[सृजन पाल सिंह]। पिछले दिनों पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विष्णु तिवारी नामक एक व्यक्ति को दुष्कर्म के आरोप से बरी करते हुए निर्दोष करार दिया। विष्णु 23 साल का था जब उसे गिरफ्तार किया गया था। उसे उसकी आजादी लौटाने में देश के न्यायिक तंत्र को पूरे दो दशक लग गए। इस दौरान उसने अपनी जिंदगी में अहमियत रखने वाले सभी लोगों को खो दिया, मगर हमारी न्याय प्रणाली में अत्यधिक देरी का विष्णु ही एकमात्र उदाहरण नहीं है। साल 2006 में भारत ने एक इतिहास ही बनाया, जब पता चला कि उन्नाव के शंकर दयाल ने मुकदमे की सुनवाई के इंतजार में 45 साल जेल में बिता दिए थे। उस पर चाकू से किसी पर वार करने का आरोप था और दोषी पाए जाने पर अधिकतम तीन साल की सजा हो सकती थी। कुछ ऐसा ही फैजाबाद के जगजीवन राम यादव के साथ हुआ। जगजीवन ने चार दशक सिर्फ इस कारण जेल की सलाखों के पीछे बिता दिए, क्योंकि अधिकारियों से उनके कागजात ‘गुम’ हो गए थे।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बताया है कि देश में करीब 67 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। इनमें से एक बड़ी संख्या उनकी होगी, जिन्हें शायद निर्दोष पाया जाएगा। सारे विचाराधीन कैदियों में यह बात आमतौर पर देखी जाती है कि वे गरीब, युवा और अशिक्षित होते हैं। शायद सबसे बड़ा जोखिम गरीबी के कारण पैदा होता है, जो दो तरह से चोट करती है। एक, आर्थिक रूप से पिछड़े लोग कानूनी रूप से असहाय हो जाते हैं, क्योंकि उनके पास जेल जाने से बचाने वाली कानूनी लड़ाई के लिए पैसे नहीं होते। दूसरे, अगर जमानत मिल भी गई तो कई बंदी जमानत की रकम चुका नहीं पाते।

कुछ ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता 

ऐसे में कुछ ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है, ताकि यह व्यवस्था अधिकतम संख्या में नागरिकों को न्यायिक उपचार सुलभ कराने में सक्षम हो सके। सबसे पहले तो किसी व्यक्ति को दोषी ठहराए बिना जेल में रखे जाने की एक समय सीमा होनी चाहिए। इस समय सीमा में अपराध की प्रकृति के अनुसार बदलाव हो, लेकिन किसी भी परिस्थिति में यह अवधि अनिश्चित नहीं हो सकती है।

सरकार को उन मामलों में अपनी जिम्मेदारी को करना होगा स्वीकार

इसके अलावा एक ट्रैकिंग प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है, जो कानून लागू करने वाली संस्थाओं और कर्मियों पर आधारित आंकड़ों का विश्लेषण कर यह बताए कि उनकी ओर से सलाखों के पीछे भेजे गए लोगों में से कितने आखिर में निर्दोष साबित हुए? ऐसी कानूनी एजेंसियों की पहचान होनी चाहिए और उनके खिलाफ कार्रवाई भी होनी चाहिए, जो अपनी ताकत का दुरुपयोग करती हैं। सरकार को उन मामलों में अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, जिनमें अंतहीन सुनवाइयों के कारण जिंदगियां जेलों में सड़ गईं।

सरकार उनसे न सिर्फ माफी मांगे, बल्कि मुआवजा भी दे

भारत में जितने भी विष्णु, शंकर दयाल या जगजीवन हैं, सरकार उनसे न सिर्फ माफी मांगे, बल्कि मुआवजा भी दे, क्योंकि ऐसे मामलों में मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचार का अधिकार) के तहत सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाने में अक्षम साबित होती है। अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी ऐसे कानून लागू करने वाले देशों में शामिल हैं, जहां किसी व्यक्ति के साथ अन्याय होने पर सरकार को उसे मुआवजा देना पड़ सकता है। हमें भी अपने देशवासियों की स्वतंत्रता का महत्व समझना होगा।

सरकार समय पर कानूनी प्रक्रिया पूरी करने में रही विफल

हर उस व्यक्ति को सरकार से मुआवजा मिलना चाहिए जिसे न्यायिक हिरासत में एक साल बिताने के बाद निर्दोष पाया जाता है, क्योंकि सरकार समय पर कानूनी प्रक्रिया पूरी करने में विफल रही। इस सबके अलावा भारत को अपनी न्याय प्रक्रिया को इस प्रकार बदलने की आवश्यकता है कि उस पर आरोपित की आर्थिक स्थिति से कोई अंतर न आए। अगर किसी आरोपित के पास जमानत के पैसे नहीं हैं तो सरकार उसकी र्आिथक मदद करे या जमानत हासिल करने के लिए उसे ऋण उपलब्ध कराए। गरीबी के कारण किसी को जेल में नहीं रखा जा सकता। सरकार को उन वकीलों के प्रदर्शन का पैमाना भी तय करना चाहिए, जिनकी सेवा संविधान के अनुच्छेद 39ए के अंतर्गत गरीब आरोपितों को कानूनी मदद देने के लिए ली जाती है। करदाताओं के पैसे से वेतन पाने वाले ऐसे वकीलों का प्रदर्शन जगजाहिर होना चाहिए।

सजा और सुधार के अन्य तरीकों को भी करना होगा विकसित 

हमें तकनीक की भी सहायता लेनी चाहिए। किसी को जेल भेजने की वजह यह होती है कि वह कानूनी प्रक्रिया से बचकर न भागे और आगे भी अपराध न करे। आजकल डिजिटल तकनीक से लैस कई ऐसे उपकरण उपलब्ध हैं जिन्हें शरीर में पहना जा सकता है। जैसे कि टखने के रिंग, जो जीपीएस से जुड़े होते हैं और उन्हें निकालना असंभव होता है। ये लोगों को जेल में डालने का एक बेहतरीन विकल्प हो सकते हैं। आज जब देश की जेलों में कैदियों की संख्या 119 प्रतिशत है, तब इनके जरिये जेलों में भीड़ को कुछ कम करने में मदद मिलेगी। हमें महज लोगों को जेलों में डालने के बजाय सजा और सुधार के अन्य तरीकों को भी विकसित करना होगा।

कई देशों में छोटे-छोटे अपराधों के लिए अनिवार्य सामाजिक कार्य को सजा के रूप में मान्यता मिली है। हाल में भारत में कई लोगों को सार्वजनिक जगहों पर मास्क न पहनने की वजह से जेल भेज दिया गया। क्या इसके बजाय हम इन छोटे अपराधों के लिए लोगों से पब्लिक पार्क की नियमित सफाई जैसे सामाजिक कार्य नहीं करा सकते थे? भारत में लगभग चार लाख विचाराधीन कैदी हैं, जिनमें से कई अवश्य ही निर्दोष होंगे। अन्याय का शिकार होने वाले ऐसे लोगों का मुद्दा ज्वलंत होना चाहिए। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। ऐसी सरकारी व्यवस्था निरर्थक होती है, जो न्याय न दे सके और देरी से मिला न्याय अन्याय ही होता है।

 

(पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम के सलाहकार रहे लेखक कलाम सेंटर के सीईओ हैं)

[लेखक के निजी विचार हैं]