[सुरेंद्र किशोर]। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने हाल में यह दावा किया है कि 2019 में पार्टी की वोट की हिस्सेदारी बढ़कर 50 प्रतिशत हो जाएगी। क्या यह दावा सच हो सकता है? याद रहे कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 31 प्रतिशत मत मिले थे। हालांकि उसे सीटें 282 मिली थीं। इन दिनों गैर राजग दलों में जिस तरह एकजुटता बढ़ रही है उसे देखते हुए भाजपा के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह अपने वोट का प्रतिशत बढ़ाने के उपाय करे, अन्यथा अगले आम चुनाव में उसके सामने बड़ा राजनीतिक संकट खड़ा हो सकता है। 50 प्रतिशत वोट का लक्ष्य हासिल करने के मंसूबे में कितना दम है, इसका जवाब तो अगले लोकसभा चुनाव में ही मिल सकेगा, लेकिन भाजपा की पिछली कुछ चुनावी उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए इस दावे को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। वैसे आजादी के बाद अब तक लोकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को 50 प्रतिशत वोट नहीं मिल सके हैं।

1984 में भी नहीं, जब कांग्रेस को लोकसभा में 404 सीटें मिली थीं। तब कांग्रेस को 49.10 प्रतिशत मत मिले थे। भाजपा ने 50 फीसद वोट का अभूतपूर्व लक्ष्य पाने के लिए अपनी कोशिश शुरू कर दी है। यह शुरुआत उसी उत्तर प्रदेश को ध्यान में रखकर हो रही है जहां दो मजबूत क्षेत्रीय दलों ने आपस में हाथ मिलाकर भाजपा के लिए कठिन चुनौती खड़ी कर दी है। इन दोनों दलों के एक साथ आने के कारण भाजपा को फूलपुर और गोरखपुर की अपनी सीट गंवानी पड़ी थी। कर्नाटक में सरकार बनाने की अधकचरी कोशिश से भाजपा की किरकिरी जरूर हुई, लेकिन चुनावी सफलता तो उसे वहां भी मिली। इसके बावजूद उसे 50 प्रतिशत वोट पाने के लिए बहुत कुछ करना होगा।

एक उपाय ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्गों के आरक्षण के वर्गीकरण का है। सुप्रीम कोर्ट के 1993 के एक निर्णय को ध्यान में रखते हुए भाजपा इस दिशा में कदम भी उठा रही है। इस संबंध में पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश भी केंद्र सरकार के पास 2011 से ही पड़ी हुई है। पिछड़ा वर्ग की सिफारिश पर भी सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय का ही असर था। यदि अन्य पिछड़ा वर्गों के आरक्षण में सुधार यानी उसका वर्गीकरण हुआ तो वह भाजपा के लिए चुनावी मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकता है। ओबीसी आरक्षण में वर्गीकरण को उत्तर प्रदेश के पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने ब्रह्मास्त्र करार दिया है। उनके अनुसार इस ब्रह्मास्त्र को आम चुनाव से छह माह पहले छोड़ दिया जाएगा। इसके संकेत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी दे चुके हैं। ओबीसी आरक्षण में वर्गीकरण के अलावा योगी सरकार ने 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की पहल भी की है। इससे भी पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों की संभावनाएं बढ़ेंगी।

ओबीसी आरक्षण में वर्गीकरण से अधिक पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण का लाभ समान रूप से मिल पाएगा। राजभर की मानें तो अभी तक आरक्षण का लाभ यादव, जाट, कुर्मी, सुनार आदि को ही अधिक मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में 2013 में पुलिस बल में जब 41 हजार से अधिक भर्तियां हो रही थीं तो मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट गया। हाईकोर्ट ने टिप्पणी की कि आरक्षण का लाभ सभी पिछड़ी जातियों को समान रूप से मिलना चाहिए, न कि अपेक्षाकृत सबल जातियों को। कुछ ऐसी ही टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट भी कर चुका है। मंडल आयोग की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए 1990 में जब वीपी सिंह ने केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू किया तो मामला सुप्रीम कोर्ट गया। वहां मधु लिमये ने यह दलील पेश की कि अदालत को 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण कर देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने खुद तो ऐसा करने से मना कर दिया, लेकिन उसने यह जरूर कहा कि सरकार यह काम कर सकती है।

1993 में दी गई सुप्रीम कोर्ट की इस सलाह को विभिन्न केंद्रीय सरकारों ने राजनीतिक कारणों से नजरअंदाज ही किया। शायद यही कारण है कि केंद्रीय सेवाओं में 27 प्रतिशत में से सिर्फ 11 प्रतिशत पद ही ओबीसी अभ्यर्थियों से भरे जा पा रहे हैं। जानकार मानते हैं कि आरक्षण के वर्गीकरण के बाद यह प्रतिशत बढ़ेगा। इसी के साथ इस फैसले का राजनीतिक लाभ भी उस दल को मिलेगा जो ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण करेगा। मोदी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती दिख रही है। ध्यान रहे कि कुछ राज्य सरकारों ने पहले ही ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण कर दिया है।

2011 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने ओबीसी आरक्षण के वर्गीकरण की सिफारिश मनमोहन सिंह सरकार से की थी। इस सिफारिश के तहत 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटने की सलाह दी गई थी। ये तीन हिस्से पिछड़े, अधिक पिछड़े और अत्यंत पिछड़े के रूप में करने की बात कही गई थी। जाहिर है कि राजनीतिक कारणों से मनमोहन सरकार ने इस सिफारिश को नजरअंदाज कर दिया, लेकिन बीते साल अक्टूबर में मोदी सरकार ने ओबीसी आरक्षण के वर्गीकरण के उद्देश्य से दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी रोहिणी के नेतृत्व में पांच सदस्यीय एक आयोग गठित किया। इस आयोग को तीन महीने में रपट देनी थी, लेकिन उसका कार्यकाल बढ़ाया जाता रहा।

पिछली बार कार्यकाल बढ़ाते समय केंद्र सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि 20 जून के बाद कार्यकाल नहीं बढ़ेगा। इसका मतलब है कि इस तिथि तक आयोग की रपट आ जाएगी। यह रपट इस बात को स्पष्ट करेगी कि पिछड़े, अधिक पिछड़े और अत्यंत पिछड़े वर्ग में कौन-कौन सी जातियां आएंगी। ओबीसी जातियों को इन तीनों वर्गों में विभाजित कर उन्हें नौ-नौ प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की जा सकती है। आसार यही हैं कि केंद्र सरकार इस आशय की अधिसूचना जल्द से जल्द जारी करेगी। चूंकि यह अधिसूचना 1993 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुकूल होगी इसलिए उसके किसी कानूनी पचड़े में पड़ने की कोई गुंजाइश भी नहीं रहेगी। हो सकता है कि इस अधिसूचना से ओबीसी की उन जातियों में कुछ नाराजगी फैले जिन्हें अभी आरक्षण का लाभ उनकी आबादी के अनुपात से अधिक मिल रहा है, लेकिन वे शेष ओबीसी जातियां अवश्य खुश होंगी जिनका हक मारा जा रहा है।

जाहिर है कि इसका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिलेगा और उसे अपना वोट शेयर 31 से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने में आसानी हो सकती है। ओबीसी आरक्षण में वर्गीकरण का अच्छा-खासा असर जिन राज्यों में देखने को मिल सकता है उनमें उत्तर प्रदेश और बिहार प्रमुख हैं। अकेले इन दो राज्यों में लोकसभा की कुल 120 सीटें हैं। ये दोनों राज्य आरक्षण के लिहाज से संवेदनशील भी हैं। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के समय आरक्षण पर कुछ बयानों ने भाजपा को नुकसान पहुंचाया था। अभी भी भाजपा विरोधी दल यह कहते रहते हैं कि मोदी सरकार आरक्षण खत्म करना चाहती है, लेकिन यदि वह आरक्षण का वर्गीकरण कर देती है तो विरोधी दलों के लिए पिछड़े वर्गों के मन में संशय पैदा करना कठिन हो जाएगा। उनके पास इस सवाल का भी जवाब नहीं होगा कि उन्होंने अब तक यह काम क्यों नहीं किया?

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)