[ मनोज जोशी ]: विश्व कप फुटबॉल के रूप में दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय खेल के सबसे बड़े समागम का समापन हो गया। हालांकि क्रोएशिया को फ्रांस के हाथों पराजय मिली, लेकिन वहां के लोग भी इसका जश्न मना रहे हैैं कि हम फाइनल तक पहुंचे। क्रोएशिया के फाइनल तक पहुंचने के बाद भारत में यह सवाल और अधिक उछला कि जिस खेल में 40-42 लाख आबादी वाला देश इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल कर सकता है उसमें भारत आखिर कब तक दर्शक बना रह सकता है? यह सवाल सही है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारत ने पिछले चार साल में फुटबॉल में अपनी रैंकिंग में 74 पायदान का सुधार किया और एएफसी एशियन कप में कई वर्षों के बाद क्वालीफाई भी किया, लेकिन ऐसा लगता है कि फुटबॉल हमारे खेल प्रशासकों की प्राथमिकता सूची में नहीं।

जकार्ता में होने जा रहे एशियाई खेलों में भारतीय फुटबॉल शामिल नहीं होगी। अंतरराष्ट्रीय अनुभव दिलाने के लिए लिहाज से ही सही, फुटबॉल टीम को जकार्ता भेजना उचित होता, लेकिन पता नहीं क्यों उसकी अनदेखी हो रही है? एशियाई खेलों और ओलंपिक में फुटबॉल स्पर्धा अंडर 23 खिलाड़ियों के लिए होती है। भारत की मौजूदा टीम में दस खिलाड़ी अंडर 23 वर्ग के ही हैं।

अंडर 17 के विश्व कप में हमने जिन खिलाड़ियों को देश भर से तराशा था उनमें से ही आने वाले वर्षों में कई बाइचुंग भूटिया निकलेंगे और कई सुनील छेत्री। ऐसे खिलाड़ियों को जकार्ता में निश्चय ही अपने और टीम के प्रदर्शन में सुधार करने का अवसर मिलता। उनके सामने ईरान, कोरिया, जापान और सऊदी अरब के खिलाड़ी होते। इन टीमों के बीच बेशक भारत के पदक जीतने की उम्मीद न होती, लेकिन उनके पदक के करीब पहुंचने का अवसर जरूर होता। इतने भर से भारत में इस खेल के विकास की रफ्तार बढ़ने में मदद जरूर मिलती। बेहतर प्रदर्शन करने वाली टीमों और खिलाड़ियों की अनदेखी और कमजोर टीमों को तवज्जो देने के मामले में केवल फुटबॉल टीम की ही गिनती नहीं की जा सकती।

भारत की हैंडबॉल टीम पिछले एशियाई खेलों में आखिरी स्थान पर रही थी। इस साल एशियाई चैंपियनशिप में भी वह 14 टीमों में 12वें स्थान पर ही रही। इस खेल की महिलाओं की टीम पिछले एशियाई खेलों में अंतिम पूर्व स्थान पर रही और पिछली एशियाई चैंपियनशिप में तो वह भाग भी नहीं ले पाई। वॉलीबॉल की दोनों टीमें भी आधिकारियों के आपसी झगड़ों के चलते पिछली एशियाई चैंपियनशिप में भाग ही नहीं ले पाईं। नौकायन में पिछली एशियाई चैंपियनशिप में भारत के 34 नौकाचालकों ने भाग लिया जिसमें भारत को इकलौता कांस्य पदक मिला। केनोइंग और क्याकिंग में वहां भारत को एक भी पदक नहीं मिल सका। साइक्लिंग और तैराकी में तो आलम यह है कि अधिकांश भारतीय खिलाड़ी टॉप टेन में आने के लिए जूझते रहते हैं। इसके बावजूद इन खेलों से संबंधित खिलाड़ियों को जकार्ता एशियाड में भेजा जा रहा है।

सरकारी दिशानिर्देशों में साफ है कि वैयक्तिक स्पर्धाओं में टॉप छह और टीम स्पर्धाओं में टॉप आठ खिलाड़ियों को ही इन खेलों में भेजा जाए। पता नहीं खेल मंत्रालय अपने ही दिशानिर्देशों की अनदेखी पर चुप क्यों है? वह भारतीय ओलंपिक संघ यानी आइओए से इस बारे में सवाल क्यों नहीं करता और अगर वह इन सवालों के जवाब से संतुष्ट है तो उसे कुछ छिपे पहलुओं पर गौर करना चाहिए। उसे देखना चाहिए कि कैसेमानदंडों का तोड़ ढूंढ़ लिया जाता है? कभी पिछले एशियाई खेलों के प्रदर्शन को मानदंड मान लिया जाता है और कभी पिछली एशियाई चैंपियनशिप के प्रदर्शन को आधार मान लिया जाता है। अगर इससे भी बात नहीं बनती तो खिलाड़ियों और टीम की रैंकिंग को आधार मान लिया जाता है।

भारतीय महिला हैंडबॉल टीम और महिला वॉलीबॉल टीमों ने सरकारी दिशानिर्देशों के अनुसार तय आठवां स्थान तो पिछले एशियाई खेलों में हासिल किया, लेकिन क्या खेल मंत्रालय ने यह जानने की कोशिश की कि उन खेलों में कळ्ल कितनी टीमों ने भाग लिया था? इन दोनों टीमों को नौ में से आठवां स्थान मिला था। आखिर टॉप आठ में आने का क्या मतलब रह जाता है? हमें पहले यह तय करना चाहिए कि हम अपने खिलाड़ियों को एशियाई खेलों में पदक के लिए भेज रहे हैं या अंतरराष्ट्रीय अनुभव के लिए? अगर पदक के लिए भेज रहे हैं तो क्या निचले पायदान पर रहने वाले खिलाड़ी और टीमें देश को शर्मसार नहीं करेंगी? आम तौर पर ऐसे ही खिलाड़ी अपने प्रदर्शन में हैरतअंगेज सुधार लाने के लिए डोपिंग का सहारा लेते हैं। यह एक कड़वा सच है कि भारत डोपिंग में आज दुनिया में तीसरे नंबर पर है।

जिन कॉमनवेल्थ गेम्स में बेहतर प्रदर्शन पर हम इतराने लगे हैं उनमें भी हम एशियाई खेलों में हाशिये पर हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स में मणिका बत्रा की अगुआई में भारत को टेबल टेनिस में रिकॉर्डतोड़ कामयाबी मिली, लेकिन क्या एशियाई खेलों में हम एक निश्चित पदक की उम्मीद कर सकते हैं? इस खेल में आज तक भारत को एक कांसा भी नसीब नहीं हुआ। कॉमनवेल्थ गेम्स, सुपर सीरीज और ग्रां प्री प्रतियोगिताओं में भारत बैडमिंटन में बड़ी ताकत के रूप में उभरा है, लेकिन एशियाई खेलों में चीन, इंडोनेशिया और मलेशिया आदि के दबदबे के बीच हम स्वर्ण पदक की उम्मीद नहीं कर सकते।

भारतीय फुटबॉल संघ का कोई भी नुमाइंदा आइओए में नहीं है। अगर होता तो शायद फुटबॉल टीम जकार्ता जा रही होती। जहां फुटबॉल संघ का कोई भी प्रतिनिधि आइओए में नहीं है वहीं भारतीय हैंडबॉल संघ के दो-दो नुमाइंदे आइओए में हैं। इसी तरह केनोइंग और कयाकिंग संघ के एक-एक सदस्य आइओए की कार्यकारी समिति में हैं। तैराकी संघ के सीईओ भी आइओए में प्रभावी हैं।

रोइंग और वॉलीबॉल संघ से जुड़े अधिकारी भी आइओए में हैं। कुछ दिन पहले आइओए अध्यक्ष नरेंद्र बत्रा ने कहा था कि कुछ नए खेलों में बेहतर अवसर होने के मद्देनजर उनके खिलाड़ियों को प्राथमिकता दी गई है। सवाल है कि इस मामले में सबके साथ एक सा बर्ताव क्यों नहीं किया गया? आखिर क्यों ब्रिज खेल की अनदेखी की गई जिसके एशिया कप में भारत को एक स्वर्ण, एक रजत और तीन कांस्य पदक मिले? हम ज्यादा पदकों को लक्ष्य बनाकर पेनकॉक सीलैट नामक खेल में अपना दल उतार रहे हैं। यह इंडोनेशिया की मार्शल आर्ट है और अगले ही आयोजन में इसका हटाया जाना तय है। जिस खेल के बारे में पूरा देश कुछ न जानता हो और भविष्य में जिसके वजूद को लेकर भी अनिश्चितता हो उस खेल में ऊर्जा लगाना और फुटबॉल जैसे खेल की अनदेखी करना यही जाहिर करता है कि हमारी सोच दूरदर्शी नहीं है।

[ लेखक कमेंटेटर एवं वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं ]