[ ए. सूर्यप्रकाश ]: इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक हालिया फैसला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को पुष्ट करने के साथ ही अपनी आलोचना से कुपित होने वाली सरकारों को आईना भी दिखाता है। आशा की जानी चाहिए कि यह निर्णय उन अन्य राज्य सरकारों के लिए भी नजीर बनेगा जो नागरिकों द्वारा अपनी आलोचना के बाद उन्हें सताने पर आमादा हो जाती हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला यशवंत सिंह के मामले से जुड़ा है जिनके खिलाफ पिछले वर्ष इस कारण एफआइआर हुई थी कि उन्होंने एक ट्वीट में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने प्रदेश को जंगलराज में तब्दील कर दिया है। ट्वीट में हत्या, अपहरण और फिरौती मांगने से जुड़े मामलों का हवाला भी दिया गया था। सिंह पर भारतीय दंड संहिता यानी आइपीसी की धारा 500 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66डी के तहत एफआइआर दर्ज हुई।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में सरकार की आलोचना की, एफआइआर दुर्भावना से प्रेरित है

आइपीसी की धारा 500 जहां मानहानि से जुड़ी है वहीं आइटी एक्ट की धारा 66डी का संबंध किसी की छवि विकृत कर उसके साथ धोखाधड़ी से है। इस एफआइआर के खिलाफ यशवंत सिंह ने हाई कोर्ट का रुख किया। उनके वकील ने दलील दी कि सिंह ने संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में ही सरकार की आलोचना की और सरकारी कामकाज से ऐसी असहमति कोई आपराधिक कृत्य नहीं। ऐसे में उनके खिलाफ एफआइआर दुर्भावना से प्रेरित है जिसका मकसद उन्हें सरकार के खिलाफ असहमति प्रकट करने से रोकना है। उन्होंने कहा कि चूंकि कोई अपराध ही नहीं हुआ तो एफआइआर खारिज की जानी चाहिए।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा-  ट्वीट शरारत या मानहानि की परिधि में नहीं आता

याचिकाकर्ता के खिलाफ एफआइआर और अन्य कार्रवाई को खारिज करते हुए जस्टिस पंकज नकवी और विवेक अग्रवाल की खंडपीठ ने संक्षिप्त, किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण अवलोकन प्रस्तुत किया। मानहानि के आरोपों के संबंध में न्यायाधीशों ने कहा कि कथित ट्वीट शरारत या मानहानि की परिधि में नहीं आता। उन्होंने कहा कि किसी राज्य में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति पर एतराज जताना वास्तव में हमारे संवैधानिक उदारवादी लोकतंत्र का प्रमाण है और इस अधिकार को अनुच्छेद 19 के तहत संरक्षण प्राप्त है।

कोर्ट ने कहा- आरोपित का आइटी एक्ट की धारा 66डी से कोई लेनादेना नहीं, धोखाधड़ी नहीं हुई

याचिकाकर्ता पर दूसरा आरोप आइटी एक्ट की जिस धारा 66डी के अंतर्गत लगाया था उसका संबंध किसी भी डिवाइस के जरिये व्यक्ति की छवि से छेड़छाड़ कर उसके साथ धोखाधड़ी से है जिसमें दोषी पाए जाने पर तीन साल की कैद और एक लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रविधान है। इस पर न्यायाधीशों ने कहा कि आरोपित का इस धारा से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं, क्योंकि न तो इसमें कोई धोखाधड़ी हुई और ट्वीट भी किसी दूसरे हैंडल से किया गया। यह फैसला सरकार और पुलिस-प्रशासन के लिए बड़ा झटका है। यदि राज्य का कोई नागरिक कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को लेकर मुख्यमंत्री से असंतुष्ट है तो उसके खिलाफ मानहानि का मामला दायर करना जिसमें दो साल तक की सजा हो सकती हो, कुछ अजीब लगता है। ऐसे में न्यायाधीशों ने सरकार की खिंचाई करके उचित किया।

राज्यों ने संविधानप्रदत्त नागरिकों के अधिकारों को चुनौती देना शुरू कर दिया

हालांकि यह चलन केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। कई अन्य राज्यों की सरकारों और मुख्यमंत्रियों ने भी संविधानप्रदत्त नागरिकों के इस अधिकार को चुनौती देना शुरू कर दिया है। इस सूची में बंगाल सबसे ऊपर आएगा। न केवल ऐसे मामलों की संख्या में, बल्कि आलोचकों को जेल भेजने की ऐसी परिपाटी भी उसने ही शुरू की। इस सिलसिले की शुरुआत ममता बनर्जी सरकार द्वारा वर्ष 2012 में जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर महापात्रा और उनके मित्र को गिरफ्तार करके हुई। उन पर आइटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया कि वे मुख्यमंत्री की छवि बिगाड़ने वाले कार्टून प्रसारित कर रहे हैं। इसके विरोध में महापात्रा ने राज्य मानवाधिकार आयोग में गुहार लगाई। आयोग ने उनकी गिरफ्तारी को गलत ठहराने के साथ ही राज्य सरकार को उन्हें एवं उनके मित्र को पचास-पचास हजार रुपये की क्षतिपूर्ति देने का निर्देश भी दिया। राज्य सरकार ने उसका पालन नहीं किया। परिणामस्वरूप महापात्रा को कलकत्ता हाई कोर्ट का रुख करना पड़ा। हाई कोर्ट ने न केवल आयोग के फैसले को सही बताया, बल्कि क्षतिपूर्ति की राशि को भी बढ़ाकर 75,000 रुपये कर दिया।

जयललिता ने अपनी नीति के विरोध में एक लोक गायक पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करा दिया था

तमिलनाडु ने तो इस मामले में हद ही कर दी थी जब वर्ष 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने अपनी नीति के विरोध में एक लोक गायक पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करा दिया था। इसी तरह केरल की माकपा सरकार राज्य ललित कला अकादमी के मुखिया से तब नाखुश हो गई थी जब वार्षिक अवॉड्र्स के लिए उन्होंने उस कार्टून को चुना था जिसका विषय दुष्कर्म के आरोपी एक पादरी पर केंद्रित था। ईसाई संगठनों और राज्य सरकार ने अकादमी पर इस निर्णय को लेकर पुनर्विचार के लिए दबाव बनाया, लेकिन अकादमी अपने निर्णय पर अडिग रही।

जेठमलानी के तल्ख सवालों से राजीव गांधी विचलित अवश्य होते होंगे, लेकिन उन पर कार्रवाई नहीं की

हैरानी की बात यही है कि यह सब उस देश में हो रहा है जिसके वरिष्ठ नागरिकों की स्मृति में एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परिवेश के अनुभव होंगे जहां अतीत में सत्तारूढ़ लोगों के खिलाफ और भी कड़वी बातें हुआ करती थीं। बोफोर्स घोटाले के दौर में इंडियन एक्सप्रेस तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए राम जेठमलानी के दस सवाल रोजाना प्रकाशित करता था। उन तल्ख सवालों से राजीव गांधी विचलित अवश्य होते होंगे, लेकिन उन्होंने उन पर कोई कार्रवाई नहीं की।

आलोचना से परेशान होने वाले मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीख लेनी चाहिए 

वास्तव में अपनी आलोचना से परेशान होने वाले मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीख लेनी चाहिए कि वह उन्हें अपशब्द कहने वालों से कैसे निपटते हैं। मोदी विरोधी फेसबुक-ट्विटर पर उन्हें लेकर अत्यंत आपत्तिजनक सामग्री लगाते रहते हैं। कई बार असंसदीय हैशटैग बनाकर उन्हें ट्रेंड भी कराते हैं। उनके राजनीतिक विरोधी अक्सर मर्यादा तक भूल जाते हैं।

फेसबुक-ट्विटर के दौर में नेताओं को आलोचनाओं को सहना सीखना ही होगा 

यहां तक कि मोदी को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान कहना पड़ा कि कांग्रेसी नेता उन्हें ‘गंदी नाली का कीड़ा’ तक कहते हैं। क्या इससे भी अधिक मानहानि करने वाला कुछ और लज्जाजनक हो सकता है? यदि प्रधानमंत्री कार्यालय इन लोगों के खिलाफ मुकदमेबाजी में उलझता तो उन मुकदमों को देखने के लिए एक विभाग अलग से गठित करना पड़ता। स्पष्ट है कि भारत सहित दुनियाभर के नेताओं को विशेषकर फेसबुक-ट्विटर के इस दौर में आलोचनाओं को सहना सीखना ही होगा। खासतौर से हमारे कुछ मुख्यमंत्रियों को अवश्य इस मामले में सीख लेनी चाहिए।

( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के जानकार हैं )