए रेल मंत्री के जवाबों के अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 2009 से 2011 के बीच भारतीय रेल की पटरियों पर करीब 41,474 लोग मारे गए। रेल दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले लोगों की तुलना में ट्रैक या रेलवे लाइन पार करते समय होने वाली दुर्घटनाओं में कहीं ज्यादा मौतें होती हैं। लेकिन हकीकत यह है कि रेलवे के पास केवल उन्हीं यात्रियों की मौत का आंकड़ा होता है जो रेल दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं और वे रेलयात्री होते हैं। इसी तरह रेलवे लाइनों पर मरम्मत के दौरान कई गैंगमैन और दूसरे रेलवे कर्मचारियों की भी मौतें होती हैं। लेकिन रेल दुर्घटना से कई गुना ज्यादा गलत तरीके से लाइन पार करने से मौतें होती हैं।

बारीकी से गौर करें तो साफ होता है कि इन मौतों में रेलवे की भी गलती है, आम लोगों की तो है ही। खास तौर पर जहां रेलवे के ऊपरीपुल या दूसरे इंतजाम हैं, वहां भी बड़ी संख्या में लोग पटरियां पार करते हैं। कई बार वे तेज रफ्तार से आ रही रेलगाड़ी की चपेट में भी आ जाते हैं। इसी तरह कानों में इयरफोन लगा कर पटरी पार करने वालों को रेल के इंजन की सीटी तक नहीं सुनाई पड़ती और बहुत सी मौतें इस तरह भी हो रही हैं। हालांकि तमाम जगहों पर रेलवे पटरियों पर मौतों को रोकने के लिए रेलवे यात्रियों को ऊपरी पैदल पुल का इस्तेमाल करने और पटरियां पार न करने की सूचनाएं और सलाह देता है। इतना ही नहीं इसके लिए अभियान भी चलाता है रेलवे। रेल अधिनियम की धारा 147 के तहत रेल पटरियों को पार करने पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है। हर साल इसके तहत करीब डेढ़ लाख से अधिक लोगों को दंडित किया जाता है। लेकिन समस्या अपनी जगह कायम है।

उत्तर भारत में कोहरा जानलेवा

रेल पटरियों पर सबसे अधिक मौतें पश्चिमी और मध्य रेलवे के मुंबई के उपनगरीय खंडों पर होती है। उत्तर भारत में बहुत से यात्री कोहरे के कारण इसकी चपेट में आ जाते हैं। उनको घने कोहरे के कारण 15 मीटर दूर आती रेलगाड़ी दिखाई नहीं देती। इस नाते कई जगहों पर रेलगाड़ी दबे पांव उन्हें मौत के शिकंजे में जकड़ लेती है। दिल्ली से लगे गुरुग्राम में ही रेलवे लाइनों पर सालाना सौ से डेढ़ सौ तक मौतें हो रही हैं। सर्दी के तीन माह के धुंध के दौरान ही रेलवे लाइन पर मौतों का आंकड़ा 50 से अधिक पहुंच जाता है।

जब किसी खास हादसे में अधिक लोग मर जाते हैं तो एकबारगी सवाल उठते हैं। ये सवाल रेल मंत्रालय और राज्य सरकार दोनों की भूमिकाओं पर उठतें हैं, लेकिन आम लोगों की भूमिकाएं भी इसमें कम नहीं है। बहुत से लोग यह जानते हुए खतरा मोल लेते हुए पटरियां पार करते हैं कि कभी भी रेल आ सकती है और उनकी जान जा सकती है। जहां पुल बने हैं, वहां उनका उपयोग कम हो रहा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि रेलवे में सबसे निचले पायदान पर खड़े तमाम गैंगमैन रेलों के सुरक्षित संचालन के लिए जान तक दे देते हैं।

भीड़ का नियंत्रण जरूरी

कुछ साल पहले बिहार में सहरसा जिले में तेज रफ्तार से आ रही राज्यरानी एक्सप्रेस से कट कर हुई तीन दर्जन से अधिक मौतों और तमाम लोगों के घायल होने के बाद ऐसे ही सवाल उठे थे जो पंजाब में उठ रहे हैं। तब रेल मंत्रालय और राज्य सरकार ही नहीं आम लोगों की भूमिकाओं पर भी सवाल उठे। घटना के बाद लोग इतना उग्र हुए कि रेलगाड़ी में आग लगा कर रेलवे स्टाफ को भी पीटा और इतना आतंक फैलाया गया कि रेलवे स्टेशन का स्टाफ स्टेशन छोड़ कर भाग गया। इस घटना में यात्री पैदल पटरी पार करके दूसरी तरफ एक मंदिर जा रहे थे जहां सावन का अंतिम सोमवार होने के कारण मेला लगा था और मंदिर में भारी भीड़ थी। यह सालाना मेला होता है और वहां रेलवे को ऊपरीपुल बनाना चाहिए था। लेकिन तब भी इस बात की गारंटी नहीं थी कि लोग पटरियां पार न करते। राज्य सरकार के पास भीड़ जुटने का आकलन था, लेकिन पहले से सुरक्षा इंतजाम नहीं हुआ। ऐसी बहुत सी घटनाएं बताती हैं कि अभी तस्वीर बहुत बदलने की जरूरत है और इसके लिए भारी निवेश के साथ केंद्र और राज्य सरकारों को मिल कर काम करना होगा।