[कैलाश बिश्नोई]। लॉकडाउन के दौरान पुलिस न केवल कानून-व्यवस्था बनाए रखने का उल्लेखनीय काम कर रही है, बल्कि जरूरतमंद लोगों के खाने और चिकित्सा के इंतजाम करती हुई भी दिख रही है। असम की डिब्रूगढ़ पुलिस की तो एक दिल खुश करने वाली तस्वीर सामने आई है। दरअसल परिवार की मदद करने के लिए साइकिल पर सब्जी बेचने वाली एक लड़की को पुलिस ने दोपहिया वाहन उपहार में दिया है। पुलिस के इस रूप की खूब चर्चा हो रही है। दिल्ली पुलिस ने भी लोगों की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाते हुए एक खास अभियान शुरू किया है। अब तक देश के विभिन्न राज्यों की पुलिस जिसका केवल एक विद्रूप चेहरा ही समाज के सामने प्रस्तुत किया जाता रहा है, इस आपदा में उसका सकारात्मक पहलू भी सामने आया है।

विभिन्न राज्यों की पुलिस डॉक्टर, नर्स और अन्य स्वास्थ्यकíमयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कोरोना जैसे अदृश्य दुश्मन को नेस्तनाबूद करने तथा लोगों की मदद के लिए पूरे समर्पण से जुटी है, लेकिन विडंबना यह है कि देश की आíथक राजधानी मुंबई के बाद अब दिल्ली पुलिस सहित कई राज्यों के पुलिसकर्मी भी कोरोना संक्रमण की चपेट में तेजी से आ रहे हैं। तमाम खतरों के बावजूद पुलिसकर्मी कड़ी धूप में सड़कों पर लॉकडाउन के नियमों का पालन करा रहे हैं। हालांकि देश में जनसंख्या के अनुपात की तुलना में पुलिस बल की अपर्याप्तता के कारण पुलिस को लॉकडाउन लागू कराने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। उन्हें हॉटस्पॉट में भी कई घंटों तक ड्यूटी करनी पड़ रही है, ताकि संक्रमण को फैलने से रोका जा सके।

आज पुलिस की भूमिका केवल लॉकडाउन तक ही सीमित नहीं है। जैसे-जैसे लॉकडाउन खुलेगा, चुनौतियां और बढ़ेंगी। जिस तरह से व्यावसायिक प्रतिष्ठान, कल-कारखाने और एवं अन्य आíथक गतिविधियां शुरू होंगी और लोगों की आवाजाही में तेजी होगी तो संक्रमण फैलने का खतरा भी बढ़ेगा। तब पुलिस पर दबाव और बढ़ेगा। बड़े स्तर पर जांच अभियान के तहत जब जांच का दायरा बढ़ाया जाएगा तो यह काम भी पुलिस की मदद के बिना संभव नहीं होगा। समय समय पर पुलिस सुधारों की बातें की जाती रही हैं, ताकि पुलिस का वह चेहरा जनता के सामने आना चाहिए जिसमें वह मशीन कम और मानवीय ज्यादा नजर आएं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि पुलिस को मानवीय चेहरा देने की बहस कमेटियों में ही सिमट कर रह गई है।

यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बारे में व्यापक गाइडलाइंस जारी की है, लेकिन सरकारों ने उन पर अमल नहीं किया। अब वक्त आ गया है कि हम लंबित पड़े पुलिस सुधारों की दिशा में तेजी से आगे बढ़ें। जैसे अपराध जांच, नागरिक पुलिस तथा सशस्त्र पुलिस के लिए अलग कैडर बनाए जाएं, पुलिस के काम के घंटों को तर्कसंगत बनाया जाए, हफ्ते में एक दिन का अवकाश या इसके बदले में पूरक अवकाश की व्यवस्था हो। इसके अलावा पुलिस कल्याण ब्यूरो बनाया जाए, ताकि पुलिसकíमयों की स्वास्थ्य देखभाल, आवास तथा कानूनी सहायता और सेवा काल में मृत्यु की स्थिति में परिजनों को आíथक सहायता दी जा सके। साथ ही राज्यों में पुलिस बल की संख्या बढ़ाकर संयुक्त राष्ट्र द्वारा सुझाए गए मानकों के अनुरूप की जाए तथा पुलिस बल में महिला-कíमयों की संख्या बढ़ाई जाए।

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने सुझाव दिया था कि पुलिस बलों पर काम के बोझ को कम करने का एक तरीका आउटसोìसग करना है। अर्थात पुलिस के नॉन कोर कामों यानी जो काम मुख्य नहीं हैं, जैसे यातायात प्रबंधन, आपदा में बचाव-राहत कार्य और अदालती सम्मन जारी करना आदि को निजी एजेंसियों को आउटसोर्स या अन्य सरकारी विभागों को दिया जा सकता है। इनमें पुलिस व्यवस्था के किसी विशेष ज्ञान की जरूरत नहीं होती और इसलिए इन्हें दूसरी एजेंसियों द्वारा किया जा सकता है। इससे पुलिस बलों को अपने मुख्य कार्यो को करने के लिए अधिक समय और ऊर्जा हासिल होगी।

पुलिस और आम जनता के बीच का संबंध संतोषजनक नहीं है, क्योंकि जनता पुलिस को भ्रष्ट, अक्षम, राजनीतिक स्तर पर पक्षपातपूर्ण और गैर-जिम्मेदार समझती है। इस चुनौती से निपटने का एक तरीका सामुदायिक पुलिस-व्यवस्था यानी कम्युनिटी पुलिसिंग मॉडल है। सामुदायिक पुलिस-व्यवस्था पुलिस के कार्यो में नागरिकों की भागीदारी बढ़ाने का एक तरीका है। यह एक ऐसा परिवेश तैयार करती है जिसमें नागरिक समुदाय की सुरक्षा में वृद्धि सुनिश्चित की जाती है। देश के कुछ राज्य सामुदायिक पुलिस-व्यवस्था के क्षेत्र में प्रयोग कर रहे हैं, जैसे तमिलनाडु में पुलिस मित्र, असम में प्रहरी और बंगलुरु सिटी पुलिस द्वारा स्पंदन नामक पहल आदि। कम्युनिटी पुलिस व्यवस्था, पुलिस और स्थानीय समुदायों के बीच विश्वास बहाली में मदद कर सकती है और यह पुलिस की प्रभावोत्पादकता में भी बढ़ोतरी करेगी। सांप्रदायिक संघर्ष को टालने में यह बेहद महत्वपूर्ण उपकरण साबित हो सकता है।

सामान्यत: पुलिस पेट्रोलिंग, घटना के बाद की जांच और आपराधिक न्याय प्रणाली के अन्य प्रतिक्रियात्मक तरीकों पर निर्भर करती है। पुलिस कार्रवाई का यह प्रतिक्रियाशील दृष्टिकोण आम जनता और पुलिस के बीच विश्वास की कमी का महत्वपूर्ण कारण है। सक्रिय पुलिसिंग के लिए यह जरूरी है कि समुदायों को उनके क्षेत्रों में नीति निर्धारण और मार्गदर्शन करने में अहम भूमिका निभाने का अवसर दिया जाए। कम्युनिटी पुलिसिंग एक सकारात्मक अवधारणा है जो पुलिस और जनता के बीच की खाई को पाटने का काम करती है। ऐसे में कम्युनिटी पुलिसिंग को संस्थागत बनाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए और ग्रामीण क्षेत्रों तक भी इसका विस्तार किया जाना चाहिए।

[अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]