[ हृदयनारायण दीक्षित ]: संविधान सर्वोच्च विधि है। यहां विधि की ही सत्ता है। भारत के संविधान निर्माताओं ने अनूठा संघीय ढांचा बनाया है। यहां केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के बंटवारे का भी स्पष्ट उल्लेख है। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में केवल संघीय विधानमंडल की शक्तियां गिनाई गई हैं। स्वतंत्रता पूर्व बने भारत शासन अधिनियम, 1935 में विधायी अधिकारिता की सूची तीन भागों में थी। पहली संघीय, दूसरी प्रांतीय और तीसरी समवर्ती सूची थी। संविधान निर्माताओं ने वही व्यवस्था अपनाई। संसद यहां सर्वोच्च विधायी संस्था है। इसी प्रकार राज्यों में राज्य विधानमंडल हैं। सबके अधिकार क्षेत्र सुपरिभाषित हैं। संसद व विधानमंडल संविधान से शक्ति पाते हैं। जनहित में मौजूदा कानूनों में संशोधन, परिवर्धन और निरसन व नए कानूनों का निर्माण होता है। कानूनों का आदर प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक कर्तव्य है। अनुच्छेद 256 में ‘राज्यों की और संघ की बाध्यता’ के तहत उल्लेख है कि ‘प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग किया जाएगा जिससे संसद द्वारा बनाई गई विधियों का और ऐसी विद्यमान विधियों का, जो उस राज्य में लागू हैं, अनुपालन सुनिश्चित रहे। संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को ऐसे निर्देश देने तक होगा जो भारत सरकार को उस प्रयोजन के लिए आवश्यक प्रतीत हों।’

विधानसभा में तीनों कृषि कानूनों की प्रतियां फाड़ना संवैधानिक शपथ का उल्लंघन

संप्रति संसद द्वारा किसान हित में बनाए तीनों कानूनों का विरोध जारी हैं। आंदोलन बेशक एक लोकतांत्रिक अधिकार है, पर संविधान की शपथ लेने वाले केंद्रीय कानूनों की अवज्ञा करने और उन्हें निर्बल करने के लिए विधानसभाओं का भी दुरुपयोग कर रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में तीनों कानूनों की प्रतियां फाड़ दीं। संसद द्वारा पारित कानूनों की प्रतियां फाड़ना संसद के विशेषाधिकार का उल्लंघन है। यह कृत्य मुख्यमंत्री के पद की अवमानना भी है। संवैधानिक शपथ का भी उल्लंघन है। इसी प्रकार पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों ने केंद्रीय कानूनों को कमजोर करने के लिए अपनी विधानसभाओं से नए कानून पारित कराए। महाराष्ट्र सरकार ने भी ये कानून लागू न करने का एलान किया है। विधि व्यवस्था का पालन करना और कराना मुख्यमंत्रियों का कर्तव्य है। यह दुखद है कि वही केंद्रीय कानूनों की शक्ति क्षीण करने में संलग्न हैं।

भारतीय संविधान मुख्यमंत्रियों को किसी भी कानून की अवहेलना का अधिकार नहीं देता

हमारा संविधान मुख्यमंत्रियों या अन्य संवैधानिक पदधारकों को किसी भी कानून की अवहेलना का अधिकार नहीं देता। नि:संदेह किसी मुद्दे पर मतभिन्नता संभव है। लोकतंत्र में ऐसा होता है और होना भी चाहिए, मगर संसद से पारित किसी कानून को ही मानने से इन्कार करना खतरनाक प्रवृत्ति है। संसद द्वारा बनाई गई विधि और राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई विधि में कभी-कभी विसंगति होती है। संविधान निर्माताओं को यह अनुमान था। इसीलिए अनु. 254 में स्पष्ट व्यवस्था है कि ‘किसी राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधि का कोई हिस्सा संसद द्वारा बनाई गई विधि के किसी उपबंध के विरोध में है तब संसद द्वारा बनाई गई विधि प्रभावी होगी और राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधि से विरोध की मात्रा तक शून्य हो जाएगी।’ संविधान में यह भी कहा गया है कि राज्य विधानमंडल द्वारा समवर्ती सूची के किसी विषय पर बनाई गई विधि राष्ट्रपति की अनुमति के बाद प्रभावी रहेगी तो भी संसद उसी विषय के संबंध में विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधि का परिवर्तन, संशोधन, परिवर्धन कर सकेगी।’ मुख्यमंत्रीगण यह जानते हुए भी बहुमत का दुरुपयोग कर रहे हैं।

तीनों कृषि कानूनों को लेकर संसद व विधानमंडलों का अपमान हो रहा है

संसद और विधानमंडल सम्माननीय संवैधानिक संस्थाएं हैं। उनकी कार्यवाही का निरीक्षण न्यायालय भी नहीं कर सकते। विधायन के अधिकार क्षेत्र सुपरिभाषित हैं, लेकिन तीनों कृषि कानूनों को लेकर संसद व विधानमंडलों का अपमान भी हो रहा है। इससे एक गलत परंपरा शुरू हो रही है। इसके पहले नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को लेकर भी कई विधानसभाओं में ऐसे प्रस्ताव पारित हुए थे, जबकि नागरिकता का विषय राज्यों के विधायी क्षेत्राधिकार से ही बाहर है। फिर भी राजनीतिक कारणों से कई विधानसभाओं में ऐसे प्रस्ताव आए। यही लोग संघीय ढांचे की गुहार लगाते हैं और संघीय ढांचे पर ही आक्रमण करते रहते हैं। मूलभूत प्रश्न है सीएए और कृषि कानून जब भारत की विधि हैं तो उन्हें न मानने की घोषणा संविधान और विधि की अवज्ञा और जानबूझकर किया अपराध क्यों नहीं। संसदीय कानून की शक्ति घटाने के लिए राज्य के विधायी सदनों के दुरुपयोग का औचित्य क्या है। संविधान-संसद का अवमान राजनीतिक गतिविधि का हिस्सा नहीं होना चाहिए।

दीर्घकाल तक सत्ता में रहे दलों को किसान हित में किए गए कार्य गिनाने चाहिए

कानून की अवज्ञा बड़ा अपराध है। वहीं किसी कानून पर मतभिन्नता अस्वाभाविक नहीं है। मोदी सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का आश्वासन दिया था। यह उनका घोषित एजेंडा है। कांग्रेस सहित कुछ अन्य दलों ने अतीत में अपने घोषणा पत्रों में ऐसी ही बातें की थीं। दीर्घकाल तक सत्ता में रहे दलों को किसान हित में किए गए कार्य गिनाने चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के हित में किए गए कार्य गिनाए 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे स्वाभिमान के साथ किसानों के हित में किए गए कार्य गिनाए हैं। सरकार ने वार्ता के द्वार खोल रखे हैं, लेकिन राजनीतिक दल अपने मोदी विरोधी एजेंडे को आंदोलन का हिस्सा बनने की फिराक में हैं। वे इसी कोशिश में संविधान व उसकी संस्थाओं की गरिमा नष्ट कर रहे हैं। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने अपना पक्ष रखा, मगर कुछ वामपंथी संगठनों व दलों ने आंदोलनकारियों और सरकार के बीच समाधान में अड़ंगा लगा दिया है। किसान और केंद्र समाधान चाहते हैं, मगर मोदी विरोधी दल ऐसा नहीं चाहते।

संसद द्वारा पारित कानूनों को खारिज करने के लिए राज्य विधायिका का दुरुपयोग हो रहा

भारत संभवत: दुनिया का पहला देश है जहां संसद द्वारा पारित कानूनों को खारिज करने के लिए राज्य विधायिका का दुरुपयोग हो रहा है। जबकि संसद और विधानमंडल दोनों संस्थाओं की अपनी गरिमा है। संसद को संघीय व समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति मिली है। वहीं विधानमंडलों को अपने राज्य क्षेत्र में समवर्ती सूची व राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है। कृषि भी समवर्ती सूची में है। विधानसभाएं संसदीय कानून की शक्ति घटाने का मंच नहीं हैं। उन्हें राज्य स्तर पर विधायन के अधिकार हैं, लेकिन कुछ राज्य विधानसभा के मंच का दुरुपयोग कर रहे हैं। कुछ मुख्यमंत्रियों ने चुनौती भरे लहजे में कहा है कि वे संसद द्वारा पारित किसान कानूनों को अपने यहां लागू नहीं करेंगे। ऐसी घोषणाएं असंवैधानिक हैं। वे भारतीय राष्ट्र राज्य के संघीय ढांचे से पृथक संप्रभु देश की तरह आचरण कर रहे हैं। पूरा विषय सर्वोच्च न्यायपीठ में भी है। इस मसले पर स्वार्थी राजनीति से बचने की आवश्यकता है।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )