[ राजीव सचान ]: राजनीति कितनी निर्मम और निष्ठुर है, इसका पता बीते दिनों तब चला जब गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर के अंतिम संस्कार के पहले ही कांग्रेस ने सरकार गठन का दावा पेश कर दिया। राजनीतिक शालीनता का तकाजा यह कहता था कि कम से कम उनके अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा कर ली जाती, लेकिन राजनीतिक संवेदनहीनता के ऐसे प्रदर्शन के लिए केवल कांग्रेस को ही दोष नहीं दिया जा सकता। आखिर यह एक तथ्य है कि पर्रीकर के निधन पर शोक की अवधि समाप्त होते ही भाजपा ने गोवा में उनके उत्तराधिकारी प्रमोद सावंत को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। उन्हें देर रात तब शपथ दिलाई गई जब पर्रीकर के अंतिम संस्कार को कुछ ही घंटे हुए थे।

रात दो बजे ली शपथ

प्रमोद सावंत ने रात दो बजे के करीब राजभवन में आयोजित समारोह में नौ मंत्रियों के साथ शपथ ली। समझना कठिन है कि आखिर इतनी जल्दी क्या थी? जो काम रात को हुआ वह सुबह भी तो हो सकता था, लेकिन शायद भाजपा राजनीतिक अस्थिरता में झूलते गोवा में कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं थी। पर्रीकर के अंतिम संस्कार से पहले ही कांग्रेस की ओर से सरकार बनाने के दावे और भाजपा की ओर से उनके अंतिम संस्कार के ठीक बाद नए मुख्यमंत्री को शपथ दिलाने को लेकर यह कहा जा सकता है कि जीवन चलने का नाम है और किसी की मृत्यु से जीवन की गतिविधियां थमती नहीं। इस तर्क को निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन आखिर राजनीतिक गरिमा और शालीनता भी कोई चीज होती है।

तत्काल पदभार ग्रहण बाध्यता नहीं

नि:संदेह किसी मुख्यमंत्री के निधन के बाद नए मुख्यमंत्री के तत्काल पदभार ग्रहण करने की वैसी कोई बाध्यता भी नहीं होती जैसी प्रधानमंत्री के मामले में होती है। यह सही है कि इंदिरा गांधी के निधन की आधिकारिक घोषणा के पहले राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गई थी, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि किसी मुख्यमंत्री के निधन के बाद भी ऐसा ही करना आवश्यक होता है।

मनोहर पर्रीकर का निधन

मनोहर पर्रीकर के निधन की सूचना मिलते ही भले ही सभी दलों के लोगों ने करीब-करीब एक स्वर से उनकी शालीनता, सादगी और ईमानदारी की मुक्त कंठ से सराहना की हो, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि अन्य नेता या फिर नेताओं की भावी पीढ़ी इन गुणों का अनुकरण करने को तैयार हैै। जैसे पर्रीकर के गुणों को उनके राजनीतिक विरोधियों ने भी सराहा वैसे ही अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद उनके भी राजनीतिक गुणों को दुर्लभ बताकर सभी ने याद किया था, लेकिन इसके आसार कम ही दिखते हैैं कि वाजपेयी और पर्रीकर सार्वजनिक जीवन में जिन राजनीतिक मूल्यों से लैस थे उन्हें आज के अन्य नेता प्राथमिकता देने को तैयार हैैं।

गरिमा और शालीनता का त्याग

उलटे यही अधिक देखने को मिल रहा है कि बची-खुची राजनीतिक गरिमा और शालीनता को त्यागने की होड़ मची है। इस होड़ का एक नमूना तब देखने को मिला जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन की ओर से मसूद अजहर का एक बार फिर बचाव करने को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम मोदी पर तीखे तंज कसे। शायद यह पर्याप्त न था और इसीलिए कांग्रेस की ओर से एक ट्वीट कर वह वीडियो जारी किया गया जिसमें मोदी चीनी राष्ट्रपति के साथ दिख रहे थे। यह वीडियो तब का है जब चीनी राष्ट्रपति भारत यात्रा के दौरान गुजरात आए थे। इस वीडियो में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच काल्पनिक बातचीत भी पेश की गई। यह इतनी ओछी और अभद्र थी कि यकीन करना कठिन था कि कांग्रेस ऐसा भी निकृष्ट काम कर सकती है। हालांकि तमाम लोगों ने इस वीडियो के मनगढ़ंत संवादों को अभद्र बताया, लेकिन कांग्रेस की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा।

राजनीति मर्यादाहीन

नि:संदेह विदेश नीति और कूटनीति को भी राजनीतिक बहस का विषय बनाया जा सकता है और चुनाव के दौर में तो और भी, लेकिन किसी वीडियो में छेड़छाड़ कर देश के प्रधानमंत्री को नीचा दिखाने की कोशिश यही बताती है कि आज की राजनीति कितनी अधिक मर्यादाहीन हो चुकी है। यह अच्छा नहीं हुआ कि राहुल गांधी की ओर से मोदी सरकार की चीन नीति पर उछाले गए सवाल का जवाब देने के लिए भाजपा ने जवाहरलाल नेहरू को दोष देना जरूरी समझा। इसमें दोराय नहीं कि नेहरू ने कई ऐसी गलतियां की जिनके दुष्परिणाम देश को आज भी भोगने पड़ रहे हैैं, लेकिन आखिर 2019 के किसी कूटनीतिक मसले के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराने का क्या मतलब? चूंकि भाजपा ने ऐसा ही किया इसलिए वह उपहास का पात्र बनी। हालांकि यह जरूरी नहीं कि कोई राजनीतिक दल विरोधी दल के हर आरोप का जवाब दे ही, लेकिन ऐसा लगता है कि कोई भी मौका छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता। राजनीतिक विमर्श का स्तर इसीलिए रसातल में जा रहा है, क्योंकि एक दल दूसरे दल की आलोचना का जवाब उसी का भाषा में देना पसंद कर रहा है। गाली का जवाब गाली से देना एक तरह से कीचड़ को कीचड़ से साफ करने की कोशिश ही है।

तू तू-मैैं मै

जब बड़े नेता तू तू-मैैं मै करते हैैं तो उनके सहयोगी नेता और प्रवक्ता और भी बढ़चढ़ कर ऐसा ही करते हैैं। यदि इस बार के आम चुनाव अब तक के सबसे अभद्र और अमर्यादित चुनाव साबित हों तो हैरत नहीं। शायद किसी को इसकी परवाह नहीं कि जो राजनीति देश को दिशा देती है उसका विमर्श हर दिन नए न्यूनतम बिंदु को स्पर्श कर रहा है। इसके लिए सभी राजनीतिक दल तो दोषी हैैं ही, एक बड़ी हद तक टीवी चैनल भी जिम्मेदार हैैं। टीवी चैनलों पर होने वाली राजनीतिक बहस गाली-गलौज का पर्याय बनती जा रही है।

दूषित सोशल मीडिया

हैरत नहीं कि सोशल मीडिया भी खूब दूषित होता जा रहा है। अब इसमें कोई संशय नहीं कि राजनीतिक दल एक-दूसरे को विरोधी कम, शत्रु के तौर पर अधिक देखने लगे हैैं। वे उनकी आलोचना और निंदा ही नहीं करते, बल्कि उन्हें ओछे तरीके से अपमानित भी करते हैैं। इस क्रम में छल-कपट और झूठ का सहारा लेने से भी संकोच नहीं किया जा रहा है। राहुल गांधी मोदी सरकार की आलोचना करते हुए इसकी परवाह मुश्किल से ही करते दिखते हैैंं कि वह जिन तथ्यों के सहारे अपनी बात कह रहे हैैं उनका सच्चाई से कोई नाता है या नहीं? कई बार उनके ट्वीट देखकर यह समझना कठिन होता है कि वह देश की सबसे पुरानी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैैं या फिर राजनीतिक विरोधियों को ट्रोल करने वाले फर्जी नाम वाले कोई कांग्रेसी कार्यकर्ता। क्या राजनीतिक दल यह समझेंगे कि अगर राजनीति निर्मम और निष्ठुर होगी तो वह अभद्र भी होगी।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )