[ विजय कुमार चौधरी ]: केरल के हालात ने एक बार फिर पूरे देश का ध्यान बाढ़ की समस्या की ओर आकर्षित किया। केरल के लोगों को हाल के समय में पहली बार इस तरह की भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ा। जिन क्षेत्रों में बाढ़ नियमित रूप से नहीं आती है वहां अप्रत्याशित बाढ़ आने से जनजीवन अपेक्षाकृत ज्यादा भयाक्रांत होता है। बाढ़ वाले इलाकों में तो बाढ़ प्रबंधन एवं अन्य कार्यों हेतु कोई न कोई मानक प्रक्रिया निर्धारित रहती है, परंतु केरल जैसे प्रदेश में तैयारी के अभाव में बाढ़ की भयावहता अधिक हो जाती है। ऐसी अप्रत्याशित बाढ़ के बाद उसके कारणों एवं उससे होने वाले नुकसान के संबंध में लोक विमर्श शुरू होना स्वाभाविक है।

आजकल पारिस्थितिकी संतुलन, पर्यावरण सुरक्षा और जल संरक्षण अभियान में जुटे लोगों की सक्रियता बढ़ी हुई देखी जा सकती है। केरल की बाढ़ पर अनेक पर्यावरणविदों एवं जल संरक्षणवादियों के कई तरह के विचार पढ़ने-सुनने को मिल रहे हैं। उनकी आम राय है कि प्रकृति की सत्ता के साथ खिलवाड़ के कारण पर्यावरण संतुलन बिगड़ा। उनका यह भी कहना है कि उपेक्षा के चलते तालाब और दूसरे प्राकृतिक जलस्नोत नष्ट होने के परिणामस्वरूप ही वर्षा जल का संचयन नहीं हो पा रहा है और भू-गर्भ जल का पुनर्भरण नहीं हो रहा है। इससे भू-गर्भ जलस्तर लगातार नीचे जाता है और पानी की उपलब्धता कठिन हो जाती है। केरल की बाढ़ पर यह भी कहा जा रहा है कि विकास योजनाओं को सुरक्षित करने हेतु नदियों पर जो बांध बनाए जा रहे हैं उनके कारण नदियों का स्वाभाविक प्रवाह बाधित हो रहा है और इसी कारण बाढ़ की स्थिति बन रही है।

बीते लगभग सौ सालों में केरल में इतनी विकराल बाढ़ पहली बार आई, लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड आदि प्रदेश तो न जाने कब से बाढ़ की विभीषिका से दो-चार होते चले आ रहे हैैं। बिहार करीब-करीब हर साल बाढ़ की विभीषिका से दो-चार होता है। यहां के कुल क्षेत्रफल का 73 प्रतिशत भाग बाढ़ बहुल क्षेत्र है। केरल के अलावा गुजरात, राजस्थान आदि में भी बाढ़ का प्रकोप देखा जा रहा है। समुद्र तटीय प्रदेशों जैसे ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में नदियों की बाढ़ के साथ-साथ समुद्री तूफान का भी खतरा बना रहता है। यदि हम बाढ़ के कारक तत्वों पर गंभीरता से विचार करें तो स्थिति उलझनपूर्ण प्रतीत होती है।

पर्यावरणविदों का मानना है कि बांध बनाकर नदी के प्रवाह को रोकना और हरित क्षेत्र में कमी आने से पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ना बाढ़ का प्रमुख कारण है। जहां तक बांध बनाकर नदी के प्रवाह को रोकने का मामला है तो बांध तो नदियों के दोनों तटों पर बनाया जाता है। उनकी मूल धाराओं को अवरुद्ध करने के लिए तो कभी किसी बांध का निर्माण होता नहीं। दोनों तरफतटबंध बना देने से नदियों का प्रवाह नहीं थमता, बल्कि बरसात में नदियों का जलस्तर बढ़ने के समय केवल कृषि भूमि या आवासीय इलाके में जल के फैलाव को रोकता है। पानी के क्षैतिज फैलाव को रोकने से तो सामान्य रूप से मूल धारा में जल प्रवाह और तेजी से होता है। इसलिए नदियों पर तटबंध बनाने से उनके प्रवाह में बाधा आने की बात सही नहीं। यह अवश्य सही है कि आवासीय इलाकों एवं कृषि क्षेत्रों से परंपरागत जल निकासी व्यवस्था में छेड़छाड़ के साथ अतिक्रमण एवं अवैध निर्माण से जल निकास मार्ग बाधित होता है और जल जमाव की स्थिति बनती है।

हरित क्षेत्र में कमी के पीछे अनावृष्टि ही मूल कारण हो सकता है। हरित क्षेत्र बढ़ाने का मकसद आधिकारिक रूप से यही है कि वन क्षेत्रों के बढ़ने से अच्छी बारिश होती है। यह भी स्पष्ट है कि जहां भी बाढ़ आती है तो वह अनावृष्टि से नहीं, बल्कि अतिवृष्टि से आती है। यह अच्छा है कि जल संरक्षणवादी जल संग्रहण के क्षेत्रों में हो रही कमी की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैैं, लेकिन आखिर वे विभिन्न इलाकों में होने वाली लगातार असीमित बारिश से आने वाली बाढ़ की क्या व्याख्या करेंगे? ध्यान रहे बाढ़ तो हमेशा वर्षा के रूप में आकाश से गिरने वाले जल के कारण आती है, भू-गर्भ जल के कारण नहीं। भू-गर्भ जल स्तर में वृद्धि या कमी बाढ़ का कारण नहीं बनती। पिछले वर्षों में बादल फटने से उत्तराखंड में आई प्रलयंकारी बाढ़ को हम सबने देखा है। हिमालय के इस उच्चतम क्षेत्र में प्रकृति से मनुष्य जनित छेड़छाड़ की अधिक आशंका नहीं रहती। अभी तक बादलों को फटने से रोकने की कोई विधि विकसित नहीं हो पाई है।

बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोग नेपाल से आने वाली नदियों की बाढ़ से प्रभावित होते ही रहते हैैं। नेपाल का तराई क्षेत्र नदियों का उद्गम स्थल है। इस क्षेत्र में अधिक बारिश से संभावित बाढ़ को रोकना असंभव हो जाता है। केरल में भी बाढ़ असामान्य रूप से कई दिनों तक हुई लगातार अतिवृष्टि के कारण आई। अब इस अतिवृष्टि की व्याख्या हम कैसे कर सकते हैं? सामान्य रूप से शुष्क मौसम वाले क्षेत्र गुजरात, राजस्थान आदि भी असामान्य बारिश के कारण बाढ़ से प्रभावित हो जाते हैं।

बिहार में कभी-कभी तो एक ही इलाका किसी वर्ष सुखाड़ की चपेट में आता है और अगले ही वर्ष बाढ़ का दंश झेलता है। बाढ़ हमेशा खास इलाके अथवा विभिन्न नदियों के जल-ग्रहण क्षेत्र में होने वाली लगातार अतिवृष्टि के कारण आती है। अगर हम उसे रोक नहीं सकते तो बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करने के उपाय तो कर ही सकते हैैं। इस दिशा में प्रगति भी हो रही है।

केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर सूचना प्रौद्योगिकी एवं मौसम वैज्ञानिकों की मदद से संभावित बाढ़ की प्रचंडता का पूर्वानुमान लगाने की एक सूचना प्रणाली विकसित की है। इसमें किसी क्षेत्र में होने वाली वर्षा और उसका विभिन्न नदियों के जल प्रवाह पर प्रभाव का आकलन किया जाता है। जागरूकता फैलाने एवं बाढ़ के जोखिम को कम करने हेतु राष्ट्रीय एवं राज्यों के स्तर पर आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन भी किया गया है। इसके अधीन एक विशेष प्रशिक्षित बल आपदा पीड़ित क्षेत्रों में राहत एवं बचाव कार्य करते हैं। इन्हें हमने केरल में भी कार्य करते देखा है। कुल मिलाकर यह बिल्कुल प्रामाणिक है कि पर्यावरणीय सुरक्षा एवं जल संरक्षण आज हमारे लिए अनिवार्य हैं। इसके बिना आने वाले समय में मानव जीवन को अनेक तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन हम बाढ़ के लिए बांधों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते।

[ लेखक बिहार विधानसभा के अध्यक्ष हैैं ]