नई दिल्ली [डॉ. ऋतु सारस्वत]। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र और दिल्ली प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि घरेलू हिंसा को रोकने और लॉकडाउन के दौरान पीड़ितों की सुरक्षा के उपायों पर विचार-विमर्श के लिए शीर्ष स्तरीय बैठक आयोजित करें। 

उल्लेखनीय है कि स्वयंसेवी संस्था ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ ह्यूमन राइट्स लिबर्टीज एंड सोशल जस्टिस ने दावा किया कि देश में लॉकडाउन के बाद घरेलू हिंसा की घटनाओं की संख्या बढ़ गई है। इस संस्था ने अदालत से तत्काल हस्तक्षेप की मांग की थी। भारत ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में लॉकडाउन के बाद घरेलू हिंसा के मामलों में भारी वृद्धि दर्ज की गई है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने इन हालातों में महिलाओं एवं बालिकाओं के प्रति घरेलू हिंसा के मामले में भयावह बढ़ोतरी दर्ज किए जाने पर चिंता जताते हुए कहा है कि हिंसा महज रणक्षेत्र तक ही सीमित नहीं है और कई महिलाओं तथा बालिकाओं के लिए खतरा सबसे ज्यादा वहां होता है, जहां वे सबसे सुरक्षित होनी चाहिए यानी उनके घरों में। वास्तविकता भी यही है। देश, काल, धर्म, जाति और वर्ग से परे विश्व भर की आधी से अधिक महिलाओं के जीवन का कठोर सच परिवार के पुरुष सदस्य विशेषकर जीवन साथी से प्राप्त हिंसात्मक व्यवहार है।

दुनिया भर में घरेलू हिंसा से सुरक्षा देने के लिए तमाम तरह की कानूनी व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाते हुए कैसे और क्यों महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा के आंकड़ों में निरंतर बढ़ोतरी होती जा रही है, यह गहन शोध का विषय है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, जर्मनी, स्वीडन और फ्रांस जैसे विकसित देश समेत भारत इस समस्या को लेकर चिंतित हैं। अगर हम सिर्फ महामारी के शुरू होने के बाद की बात करें तो लेबनान और मलेशिया में हेल्पलाइन पर आने वाली फोन कॉल की संख्या दोगुनी हो गई है।

ऑस्ट्रेलिया में गूगल जैसे सर्च इंजनों पर घरेलू हिंसा संबंधी मदद के लिए खोज पांच वर्षों में सबसे ज्यादा इन दिनों की गई है। ये आंकड़े समस्या के स्तर को दर्शाते हैं, लेकिन इनसे सिर्फ उन्हीं देशों के बारे में जानकारी  मिलती है, जहां रिर्पोटिंग प्रणाली पहले से ही व्यवस्थित है। विश्व भर की स्थिति इन आंकड़ों से कहीं अधिक गंभीर है। तालाबंदी खुलने के बाद इस स्थिति में सुधार आने की संभावना भी नहीं है।

विभिन्न आर्थिक विश्लेषण बताते हैं कि आने वाले दिनों में बेरोजगारी बढ़ने वाली है। वर्ष 2005 से 2016 के बीच 31 देशों में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के आंकड़ों के विश्लेषण में बेरोजगारी और घरेलू हिंसा के बीच एक सीधा रिश्ता सामने आया। एक संबंधित शोध अध्ययन में यह बताया गया है कि पुरुषों के व्यवहार में, विकसित और अविकसित देशों के लोगों में ज्यादा अंतर नहीं है।

लिहाजा इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि इस समस्या से कैसे निपटा जा सकता है। अगर कानून बना देने मात्र से यह समस्या समाप्त हो सकती तो यकीनन आज कोई भी महिला घरेलू हिंसा का शिकार नहीं होती। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि महिलाओं पर पुरुषों की हिंसा व्यवस्थागत समस्या है। सबसे बड़ी भूल यह हो रही है कि पुरुषों को महिलाओं के विरुद्ध एक शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे समस्या और उलझ रही है।

आवश्यक है कि पुरुषों को इस समाधान का हिस्सा बनाया जाए। केयर इंटरनेशनल 2016 के पॉलिसी ब्रीफ में इस बात का उल्लेख किया गया है कि मर्दानगी की भावना से सीधे तौर पर निपटना किस तरह हिंसा के विचार को चुनौती देना है। इस संबंध में 2011 में पुणे में इक्वल कम्युनिटी फाउंडेशन ने एक्शन फॉर क्वलिटी कार्यक्रम की शुरुआत की।

इस कार्यक्रम का आधार ही इस सोच के साथ जुड़ा हुआ है कि अगर महिलाओं के विरुद्ध होने वाली समस्या का समाधान केवल महिलाओं पर केंद्रित रखकर निकालने की कोशिश करते हैं तो समाज की व्यापक सोच पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इस कार्यक्रम में 13 से 17 साल तक की आयु के लड़कों को शामिल किया जाता है जिसमें उन्हें महिलाओं से हिंसा न करने, लैंगिक भेदभाव से बचना सिखाया जाता है।

इस कार्यक्रम के परिणाम सकारात्मक आने लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने इस बारे में उल्लेख किया था कि विषाक्त मर्दानगी की भावनाएं पुरुषों के जहन में बहुत छोटी उम्र से ही बैठा दी जाती हैं। उन्हें ऐसी सामाजिक व्यवस्था का आदी बनाया जाता है, जहां पुरुष ताकतवर और नियंत्रण रखने वाला होता है तथा उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि बालिकाओं और महिलाओं के प्रति प्रभुत्व का व्यवहार करना ही उनकी मर्दानगी है।

मर्दानगी का यह छद्म स्वरूप ही घरेलू हिंसा की मूल जड़ है और यह समस्या समाज में सामूहिक चेतना उत्पन्न करके ही दूर की जा सकती है। स्वीडन ने इसके लिए सराहनीय प्रयास किए हैं। वहां स्कूलों में समानता, हिंसा और एक-दूसरे के आदर जैसे विषयों पर परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। वहां विश्वविद्यालयों में महिलाओं के खिलाफ पुरुषों की हिंसा को अनिवार्य विषय बना दिया गया है।

वहां इस विषय को हर स्तर पर पढ़ाया जा रहा है। हमें यह समझना होगा कि शिक्षित एवं आर्थिक रूप से स्वावलंबी महिलाएं भी घरेलू हिंसा के विरुद्ध शिकायत करने से हिचकती हैं, क्योंकि उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा, बच्चों का भविष्य जैसी अनेक चुनौतियां सामने दिखाई देती हैं। लिहाजा एक ऐसा सामाजिक ढांचा तैयार किया जाए, जहां पुरुषों को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके। अगर ऐसा होता है तो आने वाले समय में महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा में यकीनन गिरावट आएगी। (स्वतंत्र टिप्पणीकार)