India China Border News: भारत के लिए जरूरी है कि वह ड्रैगन की चुनौती का आकलन कर उसकी काट तैयार करें
इस दौर की एक आम कहावत यही है कि मौजूदा सदी एशिया की है। इसे चरितार्थ करने के लिए आवश्यक होगा कि इस महाद्वीप की दो बड़ी शक्तियों चीन और भारत के बीच सब कुछ ठीक रहे।
सीबीपी श्रीवास्तव। India China Border News आज भारत और चीन के द्विपक्षीय संबंध एक बार फिर नाजुक दौर में पहुंच गए हैं। इसका एक नकारात्मक असर यह हुआ है कि दशकों बाद जिस तरह से चीन के प्रति भारत के लोगों में भरोसा पनप रहा था, वह एक बार फिर से भंग हुआ है, जिसके लिए चीन स्वयं जिम्मेदार है। दोनों देशों ने आपसी सहयोग, अहस्तक्षेप और परस्पर सम्मान के लिए वर्ष 1954 में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के उद्देश्य से औपचारिक पंचशील समझौता किया था। इस बीच हिमालयी क्षेत्र में सीमा विवाद एवं भारत द्वारा बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा को आश्रय देने के कारण चीनी आक्रामकता बढ़ती गई। सुरक्षा की दृष्टि से भारत ने लद्दाख क्षेत्र में अप्रैल 1962 से फॉर्वर्ड पेट्रोलिंग की नीति अपनाई।
दुर्भाग्यवश चीन की ओर से शांति के सभी प्रयासों को नकारने के बाद विवादित क्षेत्र में उसके द्वारा घुसपैठ तथा आक्रमण के कारण 1962 का युद्ध हो गया। उस समय चीन द्वारा पंचशील समझौते के उल्लंघन और शांति बहाली के प्रयासों को नकारने के कारण हुए युद्ध में भारत को पराजय का सामना करना पड़ा था। चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर दावा करते हुए 21 नवंबर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा की। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि युद्ध में हुई क्षति तो अपूरणीय थी ही, सबसे बड़ी बात जो उभर कर सामने आई, वह यह थी कि दोनों देशों के बीच परस्पर विश्वास की बुनियाद धराशायी हो गई।
राष्ट्रों का यथार्थवादी दृष्टिकोण: हालांकि राजनीति चाहे राष्ट्रीय स्तर की हो या अंतरराष्ट्रीय स्तर की, इसमें यह लगभग सत्य है कोई किसी का शत्रु या मित्र नहीं होता, क्योंकि यथार्थवादी दृष्टिकोण से सभी राष्ट्र अपनी सुरक्षा करते हुए अपने-अपने हितों के संरक्षण के लिए कार्य करते हैं। इस क्रम में राजनीतिक विचारधाराओं में विरोधाभास होने के बावजूद कई अवसरों पर मित्र नहीं समङो जाने वाले राष्ट्रों के बीच भी कई स्तरों पर समझौता आधारित संबंध बनाए जाते हैं। शीत युद्धकालीन विश्व में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच नि:शस्त्रीकरण की संधियों, अमेरिका और चीन के बीच व्यापार समझौतों तथा भारत और चीन के बीच समग्र साङोदारी समझौते को ऐसे उदाहरणों के रूप में देखा जा सकता है। इसके बावजूद राजनीतिक यथार्थवाद के सिद्धांत के अनुसार विश्व व्यवस्था में शक्ति संतुलन सदैव विद्यमान रहेगा। उसका कारण यह है कि राज्य ही सबसे महत्वपूर्ण कर्ता है और हितों के संरक्षण के साथ अपने वर्चस्व की स्थापना के लिए प्रत्येक राज्य अपनी क्षमता अनुरूप प्रयास करता है। यही उनके हितों के टकराव का भी कारण है। ऐसी व्यवस्था में शांति, सुरक्षा और स्थायित्व के लिए राष्ट्रों के बीच राजनीतिक विश्वास अनिवार्य है।
आर्थिक और सैन्य शक्ति में वृद्धि: भारत और चीन के बीच की दूरी और निकटता की समझ के लिए दो संकल्पनाओं पर गौर करना होगा। सबसे पहले, यदि हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक शक्ति त्रिकोण की बात करें तो यह कहना उचित होगा कि विश्व व्यवस्था में इस शक्ति त्रिकोण के शीर्ष पर राजनीतिक शक्ति अवस्थित होती है, जो प्रत्येक राष्ट्र का अंतिम उद्देश्य है और यही यथार्थवाद है। इस त्रिकोण के आधार स्तंभों का निर्माण आर्थिक एवं सैन्य शक्ति से होता है। आर्थिक शक्ति में वृद्धि पहले सैन्य शक्ति और अंतत: राजनीतिक शक्ति में वृद्धि करती है। यह शक्ति त्रिकोण सभी राष्ट्रों का उद्देश्य है। भारत और चीन की राजनीतिक शक्ति में वृद्धि का मूल कारण भी उनकी आर्थिक-सैन्य शक्ति में वृद्धि है।
इसी कारण भारत और चीन न केवल आर्थिक साङोदार, बल्कि प्रतिस्पर्धा भी हैं। दोनों ही अपनी-अपनी सैन्य शक्ति का समय-समय पर प्रदर्शन भी करते रहे हैं। फिर भी यह स्पष्ट है कि जहां भारत विश्व शांति की प्रक्रिया में योगदान के लिए एक बड़ी, लेकिन सॉफ्ट पावर बनने का इच्छुक है, वहीं चीन की महत्वाकांक्षा एक महाशक्ति बनने की है। उद्देश्यों की यह भिन्नता दोनों के बीच परस्पर विश्वास बहाली न हो पाने के लिए उत्तरदायी भी है।
दोनों देशों के बीच विरोध का एक बड़ा कारण यह भी है कि भारत एक सफल एवं गतिशील लोकतंत्र है। वैश्वीकरण के इस दौर में जब विश्व में लोकतंत्रीकरण की जड़ें मजबूत हो रही हैं, तब भारत की छवि निश्चित रूप से चीन की अपेक्षा बेहतर है। कारण यह कि चीन एक सर्वसत्तावादी और साम्यवादी राज्य है। यही नहीं उसकी छवि एक आक्रामक राष्ट्र की भी है। वैश्विक सुरक्षा पर नकारात्मक असर: एशिया के इन दो बड़े और शक्तिशाली राष्ट्रों के बीच किसी भी प्रकार के टकराव से संपूर्ण विश्व की सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में दोनों ही राष्ट्रों को संयम बरतने के अलावा एक-दूसरे पर विश्वास करना होगा। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मित्रवत संबंधों की स्थापना के तीन चरण होते हैं, एक-दूसरे की समझ, परस्पर विश्वास तथा अंतत: मित्रता। यह क्रमबद्धता बनाए रखना कूटनीति की सफलता का पैमाना हो सकता है।
अभी जो स्थिति भारत और चीन के बीच बनी हुई है, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और संपूर्ण विश्व व्यवस्था के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है। इन परिस्थितियों में दोनों में से किसी भी राष्ट्र को बदले की भावना से कार्य नहीं करना होगा। कूटनीति की परिपक्वता दर्शाने का यह सवरेत्तम अवसर है। केवल एक-दूसरे का विरोध कर हम स्थायी रूप से समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। अब ट्रैक-2 कूटनीति अर्थात नागरिक या लोकतंत्र-आधारित या संकट-प्रबंधन कूटनीति का प्रयोग करना अनिवार्य हो गया है। हमें सभी क्षेत्रों में विद्यमान संकटों की पहचान कर उन्हें बारी-बारी से दूर करने की पहल करनी होगी। सीमा की सुरक्षा करते हुए सभी स्तरों पर और सभी प्रकार की कूटनीतिक पहलों पर जोर देना अनिवार्य हो गया है।
[अध्यक्ष, सेंटर फॉर अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेस, दिल्ली]