[ हृदयनारायण दीक्षित ]: मनुष्य आनंद अभीप्सु है। आनंद अनुभूति का केंद्र अंत:करण है। आनंद प्राप्ति में अनिश्चिता भी है। उसकी खोज में हम प्राय: नए उपकरणों की शरण में जाते हैं। नया परिधान, नया टीवी, नया मनोरंजन, मगर जीवन रसमय नहीं होता। आनंद का मूल केंद्र या उत्स सक्रिय नहीं होता। उत्स की सक्रियता उत्सव है। भारत इसीलिए उत्सवधर्मा है। यहां पूरे वर्ष उत्सव हैं। शरद पूर्णिमा है। दीपोत्सव हैं, लेकिन होली की बात ही अलग है। यह भारत के मन को भीतर और बाहर से रंग में डुबो देती है। इसमें प्रेम की अभिव्यक्ति है। आनंद का आच्छादन है। यह गीत, नृत्य और मुद, मोद-प्रमोद से भरापूरा प्राचीन उत्सव है। होली नाचता गीत गाता अध्यात्म है। होली में तमाम असंभवों की उपस्थिति है। यहां शीत और ग्रीष्म का मिलन है। मर्यादा, शील और स्वच्छंदता साथ-साथ हैं। उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम का अभेद है। लोक और शास्त्र भी साथ-साथ हैं। पंथ जाति के भेद नहीं। भाषा क्षेत्र के आग्रह नहीं।

होली राष्ट्रीय एकता का मधुरस है

होली उत्सव धर्म का अंतर्संगीत है। जनगणमन का सामूहिक उल्लास है। होली के रस में समरसता है। होली राष्ट्रीय एकता का मधुरस है। कुछ दुराग्रही प्रगतिशील होली को मिस्न या यूनान की देन बताते हैं। वे शिव को भी आयातित बताते हैं। मिस्न, और यूनान में बेशक होली जैसे पर्व थे। उनसे भारत के व्यापारिक संबंध थे। होली का मर्म व्यापारियों के माध्यम से अन्य देशों तक पहुंचा है। होली भारत का प्राचीन उत्सव है। जैमिनी ने होलाका पर्व का उल्लेख ईसा पूर्व 400-200 वर्ष में किया है। आचार्य हेमाद्रि ने होली को अतिप्राचीन उत्सव बताया है। वात्स्यायन ने कामसूत्र में इसे वसंतोल्लास क्रीड़ा पर्व बताया है। कई पुराणों में भी होली के उल्लेख हैं।

होली में आनंद के सभी उपकरण एक साथ हैं

भारतीय उत्सव अंधविश्वास नहीं हैं। उनका उद्भव और विकास समाज को आनंदित करने की अभिलाषा से हुआ। भारतीय आनंद बोध हजारों वर्ष के सांस्कृतिक विकास का परिणाम है। वैदिक काल में यज्ञ उत्सव थे। सृजन से आनंद मिलता ही है। पूर्वज सृजनशील थे। उन्होंने ऋचा मंत्र काव्य रचे, लेकिन पूरा आनंद नहीं प्रकट हुआ। सो गीत के साथ संगीत जुड़ा। गीत-संगीत के प्रभाव भी लोक को पूर्ण रूप से आनंदित नहीं करते। सो आनंद की अभिव्यक्ति के लिए नृत्य का विकास हुआ। रूप, रस, गंध का आस्वाद आनंददाता है। होली में आनंद के सभी उपकरण एक साथ हैं। हम सब होली खेलते हैं। खेल ऋग्वेद के पूर्वजों को प्रिय हैं। वे अपने खेल में मनुष्यों के साथ ही देवताओं को भी साझीदार बनाते हैं। वे वायुदेव मरुतगणों को ‘उत्सव क्रीड़ंति’ कहते हैं। अग्नि देव से कहते हैं कि वह खेलते हुए हमारे पास आएं।

होली सबका उत्सव है, श्वेत-श्याम, वर्ण-सवर्ण साथ-साथ होली खेलते हैं

होली सबका उत्सव है। मनुष्यों के साथ देवों का भी। गरीब, अमीर के भेद नहीं होते। श्वेत-श्याम, वर्ण-सवर्ण साथ-साथ होली खेलते हैं। लोक गाता है, शास्त्र श्रोता बनता है। भारत सामगान हो जाता है। होली गीतों में व्याकरण नहीं चलता। यहां आनंद ही संज्ञा है और आनंद ही सर्वनाम। अन्य उत्सवों के उलट होली का कोई सुव्यवस्थित कर्मकांड नहीं है। होली में आनंद ही गोत्र है और आनंद ही सबकी जाति। तैत्तिरीय उपनिषद् में आनंद की व्याख्या है, ‘सैषा आनंद मीमांसा भवति।’ कहते हैं कि मनुष्य स्वस्थ हो। शिक्षित हो। बल संपन्न हो। धन संपदा हो, यह मनुष्य को आनंद से भरता है, लेकिन इसका सौ गुना आनंद मनुष्य गंधर्व आनंद होता है। गंधर्व आनंद गीत-संगीत और नृत्य से परिपूर्ण होता है। होली का आनंद इस आनंद से भी कई गुना है।

प्रह्लाद को आग में झोंका गया, वह बच गया

इस पर्व से जुड़ी तमाम कथाएं भी हैं। भविष्य पुराण के अनुसार राजा रघु के पास ढोंढा राक्षसी की शिकायत हुई। वह बच्चों को तंग करती थी। उसे शिव का वरदान था। शिव वरदान के अनुसार उसे क्रीड़ा करते हुए बच्चों से डरना चाहिए। ज्योतिषी ने बताया कि फाल्गुन पूर्णिमा को बच्चे और वयस्क हंसे, ताली बजाएं, अग्नि की पूजा करें। अश्लील गीत गाएं। ऐसा ही हुआ और राक्षसी मर गई। प्रह्लाद की कथा दूसरी है। हिंदुस्तान के उत्तर पूर्व में दैत्यों-दानवों का क्षेत्र पूर्व ईरान, एशियाई रूस का दक्षिणी पश्चिमी हिस्सा और गिलगिट तब इलावर्त था। बेबीलोनिया की प्राचीन गुफाओं के भित्ति चित्रों में विष्णु हिरण्याक्ष से युद्धरत हैं। हिरण्याक्ष हिरण्यकश्यप का भाई था। प्रह्लाद हिरण्यकश्यप का पुत्र था। वह पिता की दैत्य परंपरा का विरोधी था। उसे आग में झोंका गया, वह बच गया। लोकमन आनंदमगन होकर कथाएं गढ़ता है। कथाओं के स्नोत सांस्कृतिक सत्य होते हैं।

हिंदू उत्सव राष्ट्रीय एकता का संवर्धन करते हैं 

हिंदू उत्सव राष्ट्रीय एकता का संवर्धन करते हैं। समाज को प्रीतिरस से भरते हैं, लेकिन कथित प्रगतिशील किसी न किसी बहाने आलोचना करते हैं। लोग पानी के दुरुपयोग पर प्रश्न उठाते हैं। उन्हें अन्य अवसरों पर पानी नहीं दिखाई पड़ता। कार धोने में ही लाखों लीटर पानी का दुरुपयोग होता है। कुछ लोग होली को अराजक हुल्लड़बाजी बताते हैं। उन्हें होली में समता और समरसता के तत्व नहीं दिखाई पड़ते। वे दीपावली के पटाखों की भी निंदा करते हैं। उन्हें एक संप्रदाय के पर्व पर लाखों बकरों की कटाई से नालियों में बहता रक्त उद्वेलित नहीं करता। वैलेंटाइन डे पर युवाओं का अमर्यादित आचरण भी दुखी नहीं करता। वे पंथिक मजहबी त्योहारों पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करते। जनहितकारी लोकमत के निर्माण में उत्सवों की गहरी भूमिका है। पूर्वजों ने सचेत मन से ही हिंदू उत्सव गढ़े हैं। इनमें आस्था और विवेक का संगम है। भौतिक और अध्यात्म का प्रणय है। जनगणमन की सामूहिक मस्ती है। सामूहिक उल्लास सबको जोड़ता है।

होली राष्ट्रीय पर्व है

नि:संदेह होली राष्ट्रीय पर्व है। भारत को इसे अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने के प्रयास करने चाहिए। क्रिसमस पंथिक पर्व है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय है। यह यूरोपीय-अमेरिकी होने के बावजूद भारत में भी लोकप्रिय है। उनके कैलेंडर वर्ष की शुरुआत पहली जनवरी से होती है। भारत में इसकी लोक स्वीकृति है। भारतीय नववर्ष-नवसंवत्सर वैज्ञानिक होने के बावजूद लोक स्वीकृति में नहीं है। हम भारतीय स्वदेशी के प्रति सजग नहीं हैं। होली नितांत अपनी है। इसमें लोकजीवन को आनंदित करने वाले सभी आयाम हैं।

होली में कोरोना महामारी भी है, दो गज की दूरी और मास्क का अनिवार्य पालन करना है

होली का आनंद सबको नवचेतना व नव ऊर्जा से भरता है। ऋतुराज वसंत इसकी पूर्वपीठिका है और नवसंवत्सर होली उत्सवों का समापन। यह भारतीय संस्कृति की शीर्ष अभिव्यक्ति है। रंग, तरंग और उमंग भी है। होली सांस्कृतिक उमंग का मधुप्रसाद है। प्रसाद की परिणति आनंद में होती है और आनंद ही प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा है। इस बार की होली में कोरोना महामारी भी है। हम सबको दो गज की दूरी और मास्क का अनिवार्य पालन करना है। होली सबको आनंदमगन करे।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )