[ यशपाल सिंह ]: लोकतंत्र में जनता बहुत जागरूक हो चुकी है। चूंकि स्वतंत्र प्रेस और संचार माध्यमों के साथ सोशल मीडिया का व्यापक विकास हुआ है इसलिए कोई बड़ी घटना होते ही सड़क जाम, घेराव, धरना-प्रदर्शन आदि आम बात हो गई है। इसके चलते दबाव इतना बढ़ जाता है कि आजकल की सरकारें परेशान हो जाती हैं। विपक्ष किसी भी छोटी-बड़ी घटना को बहुत बड़ा मुद्दा बनाकर धरना-प्रदर्शन करने लगता है। कभी-कभी तो यह धरना-प्रदर्शन आंदोलन का रूप ले लेता है। इस आंदोलन को विपक्षी दलों के साथ सरकार विरोधी अन्य गुट भी हवा देने लगते हैैं। वे सरकार को ‘निकम्मी’ बताने के साथ पुलिस पर भी आक्षेप लगाने लगते हैैं। ऐसे में सामान्य जनभावना सरकार के खिलाफ होने लगती है।

वोट बैंक की सियासत में दबाव में रहती पुलिस

लोकतंत्र में जनता का वोट ही सब कुछ है। ऐसे में सरकारें क्या करें? पुलिस प्रमुख यानी डीजी बुलाए जाते हैैं और उनसे कहा जाता है ‘ऐसे काम नहीं चलेगा डीजी साहब। हमें फिर जनता से वोट मांगने जाना पड़ेगा। कैसे करेगें? क्या करेंगे? आप जानिए और आपका काम।’ यही बात डीजी साहब अपने मातहत आइजी और डीआइजी से कहते हैैं। आइजी और डीआइजी यही बात एसएसपी या फिर एसपी को अपनी पुलिसिया भाषा और अंदाज में समझाते हैैं। एसएसपी और एसपी यही बात थानाध्यक्षों से कहते हैैं। अब जो करना है वह थानाध्यक्ष को करना है। वह क्या करे? या तो वह लाइन हाजिर होकर मुंह लटकाए पुलिस लाइन चला जाए या फिर कुछ ऐसा करे कि अपराधी दहशत में आ जाएं और उसके क्षेत्र में अपराध करने की हिम्मत ही न कर सकें।

कानून एवं व्यवस्था में कानून गायब हो रहा, बस व्यवस्था बची

कानून एवं व्यवस्था की स्थिति आज इस हालत में पहुंच गई है कि धीरे-धीरे कानून गायब होता जा रहा है। बस व्यवस्था बची है। कोई भी सरकार व्यवस्था किसी कीमत पर ठीक रखना चाहेगी और उसे ऐसा करना भी चाहिए। चूंकि पुलिस उसके सीधे नियंत्रण में होती है अत: सारा का सारा दबाव थानेदार पर आ जाता है। न्यायिक व्यवस्था से उसे कोई विशेष मदद नही मिल पाती। अभियुक्तों को अग्रिम जमानत या फिर जमानत देर-सबेर मिल ही जाती है और ट्रायल तो फिर उनकी मर्जी से ही चलता है। प्रक्रिया के जाल में कानून इतना उलझ जाता है कि उससे निकलकर न्याय हासिल करने में दशकों लग जाते हैैं। जब मामला लंबा खिंचता है तो अक्सर न्याय वादी के पक्ष में जाने की जगह अभियुक्त के पक्ष में जाने का अंदेशा बढ़ जाता है।

लंबी कानूनी प्रक्रिया के दांवपेच के चलते अपराधी बच निकलते हें

एक जनपद में एक अपराधी ने एक दबंग की दिन दहाड़े, सरेबाजार गोली मारकर हत्या कर दी। हत्या ने जातीय रूप पकड़ लिया। वह अपराधी विधायक, सांसद, मंत्री बना। उससे संबंधित हत्या का मुकदमा सत्र न्यायालय में किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया के दांवपेच के चलते 18-20 साल लंबित रहा। सारी परिस्थितियां जब हर तरह से अनुकूल हो गईं तो केस चला और वह बाइज्जत बरी हो गया। मालूम हुआ कि सभी गवाहों को बोलेरो गाड़ी मिल गई थी। न्यायालय को साक्ष्य चाहिए। गवाहों पर न तो नैतिक दबाव रहा और न ही सामाजिक भय। प्रशासनिक इकबाल भी नहीं रहा। शायद उनके लिए इतने दिनों बाद गवाही देने का कोई अर्थ नहीं रह गया था।

फूलन देवी से जुड़ा बेहमई कांड के 38 साल बाद भी फैसला अभी तक नहीं आया

फूलन देवी ने अपने गैंग के साथ 14 फरवरी 1982 को एक गांव में दिन-दहाड़े करीब 20 लोगों की हत्या कर दी थी। चश्मदीद गवाहों की कोई कमी न थी। फूलन ने मध्य प्रदेश में सरेंडर किया। फिर राजनीति में सक्रिय होकर दो बार सांसद बनीं। अंतत: उनकी भी हत्या हुई। गैैंग के अन्य साथियों पर मुकदमा चलता रहा। इनमें से 12 मर चुके हैैं। चार बचे हुए हैैं। इस मामले में सत्र न्यायालय का जो फैसला करीब 38 साल बाद इसी छह जनवरी को आने वाला था वह कुछ दिनों के लिए टल गया है। जब सत्र न्यायालय से फैसला आएगा तो उसके खिलाफ ऊपरी अदालतों में अपील होगी। कोई नहीं जानता कि अंतिम फैसला कब आएगा? आखिर न्याय किसे मिलेगा, क्योंकि फूलन गैैंग के हाथों मारे गए कई लोगों के भाई-बंधु तो न्याय का इंतजार करते-करते मर गए।

सिर्फ पुलिस सुधारों से कुछ नहीं होगा हासिल

हैदराबाद की मुठभेड़ के बाद मुख्य न्यायाधीश महोदय ने बिल्कुल सही कहा था कि न्याय ‘बदला’ नहीं है और यह तात्कालिक भी नहीं हो सकता, लेकिन यह समझना होगा कि आखिर पुलिस तब भी एनकाउंटर क्यों करती है जब उस पर जांच, कार्रवाई की तलवार लटकती रहती है? अक्सर पुलिस सुधारों की बात होती है और यह कहा जाता है कि पुलिस सुधार होने से हालात बदल जाएंगे। हालांकि यह काम भी नहीं हुआ, जबकि उच्चतम न्यायालय ने पुलिस सुधार संबंधी निर्देश 2006 में ही दे दिए थे। मेरा मानना है कि केवल पुलिस सुधारों से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

जब तक आमूलचूल सुधार नहीं होगा तबतक कानून एवं व्यवस्था में सुधार नहीं होने वाला

जब तक आमूलचूल न्यायिक सुधार, प्रशासनिक सुधार और चुनावी सुधार नहीं होते तब तक कानून एवं व्यवस्था में सुधार नहीं होने वाला। न्यायशास्त्र की सदियों पुरानी परिभाषा को बदलना होगा। अभी पूरी कानूनी प्रक्रिया अभियुक्त के हितों की रक्षा की ओर झुकी रहती है। ध्यान दें कि चर्चित निर्भया कांड के दोषियों की सजा पर अब तक अमल नहीं हो सका है, जबकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आए कई वर्ष हो चुके हैैं।

नरसंहार करने वाले जब सांसद बनेंगे तो समाज में क्या संदेश जाएगा?

वास्तव में न्यायपालिका को प्रोएक्टिव होने की आवश्यकता है। अगर फूलन देवी जैसे लोग नरसंहार करने के बाद भी सांसद बनेंगे तो समाज में क्या संदेश जाएगा? ‘जब तक सजा न मिले, व्यक्ति निर्दोष है’ यह सिद्धांत भी विचारणीय है और खासकर जनप्रतिनिधियों के मामले में। जब सजा मिलते-मिलते कई दशक लग जाते हैैं तो फिर इस सिद्धांत का क्या अर्थ रह जाता है?

न्याय मिलने की समय सीमा होनी चाहिए

न्याय मिलने की भी एक समय सीमा होनी चाहिए। न्याय समयबद्ध हो। पूरी अपराधिक न्यायिक प्रक्रिया ने पुलिस को अविश्वसनीय मान लिया है, जबकि विवेचक ही केस की सच्चाई जानता है। कोई पुलिस वाला गलत गवाही दे या साक्ष्य पेश करे तो सख्त सजा दी जाए, लेकिन पूरी पुलिस को अविश्वसनीय मान लेना कहां तक उचित है? कानून एवं व्यवस्था के मामले में समग्रता से अत्यंत गहन विचार की आवश्यकता है।

पुलिस को जनता और जनप्रतिनिधियों का दबाव झेलना ही पड़ता है

मुश्किल यह है कि जो विचार कर सकते हैैं उनकी कोई सुनता नहीं और जिनकी सुनता है उनके पास समय नहीं। न्याय मिला या नहीं, इस पर वोट नहीं मिलता। व्यवस्था नियंत्रित हो, इस पर जरूर सरकार की छवि बनती अथवा बिगड़ती है। पुलिस को जनता और जनप्रतिनिधियों का दबाव झेलना ही पड़ेगा। उसे न्यायपालिका की तरह वैधानिक सुरक्षा प्राप्त नहीं है। सारी समस्या का समाधान मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति में ही निहित है। जिन देशों ने कानून का राज कानून के दम पर स्थापित किया वे ही आज विकसित देश हैैं। हमें भी वही राह पकड़नी होगी।

( लेखक उत्तर प्रदेश के डीजीपी रहे हैैं )