[सुषमा रामचंद्रन]। आपको यह जानकर शायद हैरानी हो कि वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी महज दो फीसद है। यदि भारत अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में निर्णायक भूमिका निभाना चाहता है तो उसे अपना यह स्तर बढ़ाना ही होगा। गौरतलब है कि ऐसे ज्यादातर देश जिनकी वैश्विक व्यापार में बड़ी भूमिका है, उनकी विकास दर भी उच्च है और वे अपने नागरिकों के लिए रहन-सहन का बेहतर स्तर भी सुनिश्चित करते हैं। चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इसकी मिसाल हैं कि वैश्विक व्यापार में आपकी भूमिका बढ़ने से कैसे आपके समग्र आर्थिक विकास को भी गति मिलती है।

चीन की बात करें तो निर्यात इसकी अर्थव्यवस्था का एक अहम घटक है, लेकिन यह अपने इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए भारी मात्रा में विभिन्न तरह की सामग्रियां आयात भी करता है। वहीं दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अगर बात की जाए तो उन्होंने न सिर्फ संरक्षणवाद से परहेज किया, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में बड़ी ताकत बनने के लिए क्षेत्रीय व्यापार सहभागिता के जरिये आपसी जुड़ाव भी कायम किया।

अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर ज्यादा ध्यान

यह अच्छी बात है कि भारत में भी यह अहसास बढ़ रहा है कि निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था बनने के लिए कमर कस लेना चाहिए। हाल ही में निर्यातकों के लिए जो प्रोत्साहक घोषणाएं की गईं और जिस तरह वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने भी 19-20 फीसद निर्यात वृद्धि को पुन: हासिल करने पर जोर दिया, उससे यह संकेत मिलता है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा। हालिया दौर में वैश्विक मंचों पर व्यापार के मसले जिस तरह छाए रहे, उससे भी यही रेखांकित हुआ कि दुनिया के बाजारों में हमें ज्यादा प्रतिस्पर्धी होने की जरूरत है। जहां तक भारत-अमेरिका कारोबार की बात है तो इसमें व्यापार अधिशेष की स्थिति भारत के पक्ष में है।

व्यापारिक मुद्दों पर मतभेद

राष्ट्रपति ट्रंप ने पहले हार्ले-डेविडसन मोटरसाइकिलों पर उच्च आयात शुल्क का हवाला देते हुए इस मुद्दे को उठाया जो बहुत कम संख्या में अमेरिका से आयात की जाती हैं। इसके बाद जब अमेरिका द्वारा भारत समेत कुछ विकासशील देशों को आयात शुल्क में रियायत प्रदान करने वाली जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस (जीएसपी) की सूची से बाहर कर दिया तो बात और बिगड़ गई। इससे भारत भी अनेक अमेरिकी सामानों पर उच्च आयात शुल्क लगाने को प्रेरित हुआ। लेकिन मोदी के हालिया अमेरिकी दौरे के बीच ऐसे भी संकेत मिले कि दोनों देशों में व्यापारिक मुद्दों पर मतभेद सुलझाने के लिए सकारात्मक बातचीत जारी है। अब इंतजार इसी बात का है कि दोनों के बीच ये मतभेद कब तक सुलझते हैं। वैसे यदि अमेरिका अपनी जीएसपी प्रणाली के तहत भारत को कुछ फायदा देने के लिए राजी हो जाता है तो बदले में भारत को भी उसे कुछ रियायतें देनी ही होंगी। बहरहाल भले ही भारत-अमेरिका के कारोबारी संबंध उलझे हुए हों, लेकिन भारत एक व्यापक क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) जैसे समूह की ओर कदम बढ़ा रहा है।

भारत क्षेत्रीय व्यापारिक समूह का सदस्य बने

गौरतलब है कि आरसीईपी आसियान देशों के साथ-साथ जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों का व्यापारिक समूह है। लेकिन इस समूह के साथ जुड़ने में भारत की सबसे बड़ी चिंता यह है कि कहीं हमारे बाजार में सस्ते आयातित माल (मुख्यत: चीन के) की बाढ़ न आ जाए। यदि हम इसमें शामिल होते हैं तो आयात शुल्क तो घटाने होंगे, लेकिन ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि यह विभिन्न चरणों में किया जाए, ताकि हमारे घरेलू उद्योग इस प्रतिस्पर्धा के लिहाज से तैयार हो सकें। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह इस क्षेत्रीय व्यापारिक समूह का सदस्य बने। इससे वह इनके अहम बाजारों तक पहुंच सकता है। यह सही है कि हमारे उद्योग सस्ते आयातित माल के परिदृश्य से जूझ रहे हैं, लेकिन यहां पर यह भी देखना होगा कि भारत अब तक ऐसे किसी बड़े व्यापारिक साझेदारी समूह का हिस्सा नहीं बना है। लिहाजा इसके लिए आरसीईपी में शामिल होना श्रेयस्कर होगा।

लालफीताशाही को रोका जाए

कुछ अध्ययन बताते हैं कि भारत जिन देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते में शामिल हुआ, उनके साथ भले ही हमारा व्यापार घाटा बढ़ा, लेकिन ऐसे समझौते के बगैर तो आयात और भी महंगे होते। इसके अलावा जब हमारे उद्योग नए बाजारों में अपने लिए संभावनाएं तलाश रहे हैं तो यह भारत के लिए नुकसानदेह होगा कि वह खुद को आरसीईपी जैसे क्षेत्रीय समूहों से दूर रखे। जहां तक भारतीय उद्योग-धंधों के संरक्षण की बात है तो इसके लिए आयातित सामग्रियों पर शुल्क बढ़ाने के बजाय अपने उद्योगों को वैश्विक बाजार के हिसाब से प्रतिस्पर्धी बनने में मदद करना कहीं ज्यादा उत्पादक होगा। हाल ही में कॉरपोरेट टैक्स की दरें कम करने और एक्सपोर्ट क्रेडिट बढ़ाने समेत कुछ और उपायों के साथ इस दिशा में सुधारों की शुरुआत हुई है। उद्यमियों की राह आसान करने के लिए अन्य सुधार यह हो सकते हैं कि सरकारी तंत्र की लालफीताशाही को रोका जाए और शासकीय सेवाओं के डिजिटलीकरण में तेजी लाई जाए।

इंडस्ट्रीज को इफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराना

भूमंडलीकरण के इस दौर में इसके सिवा और कोई चारा नहीं कि हम ज्यादा वैश्विक बनें। वैश्विक स्तर पर कृषि और उद्योग, इन दोनों सेक्टर्स को ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनना होगा। यदि ऐसी नीतियां बनाई जाएं, जिनसे कृषि प्रसंस्करित उत्पादों के निर्यातों में मदद मिले तो ये हमारी अर्थव्यवस्था का अहम आधार बन सकते हैं। इसी तरह इंडस्ट्रीज को समुचित इफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराना होगा, जिससे वे विदेशों के विनिर्माताओं से प्रतिस्पर्धा के लायक बन सकें, जिन्हें कि अपने यहां सस्ता कर्ज मिल जाता है, आसान विद्युत आपूर्ति मिलती है तथा जिनके कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप न के बराबर होता है। सभी सरकारी विभागों के जरिये निर्यात के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण मिशन मोड पर विकसित करने की जरूरत है। हमें ऐसी नीतियां तैयार करनी होंगी, जिनमें व्यापार को प्राथमिकता मिले, अन्यथा भारत एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर अपनी क्षमताओं को कभी हासिल नहीं कर सकेगा।

[आर्थिक मामलों की जानकार]