New National Education Policy: नई शिक्षा नीति के तहत भारतीय शिक्षा प्रणाली को मिलेगा नया आयाम
New National Education Policy 2020 नई शिक्षा नीति भारत की शिक्षा प्रणाली को बदलने और मजबूत करने की काफी क्षमता रखती है।
इंदौर, प्रो.हिमांशु राय। New National Education Policy 2020 सरकार के शिक्षा संबंधी निर्णयों और प्रयासों के लिए नई रूपरेखा तैयार करने वाली राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 चर्चा में है। भारतीय शिक्षा प्रणाली में आने वाले इस बड़े परिवर्तन से आशाओं, सपनों और आकांक्षाओं की भी लहर उठी है। वर्ष 1986 की पिछली नीति (जिसे 1992 में संशोधित किया गया था) के 34 वर्षो के अंतराल के बाद प्रभावी रूप से जारी भारत की इस तीसरी शैक्षिक नीति का उद्देश्य भारतीय शिक्षा की संरचना को और अधिक गतिशील, लचीला और प्रासंगिक बनाना है।
अगर ये बदलाव सफलतापूर्वक लागू किए जाते हैं, तो भारत में शिक्षा के भविष्य के लिए मजबूत नींव साबित हो सकते हैं। वर्ष 2019 के एनईपी मसौदे से संकलित और विभिन्न हितधारकों व शिक्षा विशेषज्ञों के सुझावों से बनी यह नीति अपने आप में अलग है। यह नीति शिक्षा एक मजबूत और प्रासंगिक प्रणाली के विकास के लिए भी उम्मीद लेकर आई है। यह केवल तभी संभव हो सकेगा जब सरकार इस नीति में लिखी सभी योजनाओं को लागू कर पाए।
इस नीति को लेकर आज अनेक तरह की बातें हो रही हैं। कई कारणों से यह विषय चर्चा में है। ऐसे में इस नीति का विश्लेषण करने की जरूरत है, ताकि इसे लागू करने में सामने आने वाली चुनौतियों के साथ-साथ अवसरों का भी पता लगाया जा सके और यह समझा जाए कि कैसे यह भारतीय शिक्षा प्रणाली के भविष्य को बना या बिगाड़ सकती है। इसमें हम सबसे पहले इसके सकारात्मक पहलुओं पर चर्चा करते हैं, जो इस प्रकार हैं:
बहु-आयामी शिक्षा और स्वायत्तता: मल्टी-डिसिप्लिन व रिसर्च को बढ़ावा मिलने से उच्च शिक्षा संस्थान और व्यावसायिक शिक्षा संस्थान विभिन्न वैकल्पिक पाठ्यक्रमों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में सीखने के अवसर प्रदान करने वाले समग्र संगठन के रूप में विकसित होंगे। इससे तथाकथित पुराने स्ट्रीम यानी तय विषयों में पढ़ने वाली सीमाओं को तोड़ा जा सकेगा। यह जो पढ़ा, उसे लागू करने के लिए प्रैक्टिकल एजुकेशन को बढ़ावा देने और इंटर-डिसिप्लिन व अन्य क्षेत्रों को तलाशने के लिए एक आवश्यक कदम है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तत्व स्वायत्तता है जो शैक्षणिक संस्थानों को वास्तव में विश्व स्तरीय बनने का अवसर देगा। उदाहरण के लिए आइआइएम और आइआइटी को विश्व स्तर के प्रासंगिक कार्यक्रमों को शुरू करने, डिग्री और डिप्लोमा को परिभाषित करने और स्वतंत्र अनुसंधान को आगे बढ़ाने की अनुमति है। ये ऐसे कदम हैं जो उच्च शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक हैं।
अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट: यह विशेष रूप से उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीति हो सकती है। वर्तमान डिग्री प्रोग्राम लंबी अवधि के हैं, विशेष रूप से कई व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में अनेक छात्र वित्तीय कारणों से पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। नए दिशानिर्देश छात्रों को क्रेडिट आवंटन की एक प्रणाली के माध्यम से शैक्षणिक अंतराल की अनुमति देकर उनकी डिग्री को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करेगा।
स्नातक पाठ्यक्रम चार साल की अवधि के होंगे जिसमें एक वर्ष में पाठ्यक्रम से बाहर होने की स्थिति में एक प्रमाण पत्र प्रदान दिया जाएगा, दूसरे वर्ष के बाद एक डिप्लोमा, तीसरे वर्ष के बाद डिग्री प्रदान की जाएगी और बाद में पाठ्यक्रम पूरा करने की सुविधा के लिए अर्जति क्रेडिट दर्ज किए जाएंगे। इस प्रकार एक छात्र द्वारा एक डिग्री पाठ्यक्रम के लिए समíपत समय के लिए उचित क्रेडिट प्रदान किया जाएगा। यहां तक कि पोस्ट-ग्रेजुएशन और पीएचडी की बाधाओं को कम करके पाठ्यक्रमों को और अधिक आकर्षक बनाया जाएगा।
शोध कार्यो को प्रोत्साहन : नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना, सभी उच्च शिक्षा संस्थानों में रिसर्च सुविधाओं को स्थापित करने के लिए डिग्री पाठ्यक्रम शुरू करना जिससे रिसर्च का अनुभव मिल सके, ऐसे कदम साबित हो सकते हैं जो रिसर्च और नवाचार को प्रोत्साहित करने की दिशा में योगदान दे सकते हैं।
मजबूत नींव का निर्माण: टेन प्लस टू स्कूल शिक्षा प्रणाली की पाठ्यक्रम संरचना में बदलाव किया जाएगा जिसमें क्रमश: पांच वर्ष का फाउंडेशन स्टेज, तीन वर्ष की तैयारी और मध्य चरण व चार साल का सेकेंडरी स्टेज होगा। मध्य चरण प्रायोगिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करेगा, जबकि सेकेंडरी स्टेज में वैकल्पिक विषयों की पसंद चुनने जैसी विशेषताएं होंगी।
इंटर्नशिप और वोकेशनल लर्निंग: मिडिल स्टेज स्कूली शिक्षा को प्रत्येक शैक्षणिक सत्र में 10 दिनों के बैग-लेस यानी बिना स्कूल बैग के दिन के रूप में माना जाएगा, जिस दौरान छात्र विशेषज्ञों द्वारा पॉटरी, कारपेंटरी आदि जैसे कौशल विकास से संबंधित व्यवसायों का प्रशिक्षण लेंगे। इस प्रकार स्कूल के दौरान इंटर्नशिप को भी प्रोत्साहित किया जाएगा और यह छात्रों के सर्वागीण विकास में मदद करेगा। स्कूली छात्रों को बेसिक कोडिंग का भी प्रशिक्षण दिया जाएगा। यहां पूर्व में उल्लेख की गई इस नीति से संबंधित कुछ गलतफहमियों को दूर करना आवश्यक है। कुछ आलोचक यह कह रहे हैं कि नई शिक्षा नीति बाल श्रम को बढ़ावा देती है। यह समझा जाना चाहिए कि व्यावसायिक कौशल पर ध्यान देना बाल श्रम नहीं है। इंटर्नशिप कार्यक्रम छात्रों के लिए सीखने का एक बड़ा स्नोत है, क्योंकि मात्र कक्षाओं में बैठ कर प्रयोगात्मक शिक्षण नहीं हो सकता है और इसे बाल श्रम से जोड़ना सही नहीं कहा जा सकता।
कहा जा रहा है कि शिक्षा महंगी हो जाएगी। नई नीति से शीर्ष 100 विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसरों को स्थापित करने की अनुमति मिलने के संदर्भ में यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा से शिक्षा कुछ समुदायों के लिए महंगी व पहुंच से बाहर हो जाएगी। यह एक गलतफहमी है, क्योंकि प्रतियोगिता से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि की संभावना होती है, और प्रतिभागी संख्या में वृद्धि के कारण लागत कम ही होगी। वैसे विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए एक नियामक ढांचा तैयार करना महत्वपूर्ण होगा, जबकि भारतीय संस्थानों को स्व-विनियमन करने और पारदर्शी शुल्क संरचना तैयार करने की आवश्यकता होगी।
कुछ लोग अकादमिक क्रेडिट बैंक के बारे में मानते हैं कि यह उच्च शिक्षा में वृद्धि दर को बढ़ाएगा। इसके विपरीत इसे छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए और एक अंतराल के बाद भी अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए लाया गया है। इसके अलावा अधिकांश छात्र अनेक बाधाओं के कारण बीच में पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर होते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी एक पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के बाद संतुष्ट नहीं होने पर छात्र नए पाठ्यक्रम को चुनना चाहते हैं। इसे भी समझा जाना चाहिए।
गौरतलब है कि नई शिक्षा नीति भारत की शिक्षा प्रणाली को बदलने और मजबूत करने की काफी क्षमता रखती है, लेकिन यह तभी प्रभावी हो सकती है जब जो लक्ष्य तय किए गए हों, जो वादे किए गए हों, उन्हें पूरा किया जाए। कहा जा सकता है कि बाधाओं का समाधान खोजते समय उचित योजना और सावधानीपूर्वक उनका कार्यान्वयन होना महत्वपूर्ण है। हमारे पास देश को दुनिया के सामने फिर से मजबूती से पेश करने का अवसर है और हमें कतई इसे खोना नहीं चाहिए।
नई शिक्षा नीति के तहत संभावित अवसरों की सुनिश्चित हो पहचान
स्किल गैप को कम करना: भविष्य में रोजगार ऐसी स्किल्स की मांग करेंगे जो वर्तमान से अलग होंगी। इसलिए मल्टी-डिसिप्लिन एजुकेशन, इंटर्नशिप और व्यावसायिक प्रशिक्षण उद्योग-शिक्षा में कौशल के अंतर को कम करने में मदद कर सकते हैं।
उभरती तकनीक का उपयोग: राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी फोरम की स्थापना शिक्षा के विभिन्न पहलुओं को बेहतर बनाने में प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने के प्रयासों को बढ़ावा दे सकती है।
गुणवत्ता में सुधार: शीर्ष विदेशी विश्वविद्यालयों द्वारा भारत में परिसरों की स्थापना और निकायों का गठन करना जो सीखने पर ध्यान केंद्रित करेंगे, और ये गुणवत्ता में वृद्धि के प्रयासों पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।
चुनौतियों का कैसे करें सामना: नई नीति को इसके विजन के लिए सराहा जा सकता है, लेकिन इसे वास्तविकता में बदलना आसान नहीं है। इसके कार्यान्वयन में बाधाएं सामने आ सकती हैं जिनका समाधान तलाशना होगा।
योजना का अभाव: यह नीति व्यय की वृद्धि के माध्यम से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करती है, लेकिन इस बारे में बहुत स्पष्टता से उल्लेख नहीं किया गया है। वर्ष 1964 में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद के खर्च का छह प्रतिशत खर्च तय किया गया था, लेकिन अभी भी इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है। भारत शिक्षा पर खर्च के मामले में 62वें स्थान पर है और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यापक योजना की जरूरत होगी।
शिक्षकों का प्रशिक्षण: इस नीति में शिक्षक प्रशिक्षण की पहल का उल्लेख किया गया है, लेकिन अभी भी इस क्षेत्र में नीति पर उचित ध्यान नहीं दिया गया है। इस नीति के लिए ऐसे शिक्षकों की जरूरत है जो इसके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक स्पष्ट योजना बना सकें।
मूल्यांकन पद्धति का विकास: हालांकि स्कूलों में मूल्यांकन की पद्धति में सुधार किया गया है, लेकिन स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए मूल्यांकन अभी भी प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं पर निर्भर करता है, जो केवल अवधारणाओं का परीक्षण करते हैं, पाठ्यक्रम के लिए कौशल या छात्र की रुचि का नहीं।
भाषा का अंतर: यद्यपि यह नीति स्कूल में क्षेत्रीय भाषाओं में सीखने की अनुमति देती है, लेकिन अंग्रेजी और गैर-अंग्रेजी सीखने वालों के बीच के अंतर को और बढ़ा सकती है और गैर-अंग्रेजी छात्रों के लिए रोजगार के अवसरों में कमी हो सकती है। इसे पूरी तरह से जांचने और फिर उसके अनुकूल कदम उठाने की आवश्यकता है।
प्रासंगिक पाठ्यक्रम: इसमें मल्टी-डिसिप्लिन प्रोग्राम को बढ़ावा दिया गया है, फिर भी वर्तमान सामाजिक संदर्भ में जेंडर, क्रॉस-कल्चरल स्टडीज और नैतिकता में अध्ययन जैसे पाठ्यक्रमों को उचित महत्व नहीं मिला है।[निदेशक, आइआइएम, इंदौर]