[प्रणव सिरोही]। Infrastructure Development in India एक ऐसे दौर में जब अर्थव्यवस्था सुस्ती की शिकार है तब सरकार द्वारा इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी बुनियादी ढांचे पर अगले पांच वर्षों के दौरान 102 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की योजना किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं। नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन यानी एनआइपी पर गठित कार्यबल की रिपोर्ट पर सरकार ने यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया है। इसमें संदेह नहीं कि यह कदम अर्थव्यवस्था को तेजी देने का काम करेगा, परंतु इसे मूर्त रूप देने की राह में तमाम चुनौतियां भी हैं। इसके तहत अगले पांच वर्षों के दौरान निवेश के लिए जो लक्ष्य तय किया है वह बीते छह वर्षों के दौरान बुनियादी ढांचे पर निवेश हुए 51 लाख करोड़ रुपये के दोगुने से भी अधिक है।

प्रस्तावित योजना में केंद्र और राज्य सरकारों को 39-39 प्रतिशत तो शेष 22 प्रतिशत निवेश निजी क्षेत्र को करना होगा। इसके लिए ऊर्जा, सड़क निर्माण, रेलवे, शहरी विकास, स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे प्रमुख क्षेत्रों को चिन्हित किया है। हालांकि इन योजनाओं में से 42 प्रतिशत पर अमल शुरू भी हो चुका है, वहीं 19 प्रतिशत का खाका तैयार है जबकि 31 प्रतिशत योजनाओं की अभी तक संकल्पना ही सामने आई है। जहां तक इससे होने वाले फायदों की बात है तो यह किसी से छिपा नहीं है कि देश का बुनियादी ढांचा अभी उस स्थिति में नहीं जो आर्थिक संभावनाओं को पूरी तरह भुनाने में मददगार हो सके।

एक अनुमान के तहत वर्ष 2030 तक भारत को बुनियादी ढांचा क्षेत्र में 4.5 ट्रिलियन डॉलर के निवेश की जरूरत होगी। इस कड़ी में सरकार की यह कोशिश न केवल कई क्षेत्रों को व्यापक लाभ पहुंचाएगी, बल्कि इससे मांग को भी सहारा मिलेगा। जैसे स्टील एवं सीमेंट जैसे बुनियादी उद्योगों में मांग जोर पकड़ेगी तो कुशल एवं अकुशल श्रमिकों के लिए भी रोजगार के तमाम अवसर सृजित होंगे। यानी तय है कि सरकार की यह पहल कई तरह से फलदायी होने जा रही है। फिर भी मौजूदा माहौल में इसे सिरे चढ़ाना टेढ़ी खीर मालूम पड़ता है। इसकी तमाम वजह हैं। सबसे पहली तो वित्तीय संसाधन जुटाने की है। इसमें केंद्र और राज्यों को मिलकर 78 प्रतिशत अंशदान करना है।

फिलहाल कायम सुस्ती के कारण सरकारी कर संग्रह दबाव में है। वहीं निजी क्षेत्र पहले से ही कर्ज के बोझ तले दबा है। सुस्त मांग को देखते हुए वह भविष्य में निवेश को लेकर सशंकित भी है। यदि निजी क्षेत्र निवेश के लिए तत्परता दिखाए भी तब क्या फंसे कर्जों से त्रस्त बैंक इन परियोजनाओं के लिए कर्ज उपलब्ध कराने के लिए तैयार होंगे। यह सवाल बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के स्वरूप को देखते हुए और मौजूं है, क्योंकि ये अमूमन लंबी अवधि में पूरी होती हैं तो प्रतिफल भी देर से मिलना शुरू होता है। यदि किसी तरह टल जाएं तो उनकी लागत भी लगातार बढ़ती जाती है। ऐसे में चाहे निजी निवेशक हो या ऋणदाता बैंक, कोई भी अपनी मुश्किलें बढ़ाना नहीं चाहेगा।

यहां यह भी याद दिलाना होगा कि गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां यानी एनबीएफसी के हालात बिगाड़ने में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को एक बड़ी हद तक जिम्मेदार माना गया। मुश्किलें आर्थिक ही नहीं, सियासी मोर्चे पर भी हैं। बदलते राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए परियोजनाओं पर सहमति बनाना आसान नहीं होगा। इसके संकेत जीएसटी परिषद की पिछली बैठक में दिखे भी जहां पहली बार मतदान की नौबत आई। कई राज्यों में सरकारें बदलने से नीतिगत अनियमितता भी ऐसी परियोजनाओं की राह अटकाएगी। जैसे मोदी सरकार की बुलेट ट्रेन परियोजना पर महाराष्ट्र में सरकार बदलते ही संकट के बादल मंडराने लगे। आंध्र की नई राजधानी अमरावती को लेकर भी जगन सरकार फैसले पलट रही है। यह निवेशकों के लिए अच्छे संकेत नहीं जो इन परियोजनाओं पर दांव लगाना चाहेंगे।

चूंकि यह केंद्र की पहल है तो इसकी राह में आने वाली बाधाएं दूर करने का बीड़ा भी उसे ही उठाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र अपना खर्च बढ़ाए। अभी कुल सरकारी व्यय में बुनियादी ढांचे पर 0.83 फीसद खर्च हो रहा है। वहीं कर राजस्व में अपेक्षित वृद्धि न होने पर सरकार चाहे तो अपनी परिसंपत्तियों का मॉनिटाइजेशन यानी उन्हें भुनाकर या वास्तविक रूप से विनिवेश की गाड़ी आगे बढ़ाकर इस खर्च के लिए बंदोबस्त कर सकती है। इसके अलावा राज्यों को भरोसे में लेकर उनके साथ व्यावहारिक परियोजनाओं पर आगे बढ़ने की राह केंद्र को तलाशनी होगी।

निजी निवेश को प्रोत्साहन देने के लिए भी अनुकूल परिवेश बनाना होगा। इसके लिए विशेष उद्देश्य इकाई यानी एसपीवी के गठन का विकल्प भी उचित होगा। परियोजनाओं की नियमित रूप से निगरानी, समीक्षा और आवश्यक हस्तक्षेप भी उतना ही जरूरी होगा। सरकार को सिंगल विंडो क्लीयरेंस की व्यवस्था भी करनी होगी, क्योंकि कई परियोजनाओं को लेकर कुछ मंत्रालयों या विभागों में ही गतिरोध पैदा हो सकता है। ऐसी स्थिति से बचने के पीएमओ को कमान खुद अपने हाथ में लेनी होगी ताकि सही तालमेल सुनिश्चित हो। इस मामले में मोदी सरकार चाहे तो पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार से दो सबक ले सकती है।

पहला तो यही कि मनमोहन सरकार जब नीतिगत जड़ता के आरोपों से परेशान हो गई तो उसने बुनियादी ढांचे की कुछ अटकी हुई परियोजनाओं की बाधाएं दूर करने का जिम्मा प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रमुख सचिव पुलक चटर्जी की अगुआई वाली एक समिति को सौंप दिया। दूसरा सबक यही हो सकता है कि संप्रग सरकार ने यह कदम उठाने में इतनी देर कर दी कि उसका मनवांछित लाभ नहीं मिल सका। इससे सीख लेते हुए मोदी सरकार यह अवश्य विचार करे कि उसकी यह योजना भले ही कितनी अच्छी और भली मंशा वाली हो, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई योजना तभी सफल हो सकती है जब उस पर क्रियान्वयन भी उतना ही बेहतर हो।