प्रेमपाल शर्मा। भारत सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर नौ विशेषज्ञों की नियुक्ति फिर इस बात का प्रमाण है कि मौजूदा केंद्र सरकार में फैसले लेने और उन्हें पूरा करने की दृढ़ इच्छाशक्ति है। मोदी सरकार ने केंद्र सरकार के अति विशेषज्ञता वाले कई मंत्रालयों में संयुक्त सचिव के पदों को ऐसे विशेषज्ञों से भरने का फैसला पिछले साल जून में लिया था, जो विकास को गति दे सकें।

वैसे इस पर बहस पिछले कई वर्षों से चल रही थी। नीति आयोग ने भी इस बात की सिफारिश की थी कि वैश्विक ज्ञान और विशेषज्ञता को देखते हुए संयुक्त सचिव स्तर पर अपने-अपने क्षेत्र के ऐसे विशेषज्ञों को लाने की जरूरत है। इसके दो फायदे हैं। एक तो सरकार से बाहर अपने-अपने क्षेत्रों की जो प्रतिभाएं हैं, उसका फायदा सरकार को मिलेगा और उन्हें सरकार को करीब से समझने का मौका भी मिलेगा। जाहिर है कि मौजूदा सरकार के अधिकारी भी उनसे सीख सकते हैं।

लगभग एक दशक पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी केंद्र सरकार में लेटरल एंट्री की सिफारिश की थी। सातवें वेतन आयोग ने 2007 में भी ऐसी ही सिफारिश की थी, लेकिन नौकरशाही के आंतरिक विरोध के चलते बात आगे नहीं बढ़ी। स्वाभाविक है कि यथास्थितिवादी मौजूदा नौकरशाही कभी नहीं चाहेगी कि उनके एकछत्र साम्राज्य में कोई बाहरी भी सेंध लगाए। गौर करने लायक बात यह है कि जो नौकरशाही शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर मीडिया, सूचना सभी क्षेत्रों में सुधारों की पक्षधर रही है, उसने अपने संगठन में सुधार का कभी समर्थन नहीं किया।

हालांकि उनके पुरजोर विरोध के बावजूद जून 2018 में विज्ञापन निकाला गया और लगभग 10 मंत्रालयों के लिए 6000 आवेदन आए। इन आवेदनकर्ताओं को पुन: अपनी विशेषज्ञता की विस्तृत जानकारी देने के लिए कहा गया और परिणाम यह निकला कि उसके बाद केवल 40 प्रतिशत आवेदक ही अपनी प्रविष्टियां पूरी कर पाए।

अंतत: 6000 में से सिर्फ 90 उम्मीदवारों को संघ लोक सेवा आयोग ने साक्षात्कार और अन्य प्रक्रियाओं के लिए उपयुक्त माना। अब ये विशेषज्ञ संयुक्त सचिव के रूप में वित्त मंत्रालय, कृषि मंत्रालय के अधीन सहकारिता और कृषक कल्याण, नागरिक उड्डयन, वाणिज्य, वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन, सड़क, परिवहन, ऊर्जा से लेकर जहाजरानी मंत्रालय में तैनात किए जाएंगे। उम्मीद है कि ये अगले दो महीनों में अपना कार्यभार संभाल लेंगे।

एक नजर इन चुने हुए विशेषज्ञों के नामों पर डाली जाए तो पाएंगे कि सभी अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ रहे हैं। काकोली घोष ने संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन में काम किया है और अब कृषि मंत्रालय में कार्यभार संभालेंगी। इसी तरह पनामा ऊर्जा के मुख्य कार्यकारी अधिकारी दिनेश दयानंद जगदाले अब ऊर्जा मंत्रालय में काम करेंगे। इनके वेतन और दूसरी सुविधाएं वहीं होंगी जो संघ लोक सेवा आयोग से चुने गए भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा या रेल मंत्रालय के इसी स्तर के दूसरे अधिकारियों को मिलती हैं। अंतर इतना ही है कि यह नियुक्ति संविदा के आधार पर की गई है। शुरू में नियुक्ति तीन साल की है। उसके बाद उनके योगदान के आधार पर इसे पांच वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। पर्यावरण, वन, ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन जैसे ये सभी मंत्रालय ऐसे हैं जहां नवीनतम ज्ञान और विशेषज्ञता की जरूरत होती है।

संघ लोक सेवा आयोग और देश की अकादमिक दुनिया की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि केंद्रीय सेवाओं में चुने जाने वाले सभी अभ्यर्थी बहुत कठिन तीन स्तरीय परीक्षा से जरूर चुने जाते हैं, लेकिन इन विषयों की उन्हें इतनी जानकारी नहीं होती जितनी कि आज के जटिल समय में जरूरत है। वे परंपरागत भौतिकी कानून, इतिहास के मेधावी छात्र हो सकते हैं, लेकिन वैश्विक दुनिया आज ज्ञान और शोध के जिस मोड़ पर खड़ी है वहां लगातार स्वयं को अद्यतन बनाए रखने की आवश्यकता होती है। मोटे तौर पर संयुक्त सचिव के स्तर पर पहुंचने के लिए लगभग 20 वर्ष का समय लग जाता है।

यदि सिविल सेवा परीक्षा द्वारा नौकरियों में भर्ती की औसत आयु 28 वर्ष भी मानें तो इन्होंने अपनी पढ़ाई उससे पांच-सात साल पहले पूरी की होगी। यानी कि इनके पास लगभग 30 वर्ष पुराना ज्ञान है। जबकि इनके मुकाबले बाजार या दूसरे संगठनों से भर्ती किए हुए विशेषज्ञों ने अपना पूरा जीवन उसी एक क्षेत्र में बिताया है और उनकी योग्यता, काम, प्रकाशन भी जगजाहिर हैं।

इंग्लैंड और यूरोप के दूसरे देशों की नौकरशाही में इसकी शुरुआत चार दशक पहले ही हो गई थी और इसीलिए वहां की व्यवस्थाएं उतनी तंगहाल नहीं हुईं जितनी कि भारतीय। अमेरिकी अर्थशास्त्री जेके गैलब्रैथ के शब्दों में भारत की नौकरशाही दुनिया की सबसे भ्रष्ट और सुस्त नौकरशाही है। प्रशासनिक सुधार आयोग, सातवें वेतन आयोग, सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी और सिफारिशों के बावजूद भी भारतीय नौकरशाही में वे अपेक्षित सुधार नहीं आ पाए जो इतने विशाल देश के विकास के रथ को गति दे सकें।

हालांकि इससे पहले भी सचिव आदि पदों पर ऐसी नियुक्तियां यदाकदा होती रही हैं। जैसे कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह आहलूवालिया की वित्त मंत्रालय में, नंदन नीलेकणी की सूचना प्रौद्योगिकी में नियुक्ति हुई थी। इसके अलावा भी पेट्रोलियम सचिव से लेकर विज्ञान मंत्रालय आदि में कई विशेषज्ञों की पूर्व में नियुक्तियां हुई हैं, लेकिन एक नियमित नीति और व्यवस्था के तहत ऐसा पहली बार हुआ है। अर्थात मीडिया में विज्ञापन देना, आवेदन मंगाना और संघ लोक सेवा आयोग को इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए अनुरोध करना पहली बार हुआ है। सभी नियमों को अपनाते हुए लेटरल एंट्री प्रशासनिक सुधार की तरफ संभवत: पहला कदम बन सकता है।

परंपरागत नौकरशाही के लिए यह इशारा है कि यदि टिके रहना है तो सक्षम होना पड़ेगा और उस ज्ञान-विज्ञान की भी नवीनतम जानकारी रखनी होगी जिस पर आज दुनिया चल रही है। बाहर से आने वाले भी इस व्यवस्था को समझ पाएंगे कि एक बहुभाषी जटिल देश में कितने अवरोधों के बीच रास्ता निकालना पड़ता है। मौजूदा नौकरशाही और बाजार में उपलब्ध मेधावी पीढ़ी, दोनों को ही देश के विकास और व्यवस्था में सुधार के लिए उपयोग में लेने की जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी नियुक्तियां किसी विचारधारा, वंशवाद, क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर अपनी पहचान बनाएंगी।

 (लेखक शिक्षाविद एवं पूर्व प्रशासक हैं)