[डॉ. रहीस सिंह]। India-UK relations: पिछले दिनों ब्रिटिश संसद के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए संपन्न चुनावों के परिणाम कई संदेश समेटे हुए हैं, इसलिए इनकी ब्रिटेन व यूरोप सहित पूरी दुनिया के लिए महत्ता बढ़ जाती है। इन चुनावों से जुड़ी पहली बात यह है कि बीते चार वर्षों में तीसरी बार आम चुनाव हुए हैं, इसलिए अब ब्रिटेन की जनता ने राजनीतिक स्थायित्व का चुनाव किया है। लेकिन दृढ़ नेतृत्व के रूप में बोरिस जॉनसन को चुनना ब्रेक्जिट को ही नहीं, बल्कि भारत और ब्रिटेन में रह रहे भारतीयों को अहम मानते हैं, यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात है। क्या इसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता है कि भारत में जिस राष्ट्रवाद की परिकल्पना के तहत हम आगे बढ़ रहे हैं, ब्रिटेन उसी परिकल्पना के तहत भारत को साथ लेकर आगे बढ़ने का मन बना चुका है?

ब्रिटेन का राष्ट्रवादी नजरिया एक निश्चित संदेश देता है और इस बात का समर्थन करता है कि भारत ने पिछले दिनों कुछ कानूनों में परिवर्तन किया या जो नए कानून बनाए, ताकि भारत की एकता और अखंडता को मजबूत करने के साथ-साथ सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत किया जाए, का पुरजोर समर्थन करता है। हां एक बात ध्यान देनी होगी कि पश्चिमी दुनिया में जो ‘नेशन फस्र्ट’ की बयार चली है वह किस हद तक दूसरी दुनिया और तीसरी दुनिया के हितों को प्रभावित कर सकती है। अभी तक यह देखने में आया है कि डोनाल्ड ट्रंप का ‘अमेरिका फस्र्ट’ उदारवाद की बजाय संरक्षणवाद का समर्थन करता है। अगर यही ट्रेंड यूरोपीय देशों द्वारा अपनाया गया तो भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए वैश्विक स्पेस कम होने की आशंका है।

इन मुद्दों पर लडे़ गए थे चुनाव

ब्रिटेन में कुछ प्रमुख मुद्दे थे जिन पर चुनाव लड़ा गया जैसे- ब्रेक्जिट, स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश, अपराध, अर्थव्यवस्था, कार्बन उत्सर्जन और स्कॉटलैंड। इनमें नेशनल हेल्थ सर्विस या अपराध जैसे मुद्दे तो आधारभूत थे जो ब्रिटेन के सामान्यजन को प्रभावित करते हैं। नेशनल हेल्थ सर्विस का उद्देश्य ब्रिटेन के सभी लोगों के लिए मुफ्त में स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाना है, जिसकी स्थापना 1948 में हुई थी, लेकिन लेबर पार्टी इस सर्विस पर खर्च में 4.3 प्रतिशत वृद्धि करने का वादा कर रही है और लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन बोरिस जॉनसन पर इस सर्विस को अमेरिका को ‘बेचने के लिए’ रखने का आरोप लगा रहे थे। विशेष बात यह है कि ब्रिटेन के चुनाव में अपराध और सजा कभी बड़ा मुद्दा नहीं बन पाते थे, लेकिन हाल में लंदन ब्रिज पर हुए हमले ने इसे एक अहम मुद्दा बना दिया था।

इस चुनाव में तीन मुद्दे अहम माने जा सकते हैं। पहला- स्कॉटलैंड की आजादी, दूसरा अर्थव्यवस्था और तीसरा ब्रेक्जिट। वर्ष 2014 में स्कॉटलैंड की आजादी के लिए हुए जनमत संग्रह ने ब्रिटेन में एक अभूतपूर्व परिस्थिति पैदा कर दी थी। स्कॉटलैंड का अधिकांश मतदाता यूरोपीय यूनियन में बने रहना चाहता है, क्योंकि वह मान रहा है कि उसे उसकी मर्जी के खिलाफ यूरोपियन यूनियन से बाहर निकाला जा रहा है। इसलिए बोरिस जॉनसन के सामने यह चुनौती होगी ब्रेक्जिट की भावना से स्कॉटलैंड के लोगों को दूर रखना।

अर्थव्यवस्था और ब्रेक्जिट कमोबेश एक दूसरे से जुड़े मुद्दे माने जा सकते हैं। इन चुनावों में जो घोषणापत्र राजनीतिक दलों ने जारी किए गए, उनमें से केवल स्विनसन की लिबरल डेमोक्रेट्स पार्टी के ही आर्थिक घोषणापत्र को ब्रिटेन के इंस्टीट्यूट फॉर फिस्कल स्टडीज ने सही माना। कारण यह कि इसने मामूली कर वृद्धि और खर्च को बढ़ाने का वादा किया था। इसके विपरीत कंजरवेटिव पार्टी करों में कटौती करते हुए सार्वजनिक सेवाओं में निवेश करने का वादा लेकर चुनाव मैदान में उतरी थी, जबकि लेबर पार्टी ने ‘अर्थव्यवस्था के नियमों को फिर से तय करने’ का वादा किया था ताकि सभी को लाभ मिल सके। यदि ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था का माइक्रो-आब्जर्वेशन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि कंजरवेटिव्स का वादा परिस्थितियों से बहुत तालमेल नहीं खाता।

बोरिस जॉनसन ब्रेक्जिट पूरा करने के संदेश को जनता के बीच लेकर गए थे तो मतलब यह हुआ कि ब्रिटेन अब यूरोपियन यूनियन का हिस्सा नहीं रहेगा। लेकिन क्या बोरिस जॉनसन की बात से जनता यह जान पाई कि ब्रेक्जिट का अंकगणितीय लाभ कितना होगा या हानि कितनी होगी? जॉनसन चुनाव प्रचार के दौरान दावा कर रहे थे कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो वे नई संसद में आधिकारिक रूप से ‘विदड्रॉल समझौता’ कहे जाने वाली ब्रेक्जिट डील को पास करवा लेंगे और 31 जनवरी को यूके को यूरोपीय संघ से निकाल लेंगे। इसके बाद 2020 के अंत कर उनकी कोशिश रहेगी कि वे स्वतंत्र रूप से यूरोप, अमेरिका और दूसरे अहम साझेदारों के साथ नए व्यापारिक समझौते कर लेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि ब्रिटेन की जनता ने बोरिस जॉनसन को इसलिए बहुमत दिया है कि वे ब्रिटेन को ईयू से जल्द से जल्द बाहर निकालें। लेकिन सवाल यह उठता है कि यूके और ईयू इससे किस तरह से प्रभावित होंगे। इन पर पड़ने वाला प्रभाव ही द्विपक्षीय और बहुपक्षीय रिश्तों को भी प्रभावित करेगा।

दरअसल ब्रेक्जिट के पीछे एक गुलाबी तस्वीर यह दिखाई जा रही है कि वर्तमान समय में जर्मनी व फ्रांस का यूरोपीय संघ पर नियंत्रण है और ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन स्वतंत्र राष्ट्र होगा, उसकी अपनी नीतियां होंगी और वह एक दिन पुराना वैभव फिर से प्राप्त कर लेगा। लेकिन जर्मनी के बैर्टेल्समन फाउंडेशन की स्टडी के अनुसार यदि हार्ड ब्रेक्जिट (यानी बिना समझौते के ब्रेक्जिट) होता है तो इसका असर भी व्यापक होगा। ब्रिटेन को बहुत ज्यादा नुकसान होगा, लेकिन ईयू के देश भी इसकी चपेट में आएंगे। इस स्टडी रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन की वार्षिक आय में करीब 57 अरब यूरो का नुकसान हो सकता है, जबकि ईयू को 40 अरब यूरो का। यदि ऐसा हुआ तो वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था भी शुरू में नकारात्मक रूप से प्रभावित होगी।

फिलहाल ब्रिटेन को यूरोपीय संघ के देशों के साथ द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों की पुनस्र्थापना में बहुत सी अड़चनों का सामना करना पड़ेगा जिससे आर्थिक प्रक्रिया और मंद पड़ेगी। शायद इसे ही देखते हुए ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने कहा था कि ब्रिटेन के ईयू से बाहर निकलने के गंभीर आर्थिक और राजनीतिक परिणाम होंगे। रही बात भारत पर इसके असर की तो इस संबंध में मिलेजुले आकलन एवं अनुमान सामने आ रहे हैं। बहरहाल बोरिस जॉनसन को सत्ता तक ले जाने में उनके प्रो-इंडिया फार्मूले की निर्णायक भूमिका रही है। इसलिए इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि नई सरकार भारत के साथ बेहतर संबंध रखेगी।

यह भी संभव है कि 31 जनवरी को यूके के यूरोपीय संघ से निकालने के बाद बोरिस जॉनसन जितनी तेजी से यूरोप, अमेरिका और दूसरे अहम साझेदारों के साथ नए व्यापारिक रिश्ते स्थापित करने की दिशा में बढ़ेंगे, उतनी तेजी से ब्रिटेन में भारत के लिए स्पेस निर्मित होगा। ऐसी स्थिति में हम मान सकते हैं कि ‘टू ग्रेट नेशंस, वन ग्लोरियस फ्यूचर’ के निर्माण की प्रक्रिया यथावत जारी रहेगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में ‘अपराजेय संयोजन’ (अनबीटेबल कॉम्बिनेशन) कहीं अधिक ताकत प्राप्त करेगा।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]