[ केसी त्यागी ]: आज यदि इंद्र कुमार गुजराल जीवित होते तो सौ बरस के हो चुके होते। उनका जीवन भारत के पिछले 60 वर्षों की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं का दर्पण है। गुजराल राजनीतिक घटनाक्रम को डायरी की शक्ल देने में माहिर थे। उनकी डायरी में दर्ज बातों को देखकर यह सहज ही समझा जा सकता है कि भारतीय राजनीति किन पड़ावों से गुजरी है। उनके जीवन की ये घटनाएं बताती हैैं कि उन्होंने अपने तरीके से दबाव की राजनीति का सामना किया। उन्हें दबाव की राजनीति से जूझने की कला बखूबी आती थी। शालीनता, स्पष्टवादिता के साथ सभ्य समाज की मर्यादाओं में रहकर उन्होंने अपने कर्तव्यों को अंजाम दिया।

गुजराल की प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में हुई

उनका जन्म 4 दिसंबर 1919 को वर्तमान पाकिस्तान में झेलम के निकट हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में हुई। सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध गुजराल को बचपन में ही उर्दू और हिंदी साहित्य के नामचीन लोगों की संगत मिली। उस समय के दिग्गज शायरों में शुमार फैज अहमद फैज से उन्हें अंग्रेजी पढ़ने का सौभाग्य मिला। प्रारंभिक दिनों में वह वामपंथी आंदोलनों और विचारों से भी प्रभावित रहे। साहिर लुधियानवी, किशन चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, भीष्म साहनी, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी उनके हमउम्र भी थे और हमख्याल भी।

इंदिरा गांधी के विश्वस्त साथियों में शुमार हुए गुजराल

बंटवारे के बाद उनका पूरा परिवार भारत लौटा और दिल्ली को अपनी कर्मस्थली बनाया। दिल्ली में छिटपुट कामकाज के अलावा कांग्रेसी नेताओं से उनके संबंध बढ़ते गए। इंदिरा गांधी और सुचेता कृपलानी से करीबी का नतीजा यह रहा कि 1964 में गुजराल को राज्यसभा के लिए चुना गया। तब इंदिरा गांधी के करीबी लोगों में उमाशंकर दीक्षित, दिनेश सिंह गिने जाते थे। इन्हीं दिनों यशपाल कपूर ने उनसे कहा था कि आप संवेदनशील और सभ्य स्वभाव के हैं इसलिए श्रीमती गांधी से आपकी ज्यादा नहीं निभेगी। वरिष्ठ मंत्री सी. सुब्रमण्यम ने भी उन्हें नसीहत देते हुए कहा कि श्रीमती गांधी के करीब जाने की कोशिश मत करना, नहीं तो बाहर कर दिए जाओगे। हालांकि सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनकर वह श्रीमती गांधी के विश्वस्त साथियों में शुमार हुए। वैसे उन्होंने बाद में यह स्वीकार किया कि इंदिरा जी का व्यक्तित्व काफी जटिल था जिससे उन्हें कई बार दो-चार होना पड़ा।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी के कारण इंदिरा जी की नाराजगी का शिकार होना पड़ा

1971 के लोकसभा चुनाव में श्रीमती गांधी को भारी बहुमत मिला। इसके बाद गुजराल को आवास मंत्री बनाया गया। इसके एक सप्ताह बाद ही श्रीमती गांधी ने उन्हें डांट लगाई कि तुमने अभी तक दिनेश सिंह को सरकारी आवास से निकाला क्यों नहीं? उन्हें धीरेंद्र ब्रह्मचारी के कारण भी इंदिरा जी की नाराजगी का शिकार होना पड़ा। ब्रह्मचारी श्रीमती गांधी के योग गुरु थे। वह गोल डाकखाने के पास अपने आश्रम के लिए अतिरिक्त भूमि चाहते थे। गुजराल ने जब यह आवंटित करने में असमर्थता जताई तो ब्रह्मचारी ने उन्हें धमकी भरे लहजे में चेतावनी दी। कुछ दिनों बाद जब मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ तो उमाशंकर को उनका कैबिनेट मंत्री बना दिया, लेकिन वह भी आश्रम के लिए अतिरिक्त भूमि की व्यवस्था नहीं करा पाए। इसके कुछ समय बाद दोनों मंत्रालय से हटा दिए गए और कुछ समय बाद पता चला कि ब्रह्मचारी को अशोक रोड पर अतिरिक्त भूमि दे दी गई।

वह उसूलों पर डटे रहे, भले ही राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ा

ऐसे घटनाक्रमों ने गुजराल को एक सिद्धांतवादी नेता के रूप में गढ़ने का काम किया। हालांकि कई अवसरों पर उन्हें समझौतावादी न होने पर राजनीतिक तौर पर नुकसान भी उठाना पड़ा, लेकिन वह उसूलों पर डटे रहे।

तुम्हारा राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त हो चुका है अब तुम मॉस्को चले जाओ

आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी जेपी आंदोलन से भयभीत भी थीं और परेशान भी। सूचना एवं प्रसारण मंत्री होने के नाते गुजराल से उनकी अपेक्षा यह थी कि वह सरकार का मुखौटा बनकर रहें। गुजराल उस दौर को आपत्तिजनक घटनाक्रम के रूप में देखते थे। उनकी डायरी में दर्ज है कि अप्रैल 1976 में एक दिन श्रीमती गांधी ने किस तरह उनसे कहा कि तुम्हारा राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त हो चुका है और अब तुम मॉस्को चले जाओ।

गुजराल ने जब इंदिरा से पूछा- क्या आप मुझसे नाराज हैं

गुजराल ने अनिच्छा जताते हुए सोवियत संघ के करीबी नेताओं जैसे नुरूल हसन, चंद्रजीत यादव, शशि भूषण आदि का नाम सुझाया और यह भी पूछा कि क्या आप मुझसे नाराज हैं, जो मुझे मॉस्को भेज रही हैं? इस पर श्रीमती गांधी ने कहा कि आप गलत समझ रहे हैं। मैं जिससे नाराज होती हूं उसे मॉस्को नहीं फिजी भेजती हूं। मॉस्को में बतौर राजदूत उन्होंने सोवियत संघ को भारत के और करीब लाने का प्रयास किया। बाद में वह वीपी सिंह सरकार में विदेश मंत्री बने। इसके बाद चंद्रशेखर ने भी गुजराल को विदेश मंत्री बनाने का प्रस्ताव भेजा, जिसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया।

जब लालू ने गुजराल को अपमानित-प्रताड़ित करने का प्रयास किया

1992 में वीपी सिंह उन्हें राज्यसभा में भेजने की संतुति कर चुके थे। मंडल लागू होने के बाद लालू यादव जनता दल में निर्णायक नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे और बिहार से गुजराल का राज्यसभा में नामांकन उन्हीं की कृपा पर निर्भर था। लालू ने राज्यसभा के लिए किस तरह उन्हें अपमानित-प्रताड़ित करने का प्रयास किया, यह भी उनकी डायरी में लिखा है। उन्हें बिहार भवन और पटना के कई चक्कर काटने पड़े। तब उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब लालू ने कुछ विधायकों को खरीदने के लिए उनसे पैसे का इंतजाम करने को कहा। इससे पहले लालू उन्हें पार्टी की पसंद का आखिरी उम्मीदवार बनाकर काफी असहज स्थिति में रखे हुए थे। तमाम मशक्कत के बाद लालू उन्हें राज्यसभा भेजने के लिए प्रयत्नशील हुए।

चारा घोटाले में लालू के खिलाफ सीबीआइ जांच पर गुजराल डटे रहे

गुजराल के सामने इससे भी विषम परिस्थिति तब पैदा हुईं जब वह देवगौड़ा के बाद प्रधानमंत्री बने। पहली चुनौती उन्हें लालू यादव के विरुद्ध चारा घोटाले में उनकी संलिप्तता की सीबीआइ जांच को लेकर सामने आई। लालू ने उनसे राहत दिलाने को कहा, लेकिन गुजराल नहीं माने। लालू ने उनसे बिहार के राज्यपाल एआर किदवई को चार्जशीट दाखिल करने की मंजूरी देने में देरी के लिए भी कहा, लेकिन गुजराल कोई समझौता नहीं करना चाह रहे थे। आखिर लालू के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हुई।

द्रमुक मंत्रियों को हटाने की मांग गुजराल ने की खारिज, आज वही द्रमुक कांग्रेस का सहयोगी दल है

जब राजीव गांधी हत्याकांड को लेकर गठित जैन आयोग के खुलासे में अपरोक्ष रूप से द्रमुक नेताओं की संलिप्तता दर्शाई गई तो कांग्रेस नेताओं ने द्रमुक कोटे के मंत्रियों को हटाने की जिद पकड़ ली। गुजराल द्वारा इसे अस्वीकार करने के बाद उनकी सरकार गिर गई। आज वही द्रमुक कांग्रेस का सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी दल है।

( लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं )