रोहित कौशिक। इस स्वतंत्रता दिवस पर यह विचार करना जरूरी है कि क्या हम अपने देश की आजादी को कोई अर्थ दे पाए हैं? निश्चित रूप से आजादी के बाद हमने देश का व्यापक विकास करने में कामयाबी हासिल की है, लेकिन क्या हम अब तक आजादी का मूल अर्थ समझ पाए हैं? क्या इस दौर में देशभक्ति के नारे लगाने से ही हम देशभक्त हो जाएंगे? देशभक्त होने का वास्तविक अर्थ तो यह है कि हम अपने-अपने काम को ईमानदारी के साथ करते रहें। भारत माता या देशभक्ति के नारे लगाकर हिंसा भड़काने की कोशिश करना किसी भी अर्थ में देशभक्ति नहीं हो सकती।

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आजादी के इतने वर्षो बाद भी दलितों पर अत्याचार की घटनाएं सामने आ रही हैं। आज भी हम अधिकांश अल्पसंख्यकों को संदेह की नजर से देख रहे हैं। समान समुदाय में भी एक-दूसरे पर विश्वास कम होता जा रहा है। हिंदू और मुसलमान के बीच की खाई कम नहीं हुई है। हिंसा के जिस भाव ने महात्मा गांधी की जान ले ली थी, आज जानबूझकर वह भाव पुन: उकसाया जा रहा है।

क्या हम देशभक्त कहलाने लायक हैं?

सवाल यह है कि क्या किसी युद्ध के समय एक आम भारतवासी का खून खौल जाना ही देशभक्ति है? अक्सर यह देखा गया है जब भी किसी दूसरे देश से जुड़े आतंकवादी या फौजी हमारे देश पर किसी भी तरह से हमला करते हैं तो हमारा खून खौल उठता है। लेकिन बाकी समय हमारी देशभक्ति कहां चली जाती है? हम बड़े आराम से देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं, भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाकर शहीदों का अपमान करते हैं तथा अपना घर भरने के लिए देश को खोखला करने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। ऐसे समय में क्या हम देशभक्त कहलाने लायक हैं? स्पष्ट है कि मात्र बाहरी आक्रमण के समय हमारा खून खौल उठना ही देशभक्ति नहीं है। बाहरी आक्रमण के साथ-साथ देश को विभिन्न तरह के आंतरिक आक्रमणों से बचाना ही सच्ची देशभक्ति है। देश पर आंतरिक आक्रमण कोई और नहीं, बल्कि हम ही कर रहे हैं।

भौतिक विकास हुआ, आत्मिक विकास नहीं

दरअसल पिछले करीब सात दशकों में हमने भौतिक विकास तो बहुत किया, लेकिन आत्मिक विकास के मामले में हम पिछड़ गए। स्वतंत्रता को हमने इतना महत्वहीन बना दिया कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को अपने कार्यस्थल पर पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि देना भी हमें भारी लगने लगा। इस दौर में हम शहीदों का बलिदान और स्वतंत्रता का महत्व भूल चुके हैं। तभी तो आज हमारे लिए एक औपचारिकता के अतिरिक्त स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस कोई मायने नहीं रखता है। आज के समय में तब अत्यधिक आश्चर्य होता है जब आप छात्रों से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का अर्थ पूछें, और बहुत से छात्र उसका ठीक-ठाक उत्तर नहीं दे पाएं। हमारी शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था पर इससे बड़ा सवाल खड़ा होता है।

खोखले आदर्शवाद ने स्थिति को बदतर बना दिया

पिछली सदी के नौवें दशक तक लगभग प्रत्येक घर में परिवार के अधिकतर सदस्य 26 जनवरी की परेड देखने के लिए टीवी से चिपके रहते थे। आज ऐसा महसूस हो रहा है कि हम स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को ढो भर रहे हैं। इस दौर में विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह वही आजादी है जिसकी परिकल्पना हमारे शहीदों ने की थी? क्या अपनी ही जड़ों को खोखला करने की आजादी के लिए ही हमारे शहीदों ने बलिदान दिया था? सवाल यह है कि ऐसे दिवसों व आयोजनों से भारतीय जनमानस का मोहभंग क्यों हो रहा है? दरअसल हमारे जनप्रतिनिधि भी भारतीय समाज को कोई भरोसा नहीं दिला पाए हैं। चारों ओर पसरे खोखले आदर्शवाद ने स्थिति को बदतर बना दिया है। यही कारण है कि आज हमने स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को मात्र एक छुट्टी का दिन मान लिया है।

हम आजाद हवा में सांस लेने को मजा मानते ही नहीं

ध्वजारोहण हेतु एक-दो घंटे के लिए कार्यालय जाने पर छुट्टी का मजा किरकिरा हो जाता है। हम यह भूल जाते हैं कि हम जिस मजे की बात कर रहे हैं वह शहीदों की शहादत का ही सुफल है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम आजाद हवा में सांस लेने को मजा मानते ही नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पराधीन भारत के दर्द को न ही हमने स्वयं भोगा है और ना ही इस दौर में उसे महसूस करने की संवेदना हमारे अंदर बची है।

क्या हमने पराधीन भारत के दर्द को महसूस करने की कोशिश की है?

इसीलिए हमारे मजे की परिभाषा में इस छुट्टी के दिन देर तक सोना, फिल्में देखना या फिर बाहर घूमने-फिरने निकल जाना ही शामिल है। प्रश्न यह है कि क्या हमने पराधीन भारत के दर्द को महसूस करने की कोशिश की है? इस दिन शॉपिंग मॉल में घूमना-फिरना तो हो जाता है, लेकिन क्या हम इस दिन पराधीन भारत के दर्द को महसूस करने या फिर बच्चों को जानकारी देने के लिए स्वाधीनता संग्राम से जुड़े किसी ऐतिहासिक स्थल पर घूमने-फिरने जाते हैं?

देश में एक समतामूलक समाज का निर्माण किस तरह हो सकता है

व्यावसायिकता के इस दौर में हम इतना तेज भाग रहे हैं कि अपने अतीत को देखना ही नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए हम और हमारे विचार भी तेजी से बदल रहे हैं। लेकिन इस तेजी से बदलती दुनिया में जो हम खो रहे हैं उसका अहसास हमें अभी नहीं है। हम क्या खो रहे हैं, और हमें उन्हें कैसे बचाना होगा, इसके लिए हमें निरंतर बुजुर्गो के संपर्क में रहना होगा और उनसे इस बारे में राय लेनी होगी, विमर्श करना होगा और फिर उसके अनुकूल आचरण करना होगा, अन्यथा हम अपने ही जड़ों से कट सकते हैं। इससे आजादी के वास्तविक उद्देश्य को हासिल करने की राह से हम भटक सकते हैं।भविष्य के लिए बदलाव एक आवश्यक तथ्य है, लेकिन अपने अतीत को दांव पर लगाकर नहीं। आज के दिन हमें देशभक्ति के नारे लगाने के साथ ही यह भी विचार करना चाहिए कि देश में एक समतामूलक समाज का निर्माण किस तरह हो सकता है।

 [ लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है]